गंगा में प्लास्टिक की समस्या गंभीर, दुनिया की उन दस नदियों में शामिल जो महासागरों को कर रही हैं तबाह
महासागरों में जो प्लास्टिक के भंडार मिल रहे हैं, वह नदियों की देन हैं। अधिकतर विकासशील देशों में नदियों और उनमें मिलने वाले नालों के किनारे ही प्लास्टिक समेत सारा कचरा जमा होता है। हम नदियों को गन्दा कर रहे हैं और नदियां महासागरों को प्रदूषित कर रही हैं।
हाल में ही 18 सदस्यीय महिला वैज्ञानिकों का एक दल गंगा नदी के आरंभ से अंत तक की यात्रा से वापस लौटा है। नेशनल जियोग्राफिक के सौजन्य से की गयी इस यात्रा का उद्देश्य था, गंगा नदी में प्लास्टिक प्रदूषण के स्तर का अध्ययन और इसके साथ ही यह पता करना कि प्लास्टिक अंत में बहकर कहां तक जाता है। अभी मॉनसून के पहले का अध्ययन किया गया है, जबकि अक्टूबर में फिर यही दल पूरे गंगा की लंबाई में मॉनसून के बाद प्लास्टिक प्रदूषण का अध्ययन करेगा। देश की सबसे बड़ी नदी, गंगा, सबसे अधिक पूजनीय होने के साथ ही सबसे अधिक प्रदूषित भी है।
सवाल यह उठता है कि केवल प्लास्टिक प्रदूषण को मापने के लिए और गंगा में प्लास्टिक के कचरे का कहां अंत होता है, यह जानने के लिए इतना व्यापक अध्ययन क्यों किया जा रहा है? दरअसल, सरकार इसे कितना भी साफ करने का दावा करे पर तथ्य यह है कि यह नदी विश्व की उन दस नदियों में शामिल है जिन नदियों से महासागरों में पहुंचने वाले कुल प्लास्टिक का 90 प्रतिशत जाता है।
एक अध्ययन के अनुसार विश्व में 20 नदियां ऐसी हैं जिनके माध्यम से महासागरों में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक जाता है। इसमें पहले स्थान पर चीन की यांग्तजे नदी है, जिससे हर साल 333000 टन प्लास्टिक महासागरों तक पहुंचता है। दूसरे स्थान पर गंगा नदी है जिससे 115000 टन प्लास्टिक प्रतिवर्ष जाता है। तीसरे स्थान पर चीन की क्सी नदी, चौथे पर चीन की हुंग्पू नदी और पांचवे स्थान पर नाइजीरिया और कैमरून में बहने वाली क्रॉस नदी है।
इन बीस नदियों में से चीन में 6, इंडोनेशिया में 4, नाइजीरिया में 3 नदियां स्थित हैं। इसके अतिरिक्त भारत, ब्राज़ील, फिलीपींस, म्यांमार, थाईलैंड, कोलंबिया और ताइवान में एक-एक नदी स्थित है। स्पष्ट है कि महासागरों तक प्लास्टिक पहुंचाने वाली अधिकतर नदियां एशिया में स्थित हैं।
महासागरों में प्लास्टिक के कचरे का अध्ययन 1970 के दशक से किया जा रहा है, जबकि नदियों में प्लास्टिक के कचरे का अध्ययन अभी हाल में ही शुरू किया गया है। महासागरों में प्लास्टिक के बड़े टुकड़ों का अध्ययन प्रमुख तौर पर किया जाता है, जबकि नदियों में अधिकतर अध्ययन माइक्रो-प्लास्टिक, प्लास्टिक के बहुत छोटे टुकड़े, तक ही सीमित हैं।
जर्नल ऑफ वाटर, एयर एंड सॉइल पॉल्यूशन के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार नदियों और महासागरों में प्लास्टिक प्रदूषण के अध्ययन में बहुत अंतर है। आज हालत यह है कि सामान्य नदियों में भी कितना प्लास्टिक बहता है उसकी जानकारी नहीं है। दूसरी तरफ महासागरों के सूदूर क्षेत्रों, सबसे गहरी जगह और निर्जन द्वीपों पर भी कितना प्लास्टिक कचरा जमा है, इसके बारे में भरपूर जानकारी है। शोधपत्र के लेखकों ने उस समय तक प्रतिष्ठित जर्नल में उपलब्ध इस विषय पर 171 शोध पत्रों का आकलन कर यह पाया कि 98 प्रतिशत शोधपत्र महासागरों के प्रदूषण से संबंधित हैं, जबकि महज 2 प्रतिशत शोधपत्रों में नदियों का अध्ययन किया गया है।
इस शोधपत्र के लेखकों ने लिखा है कि यह आश्चर्यजनक है कि प्लास्टिक के कचरे में फंसीं मछलियां जो महासागरों में बहुत गहराई में पायी गयीं, उनका अध्ययन तो किया गया पर नदियों में इस तरह के अध्ययन नहीं किये जा रहे हैं, जबकि उनमें ऐसा अध्ययन अपेक्षाकृत आसान है। शोधपत्र के लेखकों के अनुसार नदियों में या इसके आसपास बसने वाले पक्षियों के घोंसले में प्लास्टिक के उपयोग पर कोई अध्ययन नहीं है, जबकि वैज्ञानिक महासागरों में बसे द्वीपों पर यह अध्ययन कर रहे हैं।
ऑस्ट्रेलिया से 2100 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित कोकोस आइलैंड पर लगभग 300 लोग रहते हैं। दुनिया से लगभग कटा हुआ यह द्वीप विश्व के उन चुनिन्दा क्षेत्रों में से है जहां अब तक समझा जाता था कि पर्यावरण विनाश या फिर प्रदूषण का असर नहीं पड़ा है। लेकिन हाल में ही वैज्ञानिकों ने इस द्वीप पर लगभग 238 टन कचरा खोज निकाला है, जो हिन्द महासागर की लहरों के साथ इसके किनारे पर जमा हो गया है। इस कचरे में लगभग 42 करोड़ प्लास्टिक के टुकड़े भी हैं।
कुछ महीने पहले अमेरिका के विक्टर वेस्कोवो ने प्रशांत महासागर की सबसे गहरी जगह, मारिआना ट्रेंच, में 10927 मीटर की गहराई तक पहुंच कर एक नया विश्व रिकॉर्ड स्थापित किया। माउंट एवेरेस्ट की ऊंचाई कुल 8848 मीटर है, यानि विक्टर वेस्कोवो जिस गहराई तक गए वह माउंट एवेरेस्ट की कुल ऊंचाई से भी अधिक है. उनसे पहले महासागर में इस गहराई तक पहुंचने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाया था। इस रिकॉर्ड-तोड़ गहराई में भी उन्हें प्लास्टिक से ढका कचरा मिला।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार हरेक सेकंड लगभग 2 बस के बराबर प्लास्टिक महासागरों में पंहुच रहा है, और हरेक वर्ष लगभग 80 टन प्लास्टिक महासागरों में जा रहा है और इसे रोकने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किये जा रहे हैं। अधिकतर प्लास्टिक विकासशील देशों से ही पर्यावरण में पंहुच रहा है। विकसित देश अपना प्लास्टिक कचरा एकत्रित कर वैध या फिर अवैध तरीके से विकासशील देशों तक पंहुचा देते हैं, जहां इनका निपटान किया जाता है या फिर इनका पुनःचक्रण किया जाता है।
महासागरों में जो कचरा सीधे जा रहा है, उसके अतिरिक्त जो प्लास्टिक के भंडार मिल रहे हैं, वह नदियों की ही देन हैं। नदियों और नदियों में मिलने वाले नालों के किनारे ही प्लास्टिक समेत कचरा फेंका जाता है। अधिकतर विकासशील देशों में यही स्थिति है और यह प्लास्टिक सीधे या फिर हवा के साथ नदियों तक पहुंचता है। नदियों में पानी की बोतलें, पॉलिथीन के थैले और प्लास्टिक की प्लेटें सीधी फेंकी जाती हैं। यह सब पानी के साथ बहकर महासागरों में जा रहा है। हम नदियों को गन्दा कर रहे हैं और नदियां अंत में महासागरों को प्रदूषित कर रही हैं।
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