भारत जोड़ो यात्रा: महज पार्टी की राजनीति या चुनावी संदर्भ में भारत को नहीं देखते हैं राहुल गांधी
राहुल गांधी राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर एकमात्र राजनेता हैं जो भारतीय लोकतंत्र के संकट और संभावित समाधानों को एक व्यापक सामाजिक नजरिये से देख रहे हैं, न कि महज एक पार्टी की राजनीति या चुनावी संदर्भ में। वह देख सकते हैं कि भारत को तत्काल उपचार की जरूरत है।
इस बात का कोई मतलब नहीं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 2014 के आम चुनाव में महज 44 लोकसभा सीटें जीतीं। 2019 में वह 52 सीटें लेने में कामयाब रही। फिर भी सदन में ‘नेता प्रतिपक्ष’ बनने की न्यूनतम अर्हता पूरे सदन की संख्या का 10 प्रतिशत से कम ही रही। राहुल गांधी ने पार्टी की पराजय का जिम्मा लिया और पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
ये आंकड़े और गुणा-गणित सबको पता है और गुलाम नबी आजाद ने पार्टी छोड़ने के बाद अपनी शेखी में यह सब खूब दोहराया भी। पार्टी छोड़ने वाले लोगों की कड़ी में गुलाम नबी आजाद एकदम ताजा उदाहरण हैं जो अपनी व्यक्ततिगत महत्वाकांक्षाओं के चलते उस जहाज को छोड़ गए जो आजीवन उन्हें सम्मान के साथ ढोता रहा।
राहुल गांधी को उनके राजनीतिक विरोधी तरह-तरह के नामों से बुलाते हैं। उन पर राजनीति में ‘अंशकालिक’ होने का आरोप भी लगाया गया। उन्हें इसके लिए लगातार ट्रोल किया गया और मीडिया भी हाथ धोकर पीछ पड़ा रहता है। राहुल ने पार्टी के ग्राफ में लगातार गिरावट देखी है लेकिन पार्टी छोड़कर जाने वालों के लिए कभी किसी अपशब्द का इस्तेमाल उनके मुंह से शायद ही सुनाई दिया हो।
लेकिन वे लोग जो कांग्रेस को जानते हैं, उसके शुभचिंतक हैं और जो भारतीय राजनीति में इसकी हस्तक्षेपी भूमिका के कायल हैं, स्वीकार करेंगे कि अभी पार्टी संकट में है। राहुल गांधी ने काफी पहले इस सच को स्वीकार कर लिया था और यहां तक कि कांग्रेस को जमीन पर फिर से खड़ा करने के लिए एक धक्का लगने की कोशिश भी की थी। लेकिन बहुत जल्द ही महसूस कर लिया कि पार्टी में खासी अहम जगह पर होने के बावजूद उनके लिए कांग्रेस को फिर से खड़ा करना इतना आसान नहीं था।
भारतीय राजनीति के समूचे परिदृश्य पर नजर डालें और एक त्वरित सर्वे कर खुद पूछें कि इस कद का कौन सा राजनेता इससे पहले असहमतियों का इस कदर सम्मान करता देखा गया है या असहमतियों को इतनी आसानी से पचा लेता रहा है! अब कांग्रेस के सांगठनिक चुनावों को लेकर मीडिया द्वारा बोए गए हंगामे की बात करें। किसी भी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र एक अच्छी बात है और इसे प्रोत्साहित किया ही जाना चाहिए। लेकिन क्या यही सब समान रूप से पूरे बोर्ड पर लागू नहीं होता?
कोई बताए कि भारत के किस अन्य राजनीतिक दल ने अपना नेता चुनने के लिए कभी चुनाव कराया है? राहुल गांधी के पास पार्टी में व्यापक आधार वाले नेताओं के व्यापक समर्थन को देखते हुए इस बात में वाकई कोई संदेह नहीं है कि अगर वह 17 अक्तूबर को प्रस्तावित कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ने का फैसला कर ही लेते हैं तो जीत किसकी होगी। हालांकि कहा यही जा रहा है और आलकमान की यही इच्छा है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को यह नई जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।
फिर उनके होने का क्या मतलब?
इससे पहले कि हम वहां तक पहुंचें, आइए एक नजर उस ब्योरे पर डालते हैं जो शायद हमें राहुल की ‘विफलता’ पर हमारा नजरिया बदलने में सहायक हो! इस तथ्य के अलावा कि कांग्रेस 2014 में सत्ता विरोधी लहर का शिकार थी, यह भी सच है कि कांग्रेस को सत्ता में एक दशक हो गया था और बदलाव की यह मांग उसे झेलनी ही थी। स्वाभाविक है अन्य विपक्षी दल इस नाराजगी को सीधे-सीधे नहीं झेल रहे थे।
कश्मीर से लेकर महाराष्ट्र तक, विंध्य के उत्तर में लोकसभा चुनावों में किसी भी पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था। यहां तक कि विधानसभा चुनावों में भी खराब प्रदर्शन का यह सिलसिला जारी रहा और 2013 के बाद से शायद ही कोई राज्य हो जिसे विपक्ष ने भाजपा के कब्जे से छीना हो। लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने तीन बार ऐसी सफलता हासिल की। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सीधे-सीधे जिम्मेदार न होने के बावजूद राहुल गांधी तमाम अवसरों पर पार्टी के अंदर खुली आलोचना का शिकार हुए, लेकिन ऐसा करने वालों पर उन्होंने कभी वास्तव में कोई कारवाई नहीं की।
या इस वक्त चल रही भारत जोड़ो यात्रा पर ही नजर डाल लें। विपक्ष का कौन सा ऐसा दूसरा राष्ट्रीय नेता है जिसके पास इस तरह का लोक-आकर्षण है और जो देश भर के लोगों के साथ खुद को सीधे कनेक्ट कर देता है? साफ है कि अगर वोट की घड़ी आने से पहले लोगों का दिमाग अनिवार्य रूप से जीतना है, तो विपक्ष को भाजपा और नरेंद्र मोदी की बाजीगरी को चुनौती देने के लिए राहुल गांधी की जरूरत पड़ेगी ही।
हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों- न्यायपालिका, मीडिया, केंद्रीय जांच एजेंसियों, निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता और उनकी आजादी के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है, हालांकि उतना पर्याप्त नहीं है। ऐसी स्थिति में चुनावी प्रक्रिया में विश्वास बना रहे, यह भी आसान नहीं है। अब तो इस बात से भी भरोसा उठ चुका है कि जनता ने जो चुनावी फैसला दिया था, असल फैसले भी वाकई वैसे ही हैं। सच तो यह है कि चुनावी नतीजों के आधार पर होने वाले कृत्रिम विश्लेषण भी अब संदेह के घेरे में हैं और इन पर भी बहस होनी चाहिए।
इस सबसे भी ज्यादा चिंताजनक बात भारत में जन-मत बनाने वाले शिक्षित मध्यवर्ग का रवैया है। वह शिक्षित मध्यवर्ग जिसकी इस पूरे गेम प्लान में अपनी कोई सीधी भूमिका हो या नहीं, फिर भी एक उभरते, मुख्य रूप से बहुजन समाज, निम्न मध्यवर्ग को प्रभावित करता है क्योंकि वह समाज सीधे-सीधे इनके असर में होता है और यहीं से अपने लिए संकेत ग्रहण करता है।
मौजूदा विभाजनकारी, बहुसंख्यकवादी सामाजिक-राजनीतिक हालात तब और भयावह हो लगने लगते हैं, जब यह तथ्य सामने आता है कि साधन सम्पन्न और प्रभाव वाला वह वर्ग जिसे सही-सही अंदाजा है कि हालात कितने भयावह हैं लेकिन वास्तव में उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनका जीवन शायद इससे सीधे प्रभावित नहीं होता है। ऐसे वक्त में जब सामाजिक तानाबाना इतनी बुरी तरह छिन्न-भिन्न हो चुका हो, महज वोटों के गुणा-गणित, सीटों की जोड़तोड़ और बहुमत के मायावी आंकड़ों पर बात करने से काम नहीं चलने वाला। इस रूप में इसका समाधान नहीं निकलने वाला। यह सामाजिक, आर्थिक और वैचारिक इलाकों और वहां से निकलने वाली संभावनाओं से बहुत दूर हैं।
बीसवीं सदी के मोड़ पर महाराष्ट्र में एक बहस शुरू हुई थी कि सामाजिक सुधारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए या राजनीतिक अजादी को। महात्मा गांधी ने इस सवाल को आश्वस्ति भाव के साथ सुलझाया कि दोनों को साथ-साथ चलना होगा; और यह भी कि किसी भी राजनीतिक संघर्ष को सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं की जमीन पर ही बुना जा सकता है, लेकिन साथ-साथ यह भी सच है कि सामाजिक सुधार राजनीतिक आजादी के बिना प्रभावी नहीं हो सकते।
राहुल अब महात्मा गांधी तो हैं नहीं लेकिन उनके नक्शे कदम पर चलने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर वह एकमात्र राजनेता हैं जो भारतीय लोकतंत्र के संकट और संभावित समाधानों को एक व्यापक सामाजिक नजरिये से देख रहे हैं, न कि महज एक पार्टी की राजनीति या चुनावी संदर्भ में। वह देख सकते हैं कि भारत को तत्काल उपचार की जरूरत है। वह समझ रहे हैं कि देश को सामाजिक न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर फिर से लौटने की जरूरत है। वह जानते हैं कि लोगों की बात सुनी जानी चाहिए और यह भी कि उन्हें आश्वस्त किया जाना चाहिए कि वे महज वोट नहीं हैं।
राहुल गांधी के लिए उनके नैतिक प्रतिरोध की ऊंचाई और इसकी गुणवत्ता मायने रखती है और उनकी समझ साफ है कि अधिनायकवादी शासन को गिराने के लिए महज चुनावी अंकगणित नहीं, इससे कहीं ज्यादा की जरूरत है।
(अजीत अनुशशि राजनीतिक विश्लेषक हैं, मुंबई में रहते हैं)
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