भारत के विचारों की रक्षा की अपनी मूल भूमिका में वापसी करती कांग्रेस का पुनर्जन्म
सत्ता में 60 साल से अधिक समय तक रहने के दौरान कांग्रेस ने अपनी असली ताकत खो दी थी लेकिन लगता है कि अब उसने उसे वापस पा लिया है।
हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव का एक बड़ा फायदा कांग्रेस के विचार की वापसी है। जब मैं ‘कांग्रेस’ कहता हूं, तो मेरा मतलब उस कांग्रेस से होता है जो ‘विपक्ष और प्रतिरोध’ की ताकत है। मेरा मतलब सत्ता पोषित कांग्रेस से नहीं बल्कि उस कांग्रेस से है जो अन्याय और भय के प्रतिकार से जीवन और ताकत पाती है।
कांग्रेस का जन्म भी ऐसे ही हुआ और अंग्रेजों के विरोध और प्रतिरोध के माध्यम से यह बड़ी हुई। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई मूल रूप से समानता के विचार पर आधारित थी। कांग्रेस पार्टी की पहली मांग ब्रिटिश भारत में भारतीयों के लिए समान व्यवहार थी। कुछ समय बाद उसे एहसास हुआ कि समानता की एक आवश्यक शर्त स्वतंत्रता है। समानता का अधिकार किसी ‘मालिक’ की उदारता या परोपकार पर निर्भर नहीं हो सकता जो यह तय करे कि आपको कौन से अधिकार मिले और कब। इस तरह ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ कांग्रेस का नारा बना।
दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधी जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के उद्घाटन पर अपना पहला बड़ा सार्वजनिक भाषण दिया। उनका वह भाषण विद्रूप असमानता पर तीखा हमला है: ‘हमने उस विशाल पंडाल में क्या देखा जहां वायसराय ने शिलान्यास किया? निश्चित रूप से यह एक शानदार कार्यक्रम रहा जिसमें आभूषणों का ऐसा दिखावा था कि पेरिस के बड़े जौहरियों की भी आंखें खुली रह जाएं। मैं अमीरी से सजे-धजे कुलीन लोगों की तुलना लाखों गरीबों से करता हूं। और मुझे इन कुलीन लोगों से यह कहने का मन करता है: भारत का तब तक उद्धार नहीं हो सकता जब तक आप अपने इन आभूषणों को उतारकर इसे अपने देशवासियों के लिए ट्रस्ट को नहीं दे देते।’
गांधी जी धन, संसाधनों के पुनर्वितरण की बात कर रहे थे। उस भाषण के सौ साल से भी अधिक समय बाद, उनकी पार्टी ने इसे अपने घोषणापत्र में एक लक्ष्य के तौर पर शामिल किया है और इस इरादे को जाहिर करना भी उन लोगों के दिलों में खौफ पैदा करने के लिए काफी है जिन्होंने भारत की सारी संपत्ति अपने कब्जे में कर रखी है।
गांधी जी के वे शब्द उस मौके पर मौजूद लोगों को इतने नागवार गुजरे कि एनी बेसेंट को उन्हें रुकने के लिए कहना पड़ा। लोग बाहर चले गए और गांधी अपना भाषण पूरा भी नहीं कर पाए। लेकिन प्रतिरोध जन्म ले चुका था। अन्यायपूर्ण कानूनों और अन्यायपूर्ण सत्ता के साथ सहयोग करने से इनकार करने की भावना जाग चुकी थी। अंग्रेजों के खिलाफ प्रतिरोध की इसी भावना ने लाखों लोगों को कांग्रेस की ओर खींचा। इस तरह यह आम लोगों की पार्टी बन गई- जिसके केन्द्र में थे गांधी के विचार जो किसी से भी घृणा करने के विरुद्ध थे, यहां तक कि उनसे भी जिनसे आप लड़ रहे हों।
गांधी ने कहा, यह प्रेम है जिसे आपको प्रतिरोध की प्रेरक शक्ति के रूप में, वर्चस्व के विरोध के रूप में विकसित करना होगा। गांधी जी ने अपने असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों के माध्यम से जो प्रदर्शित किया, वह यह है कि एक आम व्यक्ति भी प्रतिरोध कर सकता है। ऐसा करने के लिए आपको क्रांतिकारियों की तरह असाधारण होने की जरूरत नहीं है जो हिंसा के उपयोग की क्षमता रखते हैं; आपको बस डर को छोड़ना है।
गांधी जी ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर एक और काम किया- उन्होंने एक ऐसी सामाजिक सहबद्धता बनाई जिसमें सब के लिए जगह थी। आखिर समाज में एक नई एकजुटता जो बनानी थी जिसमें श्रेष्ठता और वर्चस्व के विचार को खत्म करना था। यही अस्पृश्यता (छुआछूत) के खिलाफ गांधी की लड़ाई का आधार बना जो बाद में बहुसंख्यकवाद और जात-पात को खत्म करने के अभियान में बदल गया।
गांधी की कांग्रेस प्रतिरोध की कांग्रेस थी। इसने कांग्रेस के विचार को रोमांटिक बना दिया। लेकिन कांग्रेसियों ने इस संघर्ष के दौरान भी मंत्रालय बनाए। ब्रिटिश उपनिवेशवाद का मुख्य विरोधी होने के साथ-साथ सत्ता में रहने वाली पार्टी होने के कारण विरोधाभास तो स्वाभाविक था।
सत्ता के साथ सत्ता के सभी अवगुण भी आए जिसके बारे में गांधी ने एक बार ‘कांग्रेस के गंदे अस्तबल को साफ करने की इच्छाशक्ति’ की बात की थी। दूसरे शब्दों में, कांग्रेस को खुद कांग्रेस का विरोधी बनना था।
कांग्रेस में दूसरी लड़ाई नागरिक राष्ट्रवाद और धार्मिक/सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विचारों के बीच थी। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का खिंचाव बहुत मजबूत था। पारंपरिक विचारों का मुकाबला आधुनिक विचारों से करना आसान नहीं था। यह लड़ाई आजादी के बाद भी जारी रही। नेहरू को पुरुषोत्तम दास टंडन, राजेंद्र प्रसाद, वल्लभभाई पटेल जैसे रूढ़िवादी हिन्दू संस्कृतिवादियों का मुकाबला करना पड़ा। वास्तव में, प्रधानमंत्री नेहरू कांग्रेस पार्टी में ही सत्ता के प्रमुख ‘विपक्ष’ थे।
स्वतंत्र भारत में साठ साल तक सत्ता में रहने से यह हुआ कि कांग्रेस अपनी विपक्षी भूमिका को भुला बैठी। लोग इसमें इसलिए आए क्योंकि उन्हें सत्ता का फल चखने की संभावना दिखी।
एक बार फिर सवाल उठता है: 'कांग्रेस के गंदे अस्तबल' को कौन साफ करेगा? पार्टी ने 1977 में कुछ समय के लिए सत्ता खो दी, 1980 में इसे हासिल किया लेकिन 1989 में इसे फिर खो दिया। उसके बाद सत्ता में इसका एकमात्र लंबा कार्यकाल 2004 से 2014 के बीच रहा। फिर वह विपक्ष में ही रही लेकिन 2024 के चुनावों में विपक्ष की मजबूत आवाज बनकर उभरी।
वैसे, इतने समय तक सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस को सत्ता की स्वाभाविक पार्टी समझा जाता है और यही कारण है कि सत्ता में रहने के बाद भी अन्य सभी पार्टियां ‘कांग्रेस के विपक्ष’ की तरह व्यवहार करती रहीं। लेकिन 2014 के बाद यह बदल गया। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय राजनीति में नई व्यवस्था उभरी। औपनिवेशिक महत्वाकांक्षाएं लौटीं और एक तानाशाही सरकार ने भारतीयों के जीवन के सभी पहलुओं पर कब्जा करना शुरू कर दिया। इस सरकार ने नागरिकों को प्रजा मानना शुरू कर दिया और वे व्यावहारिक रूप से नेता और पार्टी के गुलाम बनकर रह गए।
मेरे विचार से यह भारत का एक तानाशाही राजनीति में प्रवेश था जिसमें भारत सरकार भारतीय मानस का फिर से औपनिवेशीकरण की कोशिश कर रही थी और इसी ने कांग्रेस को उसकी विपक्षी भूमिका की याद दिला दी। मुझे नेहरू के निधन की 50वीं पुण्यतिथि के मौके पर शिक्षाविदों के एक समूह के साथ एक बातचीत की याद आती है जिसमें राहुल गांधी ने कहा था कि उन्हें यकीन है कि कांग्रेस बीजेपी से नहीं बल्कि आरएसएस से लड़ रही है।
एक बार फिर प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए कांग्रेस को अपने अस्तबल को साफ करना पड़ा। यह काम राहुल गांधी के कंधों पर था। पार्टी को सत्ता का टिकट मानने वाले कुछ कॅरियर राजनेताओं ने ‘हरी-भरी चारागाह’ की तलाश में पार्टी छोड़ दी तो कुछ इसकी तैयारी में थे। राहुल गांधी को इस बात के लिए निशाने पर लिया गया कि वह मजबूत नेताओं को पार्टी में बनाए रखने में नाकामयाब रहे।
लोग भूल जाते हैं कि नेहरू भी जेपी या राम मनोहर लोहिया या जे.बी. कृपलानी, राजाजी वगैरह को पार्टी छोड़ने से नहीं रोक पाए थे। इंदिरा गांधी के समय में भी कई पुराने कांग्रेसियों ने पार्टी छोड़ दी थी। वैसे, जरा गहराई से देखें तो पाएंगे कि कांग्रेस से सामंती, दक्षिणपंथी तत्वों का सफाया हो रहा है और उनका निकल जाना कांग्रेस के लिए अच्छा ही है।
सत्ता से बाहर रहना उन लोगों के लिए आसान नहीं होता जिन्हें लगता हो कि उन्हें शासन ही करना है लेकिन मोदी शासन ने कांग्रेस को अपनी भूली हुई भूमिका को फिर से तलाशने में मदद की है। इसने कांग्रेस को याद दिलाया है कि उसका काम भारत के उन विचारों की रक्षा करना है जो देश को एक ऐसा धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का आश्वासन देते हैं जिसमें सभी लोग बराबर हों, जनता सर्वोच्च हो और देश एकजुटता की भावना से सभी के लिए स्वतंत्रता, समानता, न्याय सुनिश्चित करने की आकांक्षा रखता हो।
कांग्रेस को उसकी वह ऐतिहासिक भूमिका याद दिलाई गई है जिसमें सभी लोगों को एक साझा नियति में समान भागीदार होने की भावना के साथ आगे बढ़ना है। पिछले एक दशक से, कांग्रेस नई अधिनायकवादी शासन से लड़ने के लिए एक भाषा की तलाश कर रही थी। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी द्वारा की गई दो यात्राओं के दौरान उसे यह मिल गई है। इसलिए, इसमें कोई हैरानी नहीं है कि पार्टी एक बार फिर उन सभी लोगों के लिए एक आश्रयस्थली बन रही है जो हाशिये पर पड़े और वंचितों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। वे सत्ता की उम्मीद में नहीं बल्कि इस भावना के साथ आ रहे हैं कि पार्टी लोगों के अधिकारों के लिए लड़ेगी। आइए, हम कांग्रेस के इस दूसरे जन्म का जश्न मनाएं!
(अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर और राजनीतिक तथा सांस्कृतिक मामलों के टिप्पणीकार हैं।)
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