पढ़े-लिखे दलित-अल्पसंख्यकों को जेलों में डालना अंगूठा काटने जैसा, वर्चस्ववादियों के लिए खड़ी हो रही है चुनौती
वर्चस्व बनाए रखने वाली विचारधारा यानी द्रोणाचार्य के लिए यह सबसे चुनौतीपूर्ण समय है। शेक्षिक माहौल को खत्म करना उसकी प्राथमिकता में है। इसीलिए संस्थानों की संस्कृति के उलट सोच वालों के हवाले शैक्षणिक संस्थानों को किया जा रहा है। आज यह जेलों में डाल देना, अंगूठा काटना है।
देश में शैक्षणिक संस्थानों से पढ़े-लिखे बहुत सारे लोगों को सरकार ने जेल में बंद कर दिया है। उनकी पहचान पत्रकार, डॉक्टर, कवि, प्रोफेसर, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, अकादमिक क्षेत्र में दुनिया भर में प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी के तौर पर है। लेकिन इनकी तरह के पढ़े-लिखे तो देश में लाखों लोग हैं। फिर उन जैसे लोगों को ही क्यों जेल में बंद किया जाता है?
देश में इन लोगों की गिरफ्तारी से पहले विश्वविद्यालों और दूसरे शैक्षणिक संस्थानों पर हमले की घटनाएं आम थीं। क्या शैक्षणिक संस्थानों पर हमले और इन्हें जेलों में डाला जाना एक ही हमले के सिलसिले की कड़ी है। बिल्कुल है। दोनों को एक जगह मिलाकर अगर कहें कि यह दरअसल पढ़ने लिखने के माहौल पर हमले के दो रुप हैं, तो उसे समझना शायद ज्यादा आसान होगा।
समाज का जो हिस्सा दमित होता है , पीड़ित होता है, उसके लिए शैक्षणिक माहौल का क्या महत्व होता है, इसे समझने के लिए एकलव्य का उदाहरण सबसे उपयुक्त है और लोकप्रिय भी है। हिन्दू पौराणिक ग्रंथों में एकलव्य जैसे कई पात्र हैं। नये समय का उदाहरण रोहित वेमुला है। एकलव्य और रोहित भी कैसे एक जैसे पात्र हैं इसे समझना मुश्किल नहीं है।
एकलव्य की कहानी यह है कि उसने द्रोणाचार्य के गुरुकुल के आसपास घूमते हुए पढ़ाई पूरी कर ली। पढ़ाई का मतलब केवल किताबें पढ़ना नहीं होता है। हर वक्त की अलग-अलग पढ़ाई होती है। द्रोणाचार्य के समय धनुष चलाने की विद्या सबसे आधुनिक शिक्षा थी। उस समय सबसे उन्नत हथियार धनुष को माना जाता था। जिनपर हमला करके अपना राज कायम करना है, उनसे दूर रहकर ही धनुष से हमला किया जा सकता है। जैसे अभी हवाई हमले को माना जाता है।
वहीं आज के समय में किताबों की पढ़ाई आज की शिक्षा मानी जाती है। दरअसल पढ़ाई हासिल करने का मतलब जीत हासिल करने के दांवपेंच को और गुलामी की वजहों को समझ लेना होता है। एक इंसान के तौर पर अपने अधिकारों को जान-समझ लेना होता है और किसी भी तरह के शोषण के प्रतिकार की ताकत से लैस होना होता है।
द्रोणाचार्य गुरू थे। वे शिक्षा की ताकत को जानते थे। क्योंकि वे वर्चस्व कायम करने के लिए शिक्षा दे रहे थे। उस वर्चस्व में यह भी शामिल था कि जिन्हें शिक्षा हासिल करने का अधिकार दिया गया है, वही वर्चस्व के हकदार हैं। एकलव्य शुद्र था और वर्चस्व की व्यवस्था में वह गुलाम था। यह उसके जीने की आवश्यक शर्त थी। लेकिन एकलव्य ने उस समय की चुपचाप आधुनिक शिक्षा हासिल कर ली।
एकलव्य ने कोई कक्षा में प्रशिक्षण नहीं लिया। उसने गुरुकुल के माहौल से गुजरते हुए, वह शिक्षा हासिल कर ली। क्योंकि वह शिक्षित होना चाहता था जिसकी चाहत किसी वंचित और दमित में सबसे ज्यादा होती है। जबकि द्रोणाचार्य पर अपने शिष्यों को शिक्षित करने के लिए उन्हें लगातार प्रेरित करने की भी जिम्मेदारी थी। राजपुत्रों में उत्ताधिकारी बनने का एक लालच भरना भी होता है।
एकलव्य ने गुरु की कोई सेवा सीधी नहीं ली। लेकिन गुरु द्रोणाचार्य जानते थे कि यह किसी एक व्यक्ति के शिक्षा ग्रहण करने का उदाहरण भर नहीं है। यह एकलव्य की जाति की शिक्षा ग्रहण कर लेने की क्षमता और योग्यता का उदाहरण है। लिहाजा उन्होंने अपनी पूरी शिक्षा व्यवस्था को बचाने के लिए पूरी जाति को चेतावनी देने के इरादे से एकलव्य का अंगूठा कटवा लिया।
आज के शिक्षण संस्थानों में वे कौन लोग हैं, जो पहली बार पढ़ने जा रहे हैं? रोहित वेमुला से एकलव्य के अंगूठे की तरह उसकी जान क्यों मांगी गई? क्योंकि वह संस्थान में केवल डिग्री के लिए नहीं गया था। संस्थान में कक्षाएं लगती हैं। लेकिन कमरे की कक्षाओं से बाहर बड़ी खुली कक्षाएं चलती हैं। बहसें होती हैं, विमर्श-तर्क, तथ्य के विभिन्न आयाम खुलते हैं। साझेदारी की संस्कृति की ताकत का एहसास होता है।
ऐसे ही माहौल में रोहित वेमुला कमरे की कक्षा वाली डिग्री के अलावा लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता की डिग्री भी अपने साथियों के बीच हासिल कर रहा था। यही सबसे खतरनाक पहलू है। क्योंकि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता की शिक्षा, किताबों की शिक्षा के मकसद के दरवाजे खोलती हैं।
शैक्षिक माहौल ही सबसे ज्यादा खतरनाक होता है । द्रोणाचार्य ने एक तरफ एकलव्य का अंगूठा लेकर दमित और वंचित जातियों को चेतावनी दी थी तो वर्चस्व बनाए रखने वाले शासकों को भी एक सीख दी थी कि शैक्षणिक माहौल के इर्दगिर्द भी उन्हें आने से रोका जाना चाहिए, जिनके ऊपर राजपुत्रों को अपना राज चलाना है।
आज जिन लोगों को जेल में डाला गया है, उनकी भूमिका पर नजर डालें। वे लोग उस समाज के हिस्सा हैं, जिन्हें उत्पीड़ित, वंचित और दमित माना जाता है। इनमें दो तरह के सदस्य हैं। एक वे हैं जो कि उत्पीड़ित, वंचित और दमितों के लिए अपनी शिक्षा का इस्तेमाल कर रहे थे। वे चाहे लेखक के रुप में हों या कवि, प्रोफेसर, वकील, चिंतक या उनसे सरोकार रखने वाले बुद्धिजीवियों के रूप में। दूसरे वे हैं जो शिक्षा संस्थानों में शैक्षिक माहौल और बड़ी कक्षाओं के लिए उत्पीडितों, दमितों और वंचितों को प्रेरित कर रहे थे।
इस तथ्य को सामने रखें कि किस तरह के विश्वविद्यालयों पर हमले हुए हैं। उन विश्वविद्यालयों पर हमले हुए हैं, जहां कमरे की कक्षाओं के अलावा बड़ी और खुली कक्षाएं चौबीसों घंटे और सातों दिन चलती रहती हैं। वे हमले किसी वैसे विश्वविद्यालयों में नहीं हुए, जहां लाखों रुपये की फीस पर समाज पर वर्चस्व रखने वाले लोगों के लाडले जाते हैं और एयरकंडीशंड कक्षाओं में गुलाम बनाने का प्रशिक्षिण लेते हैं। जिन पर हमले हुए उनमें दमित, उत्पीड़ित और वंचित समाज के बीच के प्रतिनिधि सदस्यों ने शिक्षित होने जाने की शुरूआत की है।
पिछले कुछ वर्षों में समाज में बड़ी खलबली मची है, जब से दमित, उत्पीड़ित और वंचित समाज के बीच के प्रतिनिधि सदस्य शिक्षित होने के मकसद को पूरा करने के लिए विश्वविद्यालयों में सक्रिय हुए हैं। अल्पसंख्यक संस्थानों पर तरह-तरह से हमले हुए हैं, क्योंकि वहां के शिक्षा के माहौल में साझेदारी की संस्कृति घुलते-मिलते दिखाई देने लगी थी। उन्हें हर स्तर पर कमजोर करने की पुरजोर कोशिश की जा रही है।
दरअसल पिछले कुछ वर्षों में जो शैक्षणिक माहौल तैयार हुआ है, वह वर्चस्व रखने वाली विचारधारा के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रुप में सामने आई हैं। वह विचारधारा द्रोणाचार्य की तरह तमाम उन वंचितों और दमितों को एक चेतावनी देना चाहती है।
इस तरह की खलबली तब भी मची थी जब अंग्रेजों के शासन में वंचितों और दमितों के घरों के बच्चे स्कूलों में पढ़ने के लिए निकले थे। इस खलबली का एक उदाहरण उस समय के एक लोकप्रिय समाचार पत्र की इस खबर से लगाया जा सकता है। ‘संवाद भास्कर’ नाम के पत्र ने एक नई तरह की सामाजिक समस्या की तरफ ध्यान खींचा। “अंग्रेजी शिक्षा की वजह से नई तरह की यह सामाजिक समस्या बन रही है कि नीची जातियों में अंग्रेजी सीखने की ललक बढ़ रही है और बढ़ई, नाई, धोबी, भंगी जाति के परिवारों के लड़के अंग्रेजी सींखकर क्लर्क, बिल सरकार, एजेंट आदि पदों पर नौकरियां पा रहे हैं। वे अपना पारिवारिक काम छोड़ रहे हैं और इससे एक नई सामाजिक समस्या पैदा हो रही है।” (इमरजेंस ऑफ द बंगाली प्रेस, स्मरजीत चक्रवर्ती, पृष्ठ संख्या 81-82, संवाद भास्कर 20 सितंबर 1856)
अंग्रेज शासकों के समय में उनकी भाषा अंग्रेजी जानना शिक्षा का आधुनिक रूप था। भारत के राजनीतिक इतिहास में कई बार ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं, जब समाज के पढ़े-लिखे लोग दमन, शोषण और वंचना के ढांचे के खिलाफ लोगों को एकजुट करने की कोशिश में लगते हैं तो उन्हें वर्चस्व बनाए रखने वाली सत्ता हर स्तर पर कुचलने की कोशिश करती है।
अभी तो दलित, आदिवासी, मुसलमान, यानी वे सभी जो खुद को दमित, शोषित और उत्पीड़ित महसूस करते हैं, के बीच के प्रतिनिधियों ने एक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर दिया है, जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों हैं। यह वर्चस्व बनाए रखने वाली विचारधारा यानी द्रोणाचार्य के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण समय है। कब, कैसे और किसका अंगूठा किस तरह से काटा जा सकता है, यह बड़ा जटिल काम उसके सामने है। शैक्षणिक माहौल को खत्म करना उसकी प्राथमिकता में है। इसीलिए शैक्षणिक संस्थानों को संस्थानों की संस्कृति के विपरीत सोच वालों के हवाले किया जा रहा है। तर्क और विज्ञान को भीड़ के हवाले किया जा रहा है। आज यह जेलों में डाल देना, अंगूठा काटना भी है।
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