रमजान आया तो जरूर, मगर अपनी रौनकें कहीं छोड़ आया
इस बार लॉकडाउन की वजह से लोग न तो घरों के बाहर कहीं खड़े हो सकते हैं और न ही आखिरी समय पर इफ्तार का सामान खरीदने वाले लोग बाहर निकल रहे हैं। इस बार या तो लोग इफ्तार के सामान पहले खरीद ले रहे हैं या फिर, घर पर ही जो सामान तैयार हो सके, उससे ही कमा चला रहे हैं।
अरे भइया, जरा जल्दी दे दो। रोजा खुलने में थोड़ा ही वक्त रह गया है। इस रमजान में इस तरह के वाक्य सुनने को नहीं मिल रहे हैं। पिछले साल तक शाम में फल और खजूर बेचने वालों के पास इस तरह के वाक्य खूब सुने जाते थे। लेकिन इस दफा या तो लोग पहले ही ये चीजें खरीद के रख रहे हैं या फिर कुछ इलाकों में दोपहर बाद उनके यहां बेचने वाले आते हैं और वे उन्हीं से इफ्तार का सामान खरीद लेते हैं।
देश के अधिकांश हिस्सों में आम तौर पर पांच चीजें इफ्तार का हिस्सा रहती हैं: खजूर, कोई सॉफ्ट ड्रिंक और अधिकांशतः रूह आफ्जा, मिक्स्ड फ्रूट चाट, तरह-तरह की पकौड़ी और चने। आम तौर पर मुसलमान असर की नमाज यानी इफ्तार से पहले की आखिरी नमाज के बाद ये सामान खरीदने के लिए बाजार जाते रहे हैं और इस वजह से शाम के वक्त गली-मोहल्लों की बाजारों में भारी भीड़ जमा होती रही है।
लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। लॉकडाउन की वजह से ये सामान बेचने वाले न तो कहीं खड़े हो सकते हैं और न ही आखिरी समय पर ये सामान खरीदने वाले लोग बाहर निकलते हैं। या तो लोग इसे पहले खरीद लेते हैं या फिर, घर पर ही जो सामान तैयार हो सकता है, उससे ही कमा चला ले रहे हैं।
अभी दो माह पहले जिस उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा हुई, वहां रीटेल की दुकान चलाने वाले मोहम्मद शाकिर इसे सकारात्मक नजरिये से देखते हैं। वह कहता हैं, “बिल्कुल आखिरी वक्त वाली टेन्शन नहीं है, क्योंकि सब चीजें पहले से तैयार की हुई होती हैं। लोग अब सच्चे इस्लाम का पालन कर रहे हैं और अधिक धार्मिक बन रहे हैं, क्योंकि पहले मार्केटिंग और अन्य चीजों में लोग समय जाया करते थे।”
लेकिन मुंबई के दानिश इस दर्शन से इत्तेफाक नहीं रखते। वह कहते हैं, “इस्लाम सामाजिक मेलजोल की संस्कृति को बढ़ावा देता है। नमाज इसी तरह की चीज है जहां मुसलमानों को अजान के जरिये मस्जिद में आने और मस्जिद में नमाज अदा करने को कहा जाता है। रमजान में इफ्तार पार्टियों का चलन है।” केरल में पलक्कड़ के रशीद कहते हैं, “हम रमजान की चहल-पहल को मिस कर रहे हैं। केरल में तो यह थोड़ा अलग रंग लिए भी रहता है क्योंकि यहां इफ्तार के वक्त हिंदू भी मुसलमानों के घरों में आते हैं जिसकी वजह से यहां त्योहार वाला माहौल होता है, बिलकुल उसी तरह जैसे उत्तर भारत में शादी-ब्याह के मौकों पर होता है।”
लॉकडाउन के दौरान रमजान ही नहीं, हर किस्म के धार्मिक अवसरों का तरीका बदल गया लगता है। चांद नजर आने के बाद रमजान के महीने में तरावीह के नाम से जानी जाने वाली खास नमाज ईशा की नमाज, यानी दिन की अंतिम नमाज के बाद अदा की जाती है। इन तवारीह में वह व्यक्ति जिन्होंने पवित्र कुरआन को दिल से याद किया हुआ होता है और जिन्हें हाफिज कहते हैं, वे इस वक्त में कुरआन पढ़ते हैं और दूसरे हाफिज इसे सुनते हैं। सुनने वाला हाफिज जिसे सामे कहते हैं, उसका काम यह होता है कि अगर तरावीह में कुरआन सुनाने वाला हाफिज कोई गलती कर दे या उसको कहीं से याद न आए तो वह उसे याद दिला दे और गलती सुधार दे।
तवारीह में पूरे पवित्र कुरआन का पाठ किया जाता है क्योंकि माना जाता है कि पूरा कुरआन रमजान के महीने में ही धरती पर उतरा था। इस उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्से में इस तरह कुरआन पढ़ने और सुनने वाले- दोनों हाफिजों को लोगों से काफी कुछ रुपये-पैसे, कपड़े-लत्ते के तौर पर गिफ्ट वगैरह मिल जाया करते हैं।
दिल्ली में जाकिर नगर के अब्दुल्ला कहते हैं, “हाफिजों के लिए तो लॉकडाउन बुरे दिन वाले हैं क्योंकि वे पूरे साल कुरआन की आयतें याद करते हैं और इसका पाठ करने के लिए रमजान का इंतजार करते हैं और निश्चित ही ऐसा करने पर उन्हें रुपये-पैसे, कपड़े-लत्ते वगैरह भी मिल जाते हैं।”
सेवानिवृत्त सरकारी मेडिकल ऑफिसर डॉ. अंजुम इस लॉकडाउन में मदरसों को लेकर भी अफसोस जताते हैं। वह कहते हैं, “इस महीने में मुसलमानों की बड़ी आबादी जरूरतमंदों, मदरसों और दूसरे गरीबों को जकात- अपनी बचत का ढाई प्रतिशत हिस्सा- देती है। लोग अधिकांशतः मदरसा प्रबंधकों को पैसे देते हैं, क्योंकि मदरसों को चलाने के लिए ये पैसे ही प्रमुख स्रोत होते हैं। मदरसे के स्टाफ के लोग रमजान के महीने में अपनी जान-पहचान वालों से जकात के लिए सपर्क करते हैं। लेकिन इस दफा न तो स्टाफ ने संपर्क किया, न लॉकडाउन में लोगों की कम व्यापार की वजह से ज्यादा आमदनी हुई। अगर कुछ पैसे हैं, तो वे लॉकडाउन की वजह से मुश्किलों में रह रहे गरीब परिवारों को मदद करने में खर्च कर रहे हैं। इसलिए पूरे हालात ही उलट-पुलट गए हैं।
पड़ोसी देश पाकिस्तान के कराची की जाहिदा कहती हैं कि “यहां कुछ मॉल और बाजार बंद हैं, इसके अलावा यहां जनजीवन सामान्य है। हमें अपनी सोसाइटियों के अंदर सबकुछ मिल जा रहा है, लेकिन लॉकडाउन के दौरान हम रमजान के दौरान सामाजिक मेलजोल को तो मिस कर ही रहे हैं। हालांकि सामाजिक संगठनों ने इस बार ईद पुराने कपड़ों में ही मनाने की अपील की है, लेकिन काफी सारी महिलाएं कपड़ों की ऑनलाइन खरीदारी भी कर रही हैं।
वैसे, आस्ट्रेलिया में डॉक्टर लबीबा इस बार कोई बहुत फर्क महसूस नहीं कर रही हैं। वह बताती हैं, “वास्तव में, इस इलाके में कोविड-19 का फैलाव बहुत नहीं हुआ इसलिए यहां सबकुछ सामान्य है और बहुत अंतर नहीं पड़ा है। हां, ब्रिस्बेन में तनाव की कुछ खबरें थीं क्योंकि वहां कुछ मामले सामने आए थे।”
इन सबमें, एक किस्म से, सबसे घाटे में रहे हैं वे बच्चे जिनको अपना पहला रोजा रखना था। उनके मां-बाप ने इस बार के लिए उनसे वायदा किया हुआ था जो पूरा होना मुश्किल है। दूसरी बात, इस बार का माहौल उतना उत्सवनुमा नहीं है कि वे इसका लुत्फ उठा सकें। अब जैसे, इस्लामुद्दीन बताते हैं कि “मैंने पिछले साल अपनी दस साल की बेटी से वादा किया था कि वह इस साल रोजा रखेगी तो हम इसे बड़े पैमाने पर मनाएंगे। वह इस साल के रमजान का बहुत उत्सुकता से इंतजार कर रही थी, लेकिन लॉकडाउन की वजह से उसका सारा उत्साह ही जाता रहा।”
दरअसल, पहली बार जब कोई बच्चा रोजा रखता है, तो उस मौके पर रिश्तेदार और दोस्त उसे बढ़िया से मनाते हैं और इफ्तार के वक्त उस बच्चे को खूब सारे उपहार भी मिलते हैं। इसे रोजा खुशाई कहते हैं। दस से 14 साल के बच्चे आम तौर पर पहला रोजा रखते हैं। इस बार लॉकडाउन की वजह से बच्चे इस मौके से वंचित रह गए हैं। लॉकडाउन में यही कहा जा सकता है कि रमजान आया तो जरूर मगर अपनी रौनकें कहीं छोड़ आया।
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