भारत के भाग्य को बेपटरी करने की कोशिशों को रोक सकते हैं राहुल गांधी, उनमें गांधीवादी आंदोलन का नेतृत्व करने की है क्षमता
यह समय की भी मांग है कि लोगों को नींद से जगाया जाए। मोदी के ‘भारत तोड़ो’ अभियान के मुकाबले एक ‘भारत जोड़ो’ आंदोलन छेड़ना होगा। वैमनस्य, मुद्रास्फीति और बेरोजगारी से तबाह लोगों के लिए यह सही नुस्खा है।
नरेन्द्र मोदी शासन का प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) कांग्रेस नेता राहुल गांधी को जिस तरह बिना अदालती निर्देश या फिर एफआईआर दर्ज किए परेशान कर रहा है, वह बहुत कुछ साफ कर देता है। भारत में कानून के कथित संरक्षकों के लिए इस तरह का दुर्व्यवहार बेशक आज आम बात हो गई हो लेकिन इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। भारत ने पिछले आठ वर्षों के दौरान विशुद्ध फासीवाद को अनुभव किया है। तमाम संस्थाओं पर कब्जा कर लिया गया है और देश को दिशा दिखाने वाले प्रकाश स्तंभ, यानी संविधान को हाशिये पर डाल दिया गया है और इस तरह आधा लोकतंत्र तो पहले ही खत्म हो चुका है।
सोचने वाली बात है कि आखिर ऐसा क्या है जो आरएसएस, भाजपा, मोदी वगैरह को राहुल से इतना डराता है? प्रसिद्ध लेखक सलमान रुशदी ने 1975-77 में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लागू करने की आलोचना की थी। फिर भी उन्होंने ‘लंदन टाइम्स’ में लिखे आलेख में साफ कहा कि नेहरू-गांधी के सामने ‘कैनेडी(अमेरिका) अनुभवहीन’ नजर आते हैं।’ यहां भी कुछ ऐसा ही मामला है। संघी डरे हुए हैं कि देश आजमाए और परखे हुए ‘पेशेवरों’ की ओर न लौट जाए।
आरएसएस को इस बात का अच्छी तरह अंदाजा है कि पूरे देश में जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का जो करिश्मा है, उसी की वजह से दशकों तक उनके जहरीले इरादे परवान नहीं चढ़पाए। वे इस बात को याद करके कांप जाते हैं कि दिसंबर, 1984 में भाजपा लोकसभा में दो सीटों पर सिमट गई थी और यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी को भी मतदाताओं ने खारिज कर दिया था। मोदी और उनके हिन्दुत्ववादी खेमे को नेहरू-गांधी के बारे में बुरे सपने आते हैं।
1984 की पराजय के बाद आरएसएस को अफ्रीका से आकर अमेरिका और ब्रिटेन में बसे लोगों को लुभाने के लिए आगे किया गया। यह वह दौर था जब भाजपा को ऐसी पार्टी के तौर पर देखा जाता था जिसका कोई भविष्य नहीं है और इस वजह से भारतीय व्यवसायी उस पर पैसा लगाने को तैयार नहीं थे। लेकिन 2002 के गुजरात दंगों के बाद सावरकरवाद के नए पोस्टर बॉय बन गए नरेंद्र मोदी को बचाने और उन्हें वापस मुख्यधारा में लाने के लिए विदेशों में बसे हिन्दू भाजपा के नए दाता बन गए। इसके अलावा 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो भाजपा और उसके सहयोगियों की पहली प्राथमिकता थी कि कैसे नेहरू-गांधी ब्रांड को बदनाम किया जाए और इसके लिए उन्हें सफेद झूठ के धड़ल्ले से इस्तेमाल से भी कोई गुरेज नहीं था। अफसोस की बात है कि सांप्रदायिक पूर्ववाग्रह से ग्रस्त लोगों के अलावा भोले-भाले लोग भी इस झांसे में आ गए।
आज से 10-12 साल पहले तब कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में वरिष्ठ शिक्षक प्रोफेसर ग्रेवर्स्टर ने इस बात की पुष्टि की कि राहुल को कॉलेज से डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स में एम.फिल की डिग्री दी गई थी। पिछले महीने 1995 की कक्षा के लोग अपने सहपाठी राहुल गांधी से मुखातिब थे जब कॉर्पस क्रिस्टी कॉलेज में एक सार्वजनिक बातचीत में शामिल होने के लिए वह गए और उन्होंने लोगों के सवालों के जवाब भी दिए। यह एक स्वतंत्र रूप से चलने वाला कार्यक्रम था जिसकी नरेन्द्र मोदी ने कभी हिम्मत नहीं की।
उस इंसान की भावनाओं को समझना मुश्किल है जिसने सबसे क्रूर परिस्थियों में 14 साल की उम्र में अपनी दादी और 20 साल की उम्र में अपने पिता को खो दिया हो। बड़ा स्वाभाविक है कि ऐसे व्यक्ति में गुस्से का भाव हमेशा-हमेशा के लिए जगह बना लेता। लेकिन राहुल इतने कठोर अनुभव की वजह से अंदर तक टूट जाने के बाद भी किसी तरह का गुस्सा नहीं दिखाते। इसके उलट वह ‘माफी’ मांग लेते हैं जैसा उन्होंने कैम्ब्रिज में हुई बातचीत में एक सवाल के जवाब में किया।
राहुल जापानी मार्शल आर्ट ऐकिडो में अपने ब्लैक बेल्ट कौशल का प्रभावी उपयोग कर सकते थे लेकिन नहीं किया। 52 साल की उम्र में वह एकदम चुस्त-दुरुस्त हैं। यह हैरान करने वाली बात है कि वह एक हाथ से पुश-अप कर सकते हैं। अगर कोई अकेला भारतीय नेता है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक मार्च कर सकता है, तो वह राहुल हैं, हालांकि उन्होंने कभी अपनी इस खासियत का इजहार नहीं किया।
म्यांमार के मांडले के शहरी इलाके से बाहर पहाड़ियों में आठ एकड़ क्षेत्र में फैले ‘धम्म मंडल विपश्यना मेडिटेशन सेंटर’ के मायो थांट से जब वहां कथित तौर पर राहुल के ध्यान करने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने चुप्पी साध ली। एक बात गौर करने की है कि जो लोग विपश्यना पद्धति का अभ्यास करते हुए कम-से-कम पांच 10 दिवसीय कोर्स पूरा कर लेते हैं, वही 20-दिवसीय एडवांस कोर्स के काबिल हो पाते हैं। वर्ष 2015 में राहुल ने म्याांमार में 21 दिन बिताए जिससे अनुमान लगाया जाता है कि उन्होंने इस स्वआरोपित एकांतवास को सफलतापूर्वक पूरा किया होगा। यंगून में तैनात एक भारतीय खुफिया अधिकारी ने बताया कि ‘इस दौरान आपको खुद को बाकी दुनिया से पूरी तरह काट लेना होता है। कोई मोबाइल फोन नहीं, बाहर के किसी भी व्यक्ति के साथ कोई बातचीत नहीं।’
जो लोग राहुल को नजदीक से जानते हैं, उन्हें अच्छी तरह पता है कि राहुल का दिल सही जगह पर है। वह उस अकेली पार्टी के इकलौते नेता हैं जो भारत के भाग्य को पटरी से उतारने के भयानक प्रयासों को रोक सकते हैं। ऐसा लगता है कि राहुल के लिए बाधाओं पर काबू पाने का रास्ता खोजना एक सहज प्रक्रिया है। वह दार्शनिक सामग्री से भी समाधान खोजते होंगे। वह अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञों से भी बात करते हैं जिसका नतीजा यह होता है कि उनका ज्ञान समस्त आयामों को समेटे होता है। कोविड के समय भी उन्होंने भारत के सामने खड़ी चुनौतियों को लेकर चेताया था लेकिन थाली पीटने में मशगूल भाजपा ने उनका मजाक उड़ाया जबकि बाद में राहुल की बातें पूरी तरह सच साबित हुईं। भारतीय देशभक्तों को यह याद रखना चाहिए कि चीन के बारे में उनकी धारणा क्या रही है। ऐसा लगता है कि शिव से लेकर विष्णु तक, गांधी से लेकर नेहरू तक की 2022 में क्या प्रासंगिकता है, इसपर वह लगातार मंथन करते रहते हैं।
भारतीयों का एक वर्ग है जो राहुल को पसंद करता है। उसे लगता है कि वह बहुत अच्छे इंसान हैं। लेकिन ये लोग मानते हैं कि राहुल जितने अच्छे हैं, राजनीति में आम तौर पर उतने अच्छे लोग जीत नहीं पाते। लेकिन एक अच्छे आदमी ने इस मिथक को तोड़ दिया है। ‘द नाइस गाई हू फिनिश्ड फर्स्ट’ भारतीय टीम के क्रिकेटर से मुख्य कोच बने राहुल द्रविड़ की जीवनी का शीर्षक है। भारत के मानस में भी इस तरह की नई सोच जगह बना रही है। विभाजनकारी सेना ने राहुल पर जबरदस्त हमले किए हैं। फिर भी वे निर्णणायक प्रहार करने में विफल रहे हैं। ज्यादातर भारतीय शर्ततिया तौर पर यह महसूस करते हैं कि मौजूदा व्यवस्था में कमी है लेकिन उनमें एकजुटता नहीं है और उनकी फूट की वजह से ऐसे लोग सत्ता में जमे हुए हैं जिन्हें जनता का अल्पमत ही पसंद करता है।
हालांकि जिस तरह महान शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य एक शांतिपूर्ण प्रतिरोध के सामने झुक गया, वैसे ही यह रास्ता भारत की आत्मा को अस्वीकार्य तरीके से कुचलने के दौर से भी मुक्ति दिला सकता है। गांधीवादी प्रतिरोध के लिहाज से राहुल स्वाभाविक तौर पर अनुकूल हैं। यह समय की भी मांग है कि लोगों को नींद से जगाया जाए। मोदी के ‘भारत तोड़ो’ अभियान के मुकाबले एक ‘भारत जोड़ो’ आंदोलन छेड़ना होगा। वैमनस्य, मुद्रास्फीति और बेरोजगारी से तबाह लोगों के लिए यह सही नुस्खा है। ऐसे हालात में एक नए राहुल गांधी का उदय हो सकता है।
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