गांवों और नगर गणतंत्रों के संघ के रूप में देश के निर्माण की नींव रख दी थी राजीव गांधी ने

वर्तमान सत्ता को यह पसंद नहीं कि भारत को राज्यों का संघ कहा जाए। लेकिन भारत का वास्तविक अस्तित्व गांव/नगर/कस्बों से है। 21वीं सदी के स्वप्नदृष्टा राजीव गांधी ने नींव रखी थी कि हमारे ‘राष्ट्र’ का निर्माण गांव गणतंत्र और नगर गणतंत्रों के संघ के रूप में हो।

फाइल फोटो
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मीनाक्षी नटराजन

अकसर कहा जाता है कि भारत गांवों में बसता है। गांवों में सदियों से पंचायत की सुदृढ़ व्यवस्था रही है। ‘पंच परमेश्वर’ के जरिये स्थानीय स्तर पर न्याय और विधान, सामूहिक हक और व्यक्तिगत सामाजिक संहिता तय की जाती थी। बरतानिया हुकूमत के पहले तक इन्हीं पंचायतों ने गांव को स्वायत्त रखा।

बारहवीं-तेरहवीं सदी के चोल साम्राज्य में ‘उत्तर मेरुर’ नाम के गांव की सभा के चुनाव इतिहास प्रसिद्ध है। जहां ‘उर’ या ‘ब्राहमणों की गांव सभा’ में पर्ची निकालकर पंचायत का चुनाव किया जाता था। लेकिन इतिहास यह भी बताता है कि इन सभी परंपरागत पंचायतों में केवल कुलीन प्रभुत्व संपन्न वर्ग का एकाधिपत्य था। उनकी सभा और निर्वाचित समिति में महिला, कामगार वर्ग, भूमिहीनों, दलितों, जनजातियों के लिए कोई स्थान नहीं था। ऐसे में, स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करते हुए बापू ने सबसे पहले स्वायत्त, सर्व अधिकार संपन्न, समावेशी ग्राम स्वराज की अवधारणा दी।

हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने महसूस किया कि लोगों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक सहभागिता के बिना देश की तरक्की को गति नहीं मिल सकती। 1957 में उन्होंने बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को समझने के लिए समिति का गठन किया। समिति की सिफारिशों के आधार पर पंचायतों के चुनाव की घोषणा हुई। 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में देश की पहली निर्वाचित पंचायत का उद़्घाटन नेहरू जी ने किया। इसके बाद पंचायतों के चुनाव होने तो लगे थे लेकिन उनके पास ज्यादा हक नहीं थे। अधिकांश राज्यों में चुनाव समय पर नहीं होते थे।

अस्सी के दशक में दुनिया भर में परिवर्तन हो रहे थे। केंद्रीकृत ढांचों को चुनौती दी जा रही थी। तब देश के युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी की दूरंदेशी ने यह समझा कि केंद्रीय ढांचे जन आकांक्षाओं को अवसर प्रदान करने में नाकामयाब होते हैं। 15 मई, 1989 को संसद में चौसठवां संविधान संशोधन प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा थाः ‘संसद के दोनों सदनों और सभी राज्य विधान मंडलों को मिलाकर हमारे देश की लगभग 80 करोड़ जनता का प्रतिनिधित्व केवल पांच- छह हजार व्यक्ति कर रहे हैं। इसके दो गंभीर परिणाम हैं: पहला यह कि लोकतंत्र की सुस्थापित संस्थाओं में निर्वाचित पदों पर आसीन व्यक्तियों की संख्या मतदाताओं की तुलना में बहुत कम है; दूसरा हानिकर परिणाम है जो सामान्य मतदाता और निर्वाचित प्रतिनिधियों को परस्पर अलग करता है। इस अंतर का लाभ सत्ता के दलाल, बिचौलिये और निहित स्वार्थी तत्व उठा रहे हैं।’


सत्ता का लोक हस्तांतरण प्रातिनिधिक लोकतंत्र में सत्ता को बिचौलियां के कब्जे से छुड़ाने का एकमात्र तरीका है। चौसठवां संविधान संशोधन प्रस्ताव पारित न हो सका। वह राज्यसभा में एक मत से गिर गया। लेकिन सत्ता हस्तांतरण की नींव पड़ गई। चौसठवें संशोधन ने पहली बार पंचायत/नगरीय निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने का ऐतिहासिक प्रयास किया। पहली बार जनसंख्या के अनुपात से अनुसूचित जाति, जनजाति को निश्चित प्रतिनिधित्व देना तय किया गया। इसने पंचायत/नगरीय निकायों को समतामूलक बनाया। इसने ही तीस फीसदी महिला आरक्षण का प्रावधान रखा। आज ज्यादातर राज्यों में पचास फीसदी महिला आरक्षण हो गया है।

चौसठवां संविधान संशोधन पारित नहीं हुआ। लेकिन 73वें-74वें संविधान संशोधन का मार्ग साफ हो गया। पंचायत/नगरीय निकाय का एक मानक कानून केंद्र ने पारित किया। 24 अप्रैल, 1993 को यह कानून लागू हो गया। तमाम राज्य सरकारों ने इसी के आधार पर अपने राज्यों मे वैसा ही कानून बनाया।

संवैधानिक दर्जे ने बहुत कुछ बदला। पंचायतों को संविधान में शामिल की गई 11वीं अनुसूची में दर्ज उनतीस विभाग पर सीधे निर्णय का हक मिला। पृथक स्वायत्त चुनाव आयोग और वित्त आयोग का गठन हुआ। पांचवीं-छठी अनुसूची के क्षेत्रों के लिए पंचायतों के विस्तार के कानून (पेसा) की बुनियाद पड़ गई। जन प्रतिनिधित्व में 115 गुना वृद्धि हुई। इसी संवैधानिक दर्जे ने ग्राम सभा को पूरी तरह अधिकार संपन्न बनाया। ग्राम सभा की महती भूमिका प्राकृतिक संसाधनों के रख रखाव और भूमि के इस्तेमाल पर उनकी सहमति अनिवार्य मानी गई। इसी के चलते नियामगिरी की ग्राम सभाओं ने जब वेदांता के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया, तब उच्चतम न्यायालय ने उस निर्णय को सर्वोपरि माना।

आज सत्ता के केंद्रीकरण की होड़ ने पंचायतों को मात्र क्रियान्वयन एजेंसी बनाकर रख छोड़ा है। ग्राम सभा की भूमि अधिग्रहण, उत्खनन आदि में ‘सहमति’ को बड़ी तरतीब से ‘सलाह’ में बदलकर लोक सत्ता को निस्तेज कर दिया गया है। इस की आड़ में वर्तमान व्यवस्था के कॉरपोरेट मित्रों को संसाधनों की लूट मचाने की खुली छूट मिल गई है। ग्राम सभा के प्रस्ताव अब चौपाल में तय नहीं होते। वे राज्यों के सचिवालय में तय होते हैं। पंचायत चुनाव में किसे प्रत्याशी होना चाहिए, यह भी सरकार तय करती है। दो संतान, शौचालय का होना, शैक्षणिक योग्यता के बहाने से प्रतिनिधित्व के हक से वंचित किया जाता है। यह एक तरह से चयन के हक पर भी प्रहार है। फिर ऐसी योग्यता मात्र पंचायत के लिए ही क्यों, यह भी सवाल है। ये सारी योग्यताएं हाशिये पर खड़े वर्ग को ही बाधित करती है। इससे किसी को इंकार नहीं कि जनप्रतिनिधियों को कामकाजी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। लेकिन ’योग्यता’ तय करना सरासर अलोकतांत्रिक है। संतान की संख्या पर हमारे पितृ सत्तात्मक समाज में महिला की कहां सुनवाई होती है। उसके साथ तो यह दोहरा भेद है।

गुजरात के गांवों में पंचायत चुनाव न होने पर उन्हें विशेष विकास निधि ‘समरस पंचायत’ के नाम पर पुरस्कार रूप में दी जाती है, यानी अलोकतंत्रात्मकता को प्रोत्साहित किया जाता है। ऐसे में, ग्राम स्वराज का सपना कैसे सच होगा? यह सारी करनी उन्हीं ताकतों की है जिन्होंने चौसठवें संशोधन का विरोध तब राज्यसभा और लोकसभा में किया था।

वर्तमान सत्ता को यह पसंद नहीं कि भारत को राज्यों का संघ कहा जाए। लेकिन भारत का वास्तविक अस्तित्व गांव/नगर/कस्बों से है। बेहतर होगा कि हमारे ‘राष्ट्र’ का छह लाख गांव गणतंत्र और करीबन आठ हजार नगर गणतंत्रों के संघ के रूप में ‘निर्माण’ हों। इक्कीसवीं सदी के स्वप्नदृष्टा ने इसकी नींव रख दी थी।

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