उच्च शिक्षा का बंटाधार तय! कहीं अपनों को पीछे के दरवाजे से घुसाने का जरिया न बन जाए 'प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस'?
जहां तक भारत की बात है, इस योजना के उच्च शिक्षण संस्थानों में विफल हो जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। पीओपी पर आने वाले खर्चे का भुगतान या तो उद्योग को करना होगा या संस्थान उन्हें खुद के संसाधन से भुगतान करेंगे या फिर इन्हें मानद आधार पर नियुक्त किया जाएगा
देश के कॉलेज और विश्वविद्यालयों को अब प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस (पीओपी) बहाल करने का अधिकार दे दिया गया है। ‘उल्लेखनीय योगदान’ करने वाले ऐसे 'ख्याति प्राप्त विशेषज्ञ' को चार सालों के लिए प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस के तौर पर बहाल किया जा सकता है जिनके पास विशेषज्ञता वाले क्षेत्र में वरिष्ठ स्तर पर काम करने का कम-से-कम 15 साल का अनुभव हो। उनसे बस यह अपेक्षा है कि वे नियुक्त किए जाने में दिलचस्पी दिखाते हुए बताएं कि आखिर वे कैसे 'ख्याति प्राप्त विशेषज्ञ' की श्रेणी में आते हैं। पीओपी की संख्या उच्च शिक्षा संस्थानों में कुल स्वीकृत फैकल्टी पदों के दस प्रतिशत तक सीमित होगी। चूंकि पीओपी अलग-अलग व्यवसायों से लिए गए प्रख्यात विशेषज्ञ होंगे, ऐसा माना जाता है कि वे उच्च शिक्षण संस्थान को उद्योग-अनुकूल प्रासंगिक पाठ्यक्रम विकसित करने, संयुक्त अनुसंधान परियोजनाओं और राय-मशविरा के लिए उद्योग के साथ शिक्षाविदों को जोड़ने और उन्हें प्रायोगिक और व्यावहारिक शिक्षण में सहयोग कर सकेंगे।
पीओपी का विचार कोई भारतीय का अपना ईजाद नहीं है। अमेरिकी विश्वविद्यालय लंबे समय से विभिन्न पदनामों से ऐसे विशेषज्ञों को फैकल्टी के रूप में नियुक्त करते रहे हैं, जैसे: प्रैक्टिस प्रोफेसर, प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस, प्रोफेसर ऑफ प्रोफेशनल प्रैक्टिस या क्लीनिक प्रोफेसर। बाद में इन पदनामों को अकादमिक फैकल्टी में भी शुमार किया गया जबकि इनकी प्राथमिक जिम्मेदारी अनुसंधान के बजाय शिक्षा थी। हालांकि अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने इन पीओपी की संख्या की कोई सीमा निर्धारित नहीं की लेकिन कम-से-कम दो दशक का अनुभव बताता है कि पीओपी की संख्या कुल फैकल्टी सदस्यों की तुलना में दस प्रतिशत से अधिक नहीं। हालांकि अब जरूर कुछ विश्वविद्यालयों ने ऐसे फैकल्टी सदस्यों की अधिकतम संख्या बीस फीसद तय कर दी है।
इस तरह विशेषज्ञों को फैकल्टी सदस्य के तौर पर नियुक्त करने की यह योजना लोकप्रिय तो रही है लेकिन इसपर मिलीजुली प्रतिक्रिया देखने को मिली है। अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ यूनिवर्सिटी प्रोफेसर्स (एएयूपी) ने इस चलन की इस आधार पर आलोचना की है कि इसने छात्रों, अकादमिक आजादी और अकादमिक पेशे को कमजोर किया है। इसलिए, एएयूपी मांग कर रहा है कि सभी पूर्णकालिक संकाय, चाहे उनका पदनाम कुछ भी हो, वे या तो एक नियत कार्यकाल के लिए हों या फिर उस कार्यकाल में उन्हें प्रोबेशन पर माना जाए।
जहां तक भारत की बात है, इस योजना के उच्च शिक्षण संस्थानों में विफल हो जाने की संभावना से इनकार नहीं क्योंकि इसके लिए किसी तरह की वित्तीय मदद नहीं दी जाती। पीओपी पर आने वाले खर्चे का भुगतान या तो उद्योग को करना होगा या संस्थान उन्हें खुद के संसाधन से भुगतान करेंगे या फिर इन्हें मानद आधार पर नियुक्त किया जाएगा।
इसके विपरीत, योजना काफी सफल हो सकती है। उच्च शिक्षा प्रणाली में लगभग 15 लाख संकाय सदस्य हैं और ऐसे में पीओपी की संख्या 1.5 लाख तक पहुंच सकती है। बतौर पीओपी बहाल होने की योग्यता शर्तें काफी लचीली हैं जिससे बड़ी संख्या में लोग शिक्षा क्षेत्र से जुड़ने के लिए प्रेरित हो सकते हैं लेकिन यही बात इस योजना को दुरुपयोग के लिहाज से कमजोर भी बनाती है। इससे फैकल्टी पदों पर खास वैचारिक धारा के लोगों को पिछले दरवाजे से घुसाया जा सकता है। जिसने न तो पीएचडी की, न उसका कोई रिसर्च प्रकाशित हुआ, न उसने खुद कोई शोध किया और न ही उसकी देखरेख में कोई शोध हुआ, ऐसा व्यक्ति भी केवल अपने संपर्कों के जरिये अनुबंध के आधार पर शिक्षण में प्रवेश कर सकता है और बाद में अपने प्रभाव के कारण स्थायी संकाय भी बन सकता है। अमेरिकी अनुभव यही बताते हैं कि ये पीओपी पूर्णकालिक नियमित संकाय बनने की इच्छा रखते हैं।
पीओपी का विचार भले ही अच्छा हो, इरादे भी नेक हो सकते हैं लेकिन हम नियमों को तोड़कर अपने मतलब का परिणाम हासिल करने के लिए कुख्यात हैं। कुछ कम जाने जाने वाले विश्वविद्यालय के विश्व विख्यात इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बैंगलोर से बेहतर अंक पाने के कारण राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद (एनएएसी) की विश्वसनीयता पहले ही सवालों के घेरे में है।
खैर, फैकल्टी सदस्यों की नियुक्ति के लिए योग्यता मानदंड को ढीला करने के हालिया प्रयास हैरान करने वाले हैं। चिंताजनक है कि अब संकाय के रूप में नियुक्ति के लिए पीएचडी डिग्री की जरूरत नहीं रही। यह भी चिंता की बात है कि पीएचडी डिग्री देने के लिए कम-से-कम दो गुणवत्ता वाले पेपर के प्रकाशन की अनिवार्यता भी खत्म कर दी गई है।
आखिर क्यों विश्वविद्यालयों को मजबूर किया जाए कि वे 40 फीसद पीएचडी सीटें ऐसे लोगों से भरें जिन्होंने न तो जूनियर रिसर्च फेलोशिप (जेआरएफ) और न ही राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (एनईटी) पास की हो? होना तो यह चाहिए था कि विश्वविद्यालयों को प्रोत्साहित किया जाता कि वे अपने पीएचडी कार्यक्रमों में उन्हें प्राथमिकता दें जिन्होंने जेआरएफ/नेट पास कर रखा हो।
विडंबना यह है कि फिलहाल सभी विषयों के मौजूदा फैकल्टी सदस्यों को समयबद्ध पदोन्नति से केवल इसलिए वंचित कर दिया जाता है क्योंकि उनके पास पीएचडी की डिग्री नहीं है। पदानुक्रम में पीओपी उनके ऊपर होंगे और जाहिर है कि इससे फैकल्टी सदस्यों का मनोबल टूटेगा और यहां तक कि इससे युवा संकाय सदस्यों में आगे शोध करने की रुचि खत्म भी हो सकती है।
इस बात की ओर भी ध्यान देना चाहिए कि उच्च शिक्षण संस्थान फैकल्टी की कमी की समस्या से जूझ रहे हैं। उच्च शिक्षा में छात्र-शिक्षक अनुपात लगातार गिर रहा है। केन्द्रीय वित्त पोषित उच्च शिक्षण संस्थानों में स्वीकृत शिक्षकों के कम-से-कम 30 प्रतिशत पद खाली रहते हैं। राज्य के विश्वविद्यालयों और उनके कॉलेजों में रिक्तियां 50 प्रतिशत तक हैं।
यह आम समझ की बात है कि आने वाले एक साल के भीतर खाली होने वाले सभी पदों पर नियुक्ति का काफी पहले ही विज्ञापन आ जाना चाहिए और इससे जुड़ी प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए ताकि जैसे ही पद खाली हों, आपके पास उन्हें भरने के लिए योग्य लोग मौजूद हों। अफसोस की बात है कि इन दिनों ऐसा कुछ नहीं हो रहा और नतीजा यह है कि रिक्तियां बढ़ती जा रही हैं। आम तौर पर रिटायर्ड फैकल्टी को शिक्षण या रिसर्च में नहीं लिया जाता। यहां तक कि जो दो साल में रिटायर होने वाले हैं, उन्हें अपनी देखरेख में रिसर्च कराने पर भी रोक है। अगर किसी को शोध करने में देरी हो गई और इस बीच फैकल्टी रिटायर हो गया तो उस छात्र को किसी और के अधीन कर दिया जाता है। कुल मिलाकर पीओपी की इस व्यवस्था से शिक्षा क्षेत्र का कोई भला नहीं होने वाला बल्कि यह बुरे की ओर ही इशारा कर रहा है।
(फुरकान कमर दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं, नवनीत शर्मा धर्मशाला स्थित सेंट्रल यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं)
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