राम पुनियानी का लेखः कबीर और गांधी के राम अब कहीं नहीं, BJP-RSS ने ध्रुवीकरण की राजनीति के केंद्र में पहुंचाया
सामाजिक न्याय कभी संघ-बीजेपी को नहीं भाया और यही कारण है कि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की केन्द्र सरकार की घोषणा के तुरंत बाद उसने राममंदिर के नाम पर देशव्यापी जुनून पैदा करने की कोशिश शुरू कर दी।
इस साल 22 जनवरी को एक अत्यंत भव्य आयोजन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अयोध्या में भगवान राम की प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा की। इस अवसर पर हुए भाषणों में हमें बताया गया कि भगवान राम भारत की आत्मा हैं और उन्होंने ही इस देश को एक किया था। इसके पहले कई मुस्लिम नेताओं ने मुसलमानों को सलाह दी थी कि जहां तक हो सके वे 22 जनवरी को यात्रा करने से बचें क्योंकि उस दिन बड़ी संख्या में कारसेवकों की आवाजाही होगी।
22 जनवरी को जहां अयोध्या सहित पूरे देश में भगवा झंडे लहरा रहे थे और मंदिर प्रांगण में सेलिब्रिटीज का मेला लगा था, वहीं मुसलमानों ने अपने घरों में बंद रहना पसंद किया। उन्हें डर था कि एक बार फिर वही घटनाक्रम न हो जो तीन दशक पहले हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के बाद हुआ था।
प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के कुछ समय बाद बिहार में एक मुस्लिम कब्रिस्तान को खोद डाला गया। दक्षिण भारत के एक शहर में एक मुस्लिम महिला को निर्वस्त्र करके घुमाया गया और एक चर्च पर भगवा झंडा फहराया गया। मुंबई के मीरा रोड इलाके में एक प्राण-प्रतिष्ठा जुलूस में शामिल लोगों ने एक मुसलमान के टेम्पो और कुछ अन्य मुसलमानों की दुकानों पर हमले किए। जहां एक ओर प्रधानमंत्री मुख्य पुरोहित की भूमिका अदा कर रहे थे, पूरा देश धार्मिकता की जकड़ में था और जगह-जगह इकट्ठा होकर लोग जश्न मना रहे थे वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय में डर का आलम था। इतिहास में पहली बार भगवान राम एक ऐसा प्रतीक बन गए हैं, जिनसे धार्मिक अल्पसंख्यकों को डर लगता है।
भगवान राम की जीवनगाथा सबसे पहले कवि और ऋषि वाल्मिकी ने लिखी थी। उन्होंने राम को मर्यादा पुरूषोत्तम बताया था, जो अपने पिता के उनकी पत्नि कैकेयी को दिए गए वचन को पूरा करने के लिए राजगद्दी छोड़कर वन चले जाते हैं। दक्षिण एशिया में रामकथा के कई संस्करण प्रचलित हैं। ए. के. रामानुजन के प्रसिद्ध लेख ‘300 रामायनाज’ में विभिन्न संस्करणों के बीच अंतर बताए गए हैं। जातक (बौद्ध) संस्करण में राम और सीता पति-पत्नि होने के अतिरिक्त भाई और बहन भी हैं। कथा में बताया गया है कि भाई और बहन का विवाह इसलिए करवाया गया ताकि कुल की शुद्धता बनाई रखी जा सके।
जैन संस्करण के राम, अहिंसा में विश्वास रखते हैं और जैन मूल्यों का प्रचार करते हैं। तेलुगू ब्राम्हण महिलाओं के ‘महिला रामायण गीत’, जिन्हें रंगनायकम्मा ने संकलित किया था, में बताया गया है कि सीता अंततः राम पर विजय प्राप्त करती हैं और शूर्पनखा भी राम से बदला लेने में सफल रहती है। थाईलैंड में प्रचलित रामकीर्ति या रामकिन (राम कथा) में एक नया ट्विस्ट है। इसमें बताया गया है कि शूर्पनखा की बेटी अपनी मां की नाक काटे जाने के लिए सीता को जिम्मेदार मानती है और उनसे बदला लेती है। इस कहानी में फोकस हनुमान पर है, जो न तो राम के भक्त हैं और ना ब्रम्हचारी हैं बल्कि जो महिलाओं को बहुत प्रिय हैं।
भारत में रामकथा का लोकव्यापीकरण गोस्वामी तुलसीदास ने किया। उन्होंने 16वीं सदी में जनभाषा अवधी में रामचरितमानस लिखी और रामकथा को जन-जन तक पहुंचाया। इसके पहले रामकथा देवभाषा संस्कृत में थी, जिसे आम लोग नहीं समझ सकते थे। रामचरितमानस ने राम को लोकप्रिय बनाया और उत्तर भारत में जगह-जगह राम मंदिर बन गए। यह दिलचस्प है कि तुलसीदास, जो कि राम के अनन्य भक्त थे, 16वीं सदी में अयोध्या में ही रहते थे और उन्होंने कहीं भी यह नहीं लिखा है कि बाबर, जो उनका समकालीन था, ने किसी राम मंदिर को ढहाया था। उल्टे, जब पंडितों ने उन्हें जनभाषा में रामायण लिखने के कारण परेशान करना शुरू किया तो उन्होंने बिना संकोच के लिखा कि वे मस्जिद में सो सकते हैं। यह बात उन्होंने अपनी आत्मकथा कवितावली में लिखी है।
भक्तकवि राम को एक निराकार और सर्वव्यापी ईश्वर मानते थे। सबसे अग्रणी संत कवियों में से एक कबीर ने राम को निर्गुण बताया है जो ब्रह्म और आत्मा दोनों में है। महात्मा गांधी राम को नैतिकता और आध्यात्मिकता का सबसे बड़ा स्त्रोत मानते थे। महात्मा गांधी का राम समावेशी था और उनके लिए ईश्वर और अल्लाह में कोई भेद न था। राम की यह व्याख्या भारत के लोगों में बंधुत्व का भाव विकसित करने की दिशा में बहुत बड़ा कदम था। इसके सहारे ही महात्मा गांधी सभी धर्मों का सम्मान करने की बात कह सके और इसी ने वह नींव डाली जिससे भारत एक हो सका।
गांधीजी ने राम की उनकी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए सन् 1946 में हरिजन में लिखा ‘‘मेरा राम, वह राम जो हमारी प्रार्थना में शामिल हैं, वो अयोध्या का राजा और दशरथ का पुत्र नहीं हैं। मेरा राम तो अमर है, वह अजन्मा और अद्वितीय है”। गांधीजी के मूल्य, भारत के राष्ट्र बनने की प्रक्रिया के प्रतीक और उसकी अभिव्यक्ति थे। ये मूल्य औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ संघर्ष के और उन सिद्धांतों के प्रतीक थे जो हमारे संविधान का आधार बने। ये मूल्य उन मूल्यों के एकदम उलट हैं जिन पर मोदी और बीजेपी की राजनीति की आस्था है और जो आरएसएस को प्रिय हैं। राममंदिर सन् 1980 के दशक तक संघ के एजेंडा में नहीं था। मगर जब संघ परिवार को लगा कि राममंदिर के मुद्दे को लेकर सांप्रदायिकता भड़काई जा सकती है तो उसने इसका भरपूर दोहन करने का निर्णय लिया।
राममंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई गई थी, यह संदेह सबसे पहले अंग्रेजों ने पैदा किया था। श्रीमती ए. एफ. बीवरिज ने बाबारनामा के अपने अनुवाद में एक फुटनोट लगा दिया था, जिसमें कहा गया था कि शायद बाबरी मस्जिद के नीचे कोई मंदिर है। विद्वानों का मानना है कि श्रीमती बीवरिज ने जो लिखा वह अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति के अनुरूप था। श्रीमती बीवरिज ने अपने निष्कर्ष की पुष्टि के लिए कोई सुबूत प्रस्तुत नहीं किया। उन्होंने यह नहीं बताया कि उन्हें कैसे यह इल्म हुआ कि बाबरी मस्जिद का निर्माण राममंदिर को ढहाकर किया गया था।
इसके उलट, अन्य धर्मों के आराधना स्थलों के बारे में बाबर की नीति से ऐसा नहीं लगता कि श्रीमती बीवरिज का निष्कर्ष सही हो सकता है। बाबर के शासनकाल में सांझा परंपराओं का विकास हुआ। हां, बाबर ने ग्वालियर में कुछ जैन मंदिरों को ढहाने का आदेश दिया था मगर वह इसलिए क्योंकि उनमें नग्न मूर्तियां थीं। बाबर ने अपनी वसीयत में हुमांयू को यह सलाह दी थी कि वह अन्य धर्मों, विशेषकर हिंदू धर्म, का सम्मान करे क्योंकि उसके अधिकांश प्रजाजन हिदू हैं। बाबर स्वयं भी धर्मांध और कट्टर मुसलमान नहीं था और बाबरनामा से तो यही जाहिर होता है कि वह सभी धर्मों का सम्मान करता था। उच्चतम न्यायालय ने भी इस धारणा को सही नहीं बतलाया है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण राम मंदिर के मलबे पर किया गया था।
सामाजिक न्याय कभी संघ-बीजेपी को नहीं भाया और यही कारण है कि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की केन्द्र सरकार की घोषणा के तुरंत बाद उसने राममंदिर के नाम पर देशव्यापी जुनून पैदा करने की कोशिश शुरू कर दी। कबीर और गांधी के राम अब कहीं नजर नहीं आते। राम बदल गए हैं और अब वे ध्रुवीकरण की राजनीति के केंद्र में है। ध्रुवीकरण की सहारे सत्ता में आए आरएसएस-बीजेपी अब उनके राम को राजनीति में स्थापित करने के लिए दिन-रात एक कर रहे हैं। राम की प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा को राष्ट्रीय समारोह बना दिया गया। इसके साथ ही, धार्मिक अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने और उनके राजनैतिक हाशियाकरण का एक नया दौर शुरू हो गया है।
क्या हम उस दिव्य राम को वापस ला सकते हैं जो गांधी और कबीर का आराध्य था? क्या हम धार्मिक कर्मकांडों की बजाय धर्म के नैतिक और आध्यामिक पक्षों का प्रचार कर सकते हैं?
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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