चिपको आंदोलन के नेता चंडी प्रसाद भट्ट ने कहा, पहाड़ों पर हो रहे अंधाधुंध विकास के चलते पर्यावरण की बुरी हालत

पद्म भूषण चंडी प्रसाद भट्ट ने कहा कि 1970 के दशक में चला चिपको आंदोलन फिर प्रासंगिक हो गया है और पर्यावरण की बुरी हालत के लिए पहाड़ों पर हो रहा अंधाधुंध विकास और वनों की कटाई जिम्मेदार हैं।

फोटो: सोशल मीडिया 
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आईएएनएस

देश का पर्यावरण आज ऐसे मोड़ पर पहुंच गया है, जहां एक तरफ बाढ़ आती है तो वहीं सुखाड़ का भी सामना करना पड़ता है, विनाशकारी आपदाएं परंपरा बनती जा रही हैं, भूजल पाताल पहुंच गया है, और हवा जहरीली हो गई है। ऐसे में 1970 के दशक में हिमालय की पहाड़ियों में शुरू हुआ चिपको आंदोलन आज अधिक प्रासंगिक हो गया है। यह कहना है चिपको के नायक, वरिष्ठ गांधीवादी पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट का।

उन्होंने आगे कहा कि पर्यावरण के ऐसे हालात के लिए हिमालय, या अन्य पहाड़ियों पर अंधाधुंध विकास और उसके लिए वनों की कटाई को जिम्मेदार मानते हैं। यदि देश को बचाना है तो पहले हिमालय को बचाना होगा, हिमालय की पहाड़ियों, या अन्य पहाड़ियों पर वनस्पतियों को बचाना होगा, अन्यथा आपदा हर कदम दस्तक देती रहेगी और उससे उबर पाना किसी भी आधुनिक समाज के लिए कठिन हो जाएगा।

गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित भट्ट पिछले महीने प्रख्यात पर्यावरणविद और गांधीवादी चिंतक अनुपम मिश्र स्मृति प्रथम व्याख्यान के लिए दिल्ली में थे।

उन्होंने कहा, “देश के मैदानी हिस्से हिमालय से निकली नदियों द्वारा लाई गईं मिट्टी से निर्मित हुए हैं। हिमालय और मैदानों के बीच गहरा अंर्तसबंध है। हिमालय में होने वाली किसी भी पर्यावरणीय घटना से नदियां प्रभावित होती हैं, और नदियां मैदानों को प्रभावित करती हैं। आज यही स्थिति है।”

पद्मभूषण से सम्मानित भट्ट ने आगे कहा, “नदियां बारिश के मौसम में हिमालय से बड़ी मात्रा में मिट्टी लाती हैं, जिससे नदियों का तल उठता जा रहा है। बारिश में बाढ़ आती है, तो गर्मी में नदियों में पानी नहीं होता। भूजल नीचे जा रहा है, कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है, पेय जल की समस्या उठ खड़ी हुई है।”

उन्होंने कहा कि सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध न हो पाने के कारण वर्ष 2015-16 में कृषि विकास दर 1.2 प्रतिशत के निम्न स्तर पर पहुंच गई। क्या पहाड़ियों में विकास की जरूरत नहीं है?

मैगसेसे पुरस्कार विजेता भट्ट कहते हैं, “विकास कहां और कितना करना है, इसे समझने की जरूरत है। बड़े वृक्षों के साथ ही छोटी वनस्पतियों के संरक्षण की जरूरत है। बारिश की आपदा तो आएगी, हम उसे रोक नहीं सकते, लेकिन उसके प्रभाव को कम कर सकते हैं। छोटी वनस्पतियां पानी रोकती हैं, और उस पानी को धीरे-धीरे धरती सोख लेती है। उससे एक तरफ आपदा नियंत्रित होती है, तो दूसरी तरफ नदियां, नाले और झरने सदानीरा बने रहते हैं। प्रकृति का यही शास्वत नियम है, लेकिन आधुनिक विकास में इस नियम को नकार दिया गया है।”

उन्होंने आगे कहा, “चिपको इन्हीं समस्याओं से निपटने का एक अभियान था। तब अलकनंदा की बाढ़ ने हिमालय के जनमानस को सोचने पर मजबूर कर दिया था। वन विभाग के ठेकेदार वनों को साफ करते जा रहे थे। सीमांत राज्य में आंदोलन के सीमित विकल्प थे। आंदोलन किसी भी रूप में हिंसक न हो जाए, इसका ख्याल रखना था। अंत में चिपको का स्वरूप सामने आया। चिपको की सफलता में अनुपम मिश्र का अनुपम योगदान रहा। वे न होते तो शायद यह आंदोलन सफल नहीं हो पाता।”

गांधीवादी कार्यकर्ता भट्ट ने उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) के चमोली जिले के गोपेश्वर गांव में 1964 में ‘दशोली ग्राम स्वराज्य संघ’ की स्थापना की थी, जिसके तहत ही मार्च 1973 में चिपको आंदोलन शुरू हुआ। महिलाओं ने इसमें खास भूमिका निभाई थी, और वे वन विभाग के ठेकेदारों से वनों को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक जाती थीं।

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Published: 08 Jan 2018, 8:59 PM