मृणाल पाण्डे का लेखः प्रवासी मजदूरों की वापसी के बाद की चुनौती, अर्थव्यवस्था डूबने के साथ महामारी फैलने का खतरा

दशकों के तिरस्कार से आहत प्रवासी मजदूरों का वापस गांवों की ओर पलायन एक अनोखी बात है। पसीने बहाते, थकान से चूर ये मजदूर पूरा दिन हमारे टीवी स्क्रीन पर छाए रहते हैं। ये इसलिए लौट रहे हैं कि आज बड़े शहरों में रहे तो कोरोना वायरस से नहीं तो भूख से मर जाएंगे।

फोटोः सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

पूरे देश में आनन-फानन पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा और उसके कारण हुई तमाम हृदय विदारक घटनाओं के बाद अंततः हमारे बेकाम-बेघरवार प्रवासी मजदूरों को दिल्ली से उनके घर ले जाने के लिए ट्रेनों की व्यवस्था की गई है। बताया जा रहा है कि देश के व्यापार और पर्यटन को खोलने की यह शुरुआत है। प्रवासी मजदूरों की दयनीय दुर्दशा का अंततः अंत दिख रहा है और वे राहत महसूस कर रहे हैं, लेकिन हमारे नेता और हमारा बाजार अपने आप से यह पूछना भूल गए कि आखिर ये प्रवासी मजदूर भाग क्यों रहे हैं? उन्होंने लॉकडाउन के खत्म होने और काम-धंधे के फिर शुरू हो जाने का इंतजार क्यों नहीं किया? आखिरकार गरीब झुग्गी-झोपड़ियों में तो रह ही रहे हैं, फिर ये प्रवासी क्यों नहीं रुके?

एक मंजी हुई नौकरशाह शैलजा चंद्र यह गुत्थी सुलझाती हैं। वह कहती हैं कि शहरी गरीबों में भी दरअसल दो प्रजातियां हैं। एक वे प्रवासी मजदूर हैं जो घबराकर अकल्पनीय दूरी को पैदल ही नापकर अपने-अपने घरों लिए निकल पड़े हैं और दूसरे वे हैं जो यहां की झुग्गी-झोपड़ी या कॉलोनियों में रहते हैं। झुग्गी-झोपड़ी वालों ने शहरी व्यवस्था में अपने लिए ऐसी जगह बना ली है कि किसी भी महामारी में उनके लिए अधर में झूलने की नौबत नहीं आती। ये ऐसे अहम वोट बैंक हैं जो अपनी बात मनवाना जानते हैं। वे विभिन्न सुविधाओं के लिए तोलमोल कर सकते हैं लेकिन प्रवासी मजदूरों के साथ ऐसी बात नहीं।

बड़े शहरों में खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था होती है, लेकिन प्रवासी मजदूर इसके दायरे में नहीं आते। बड़ी संख्या में इन सस्ते मजदूरों को लौटते देखकर हमारे ये बड़े शहर चिंतित तो होते हैं लेकिन फिर भी उन्हें इस बात का अहसास नहीं होता कि बिल्कुल निचले स्तर तक पहुंचते-पहुंचते हमारे श्रम काननू कितने भेदभावपूर्ण हो जाते हैं। इन मजदूरों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता और न ही कोई इंस्पेक्टर कभी यह देखने की जहमत उठाता है कि ये मजदूर जहां काम कर रहे हैं, वहां उन्हें न्यूनतम मजदूरी मिल भी रही है या नहीं। यह सही है कि रजिस्ट्रेशन तो इस दिशा में पहला कदम है।

हम छह महिलाओं ने 1989 में असंगठित क्षेत्र में काम कर रही महिला मजदूरों पर रिपोर्ट (श्रम शक्ति रिपोर्ट, भारत सरकार) तैयार करने के दौरान इस मुद्दे को उठाया था और रिपोर्ट इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालती है। लेकिन साल 2020 में भी हम इन नियम-काननूों को अदृश्य ही पाते हैं। ऊपर से कुछ मुख्यमंत्री तो ऐसे हैं जिन्होंने आपदा अधिनियम की आड़ में बड़े ही शातिराना अंदाज में मजदूरों के सिर से श्रम काननूों का साया ही हटा दिया है।

पिछले सात दशकों से हम प्रवासी मजदूरों का मौसमी और गैर-मौसमी तौर पर एक जगह से दूसरे जगह जाना देखते रहे हैं। भारतीय जीडीपी में उनके बढ़ते योगदान के बावजूद ये प्रवासी भारतीय अर्थव्यवस्था की मैली-कचैली तलहटी जैसे हैं। ये आम तौर पर विभिन्न ग्रामीण इलाकों से शहरों में आते हैं और बहुत जल्द ही बड़े व्यवसाय, विकास के बड़े-बड़े पैमानों और मोटा पैसा कमाने वाली व्यवस्था की धुरी बन जाते हैं।

जलवायु परिवर्तन और पानी की कमी के कारण पुराना कृषि उद्योग कमजोर पड़ रहा है और ऐसे में ये औद्योगीकृत शहर फैक्टरियों और सेवा क्षेत्र में काम करने के बदले इतना पैसा दे देते हैं जिनसे ये प्रवासी मजदूर पर्याप्त बचे पैसे घर भेज सकें और उससे गांव में उनके परिवारों का गुजारा हो जाए, जो खेतीबाड़ी से जुड़े काम से संभव नहीं होता।

दशकों के तिरस्कार से आहत और कमजोर पड़ती खेती-बाड़ी के इस माहौल में हाल-फिलहाल मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली और चेन्नई जैसे बड़े शहरों से लोगों का वापस गांवों की ओर पलायन एक अनोखी बात है। पसीने बहाते, थकान से चूर ये प्रवासी मजदूर पूरा दिन हमारे टीवी स्क्रीन पर छाए रहते हैं और ये इसलिए लौट रहे हैं कि आज के माहौल में अगर वे कोविड-19 से नहीं तो भूख से मर जाएंगे।

लेकिन अब जबकि प्रवासी मजदूरों के लिए घर लौटना आसान हो गया है, यह कोई राहत की बात नहीं है। बहुत जल्द उद्योग से लेकर राज्य सरकारों तक को कहीं बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा और पूरा देश इसकी चपेट में होगा और इसका असर यह होगा कि महामारी का विस्तार तो होगा ही, अर्थव्यवस्था को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

आज की ज्यादातर ग्राउंड रिपोर्ट महामारी से हुई मौत या फिर पैदल ही अपने घरों के लिए निकल पड़े प्रवासी मजदूरों की व्यथा-कथा या फिर ट्रकों और टैम्पो में अवैध रूप से जानवरों की तरह लौट रहे प्रवासियों पर केंद्रित रहती है। यह वाकई बड़ी सुखद अनुभूति है कि कुछ बहादुर मीडिया वाले उनकी यात्रा पर नजर रख रहे हैं। लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि क्या होगा जब इनमें से अधिकतर लोग अपने घर पहुंच जाएंगे?

उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक ये प्रवासी मजदूर भारत के उत्तरी और उत्तर पूर्व के सबसे गरीब इलाकों से आते हैं। 2007-08 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) आंकड़ों के मुताबिक तीन चौथाई से भी ज्यादा प्रवासी मजदूर (78 फीसदी) बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से आते हैं। फिलहाल इन राज्यों के 60 फीसदी जिले रेड जोन में हैं। 39 फीसदी जिले खतरे को रोक पाने में सफल रहे हैं और फिलहाल ग्रीन जोन में हैं। लेकिन वायरस के साथ वापस लौट रहे प्रवासी मजदूरों के कारण सभी के लिए खतरे की बात है।

एनएफएचएस की 2015-16 की रिपोर्ट के मुताबिक इन क्षेत्रों में घरों की औसत सदस्य संख्या 4.6-5.9 है और 2.8-3.1 लोगों को एक ही कमरे में रहना पड़ता है। जिन घरों की स्थिति अच्छी है, वहां बुजुर्गों (65 साल से अधिक) की संख्या 22 फीसदी से अधिक है, जबकि गरीब घरों में यह औसत 27.1 फीसदी है। इन इलाकों में पेयजल की उपलब्धता एक समस्या तो है ही, 53.9 फीसदी लोग अब भी खुले में शौच जाते हैं। पचास फीसदी से कुछ ही ज्यादा घरों में हाथ धोने के लिए साबुन और पानी उपलब्ध है।

यह सच है कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय का कवरेज बढ़ गया है, लेकिन उपलब्धता और इस्तेमाल करना दो अलग बातें हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब इन लौट रहे प्रवासियों के गृह जिलों में से आधे से भी कम कोविड-19 के मद्देनजर जारी स्वास्थ्य संबंधी दिशानिर्देशों का पालन करने की स्थिति में हैं तो समझा जा सकता है कि लौट रहे प्रवासियों को लेकर ये जिले कितने तैयार हैं।

अब इन प्रवासियों के गृह जिले में स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं की बात। एनएफएचएस के आंकड़े बताते हैं कि इन छह राज्यों में प्रति 10 हजार आबादी सरकारी अस्पतालों की संख्या राष्ट्रीय औसत से कम है। अब तक मीडिया में हममें से अधिकतर लोगों ने इस बारे में परिदृश्य को उदास निराशावादी नजरों से देखा है। शायद हमारी यह निराशा हमको अपने विखंडन के दु:स्वप्नों से बचाव के लिए अभी एक टीका लगा दे, लेकिन ऐसी भाग्यवादिता और लच्छेदार जुमलेबाजी से जो भी नए कदम उपजेंगे, वे हमको इस भयावह स्थिति से निबटने के लिए एक कमजोर, फौरी सहारा देने से अधिक आगे नहीं जाएंगे।

यह सही है कि प्रवासी संक्रमण लेकर लौट रहे हैं। उन्हें घरों में आइसोलेशन में रख भी दिया जाए लेकिन उनके इलाकों में रातों रात साफ पानी की आपूर्ति और साफ-सफाई की अन्य सुविधाएं मुहैया नहीं कराई जा सकतीं। इसलिए आने वाले कुछ महीनों तक इन गरीब राज्यों की सरकारों और यहां नियमित रूप से रहने वाले लोगों को सिर के बल खड़ा रहना पड़ेगा। इन प्रवासियों की तत्काल जांच के अलावा उनके लिए क्वारंटाइन की व्यवस्था, राज्यों को अपने यहां अस्पतालों, डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की मौजूदा क्षमता को बढ़ाने में मदद करना और संक्रमित एवं संक्रमण के संभावित शिकार लोगों के साथ तिरस्कार नहीं बल्कि सहृदयता से पेश आना समय की जरूरत है।

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