कृषि सुधार का मतलब सिर्फ निजीकरण नहीं, किसानों के भले के लिए MSP की गारंटी समेत सरकार को उठाना चाहिए ये तीन कदम

बाहर से विचार उधार लेने की जगह हमारा जोर अपना मॉडल तैयार करने, हमारी अपनी जरूरतों और अपेक्षाओं पर होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, इसकी जगह भारतीय योजनाकारों को आर्थिक सुधारों का ऐसा देसी मॉडल बनाना चाहिए जिसमें कृषि आर्थिक विकास का दूसरा पावर हाउस बने।

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देवेंदर शर्मा

भारत में आर्थिक सुधारों के तीस साल पूरे हो रहे हैं, फिर भी कृषि पर ध्यान दिए जाने की सख्त जरूरत है। 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण से कठोर सच्चाई सामने आई है। 17 राज्यों, मतलब लगभग आधे देश, में खेती-किसानी करने वाले परिवारों की औसत आय प्रति साल महज 20,000 रुपये है। दूसरे शब्दों में, आधे देश में किसान 1,700 रुपये प्रतिमाह से भी कम पर जीवन-यापन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इससे अगले दो साल वास्तविक कृषि आय का विकास शून्य रहा।

पिछले तीन दशकों में कृषि आय या तो गिरी है या उसी तरह बनी रही है। कृषि आय में गिरावट इस वजह से नहीं हुई कि कृषि क्षेत्र अनुत्पादक या अपर्याप्त था। आर्थिक संरचना ही ऐसी थी जिसने आर्थिक सुधारों को व्यावहारिक बनाए रखने के लिए शहर की ओर बढ़ते विस्थापन पर ज्यादा जोर दिया। जैसा कि मैंने कई दफा कहा है, खेती छोड़ देने के लिए किसानों को मजबूर करने के लिए खेती-किसानी को जानबूझकर आर्थिक तौर पर नष्ट कर दिया गया। एक वरिष्ठ आर्थिक सलाहकार ने शहर की ओर विस्थापन बढ़ाने के लिए ग्रामीण मजदूरी को कमतर रखने की जरूरत की बात हाल में स्वीकार की।

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कृषि क्षेत्र में संकट पिछले वर्षों में किस तरह बढ़ा है, उसे किसानों की कभी समाप्त न होने वाली आत्महत्याओं से समझा जा सकता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, पिछले 25 वर्षों में 3.5 लाख किसानों और कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की है। देश में अनाज की कटोरी कहे जाने वाले पंजाब का हाल भी बुरा है। तीन सरकारी विश्वविद्यालयों- लुधियाना के पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, पटियाला के पंजाबी विश्वविद्यालय और अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के संयुक्त तौर पर घर-घर जाकर किए सर्वेक्षण ने बताया था कि सन 2000 और 2015 के बीच के 15 साल में 16,600 किसानों और कृषि मजदूरों ने अपना जीवन समाप्त कर लिया।

और तब भी, आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद, भारतीय किसानों ने साल-दर-साल भरपूर पैदावार के लिए कठिन परिश्रम किया। इन भरपूर खाद्य भंडारों की वजह से आज लगभग 100 मिलियन टन अतिरिक्त खाद्य अपने पास है। इस वजह से लॉकडाउन अवधि के दौरान 80 करोड़ से अधिक जरूरतमंद लोगों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत सब्सिडी वाला राशन उपलब्ध कराना संभव हो पाया। इस कोविड काल में जब अर्थव्यवस्था को सिकुड़न का सामना करना पड़ा, तब कृषि एकमात्र उज्ज्वल चिह्न बना रहा जिससे भी बिल्कुल साफ हुआ कि बेहतर और लहलहाती खेती-किसानी ही है जिसकी देश को जरूरत है।


लेकिन ‘सुधार’ शब्द की लापरवाह समझ के कारण इसका मतलब सिर्फ निजीकरण से लगाया जाता है और सरकार तीन केंद्रीय कृषि कानून ले आई है। इसका दावा है कि यह कृषि क्षेत्र में निजी निवेश को प्रोत्साहित करेगा और इस तरह मुक्त बाजार होगा जिससे किसानों की आमदनी बेहतर होगी। इससे भारी कृषि विरोध पैदा हुआ है। इन कानूनों को रद्द करने की मांग करते हुए किसान दिल्ली की सीमाओं पर नौ माह से अधिक समय से बैठे हुए हैं। किसानों को आशंका है कि ये कानून उन्हें कॉरपोरेट के नियंत्रण में ला देंगे; ये उन्हें कृषि क्षेत्र से बाहर कर देंगे और उनकी कृषि आय कम कर देंगे। इन कानूनों को रद्द करने के अतिरिक्त किसान यह भी मांग कर रहे हैं कि उन सभी 23 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को उनका कानूनी अधिकार बनाया जाए जिनकी कीमत हर साल घोषित की जाती है।

इस मामले में गतिरोध जारी है, तब भी यह तथ्य बना हुआ है कि दुनिया में कहीं भी मुक्त बाजार कृषि आय को बढ़ाने में विफल रहा है। अमेरिका में 2 प्रतिशत से भी कम आबादी खेती-किसानी में है। वहां भी मध्यम कृषि आय लगभग दस साल से गिरावट पर है। भारी सब्सिडी के बावजूद अमेरिकी किसान जुलाई, 2020 में 425 बिलियन डॉलर की कंगाली ढो रहे हैं। अमेरिका भी गहरे कृषि संकट का सामना कर रहा है। वहां शहरी इलाकों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में आत्महत्या की दर 45 प्रतिशत अधिक है। यूरोपीय संघ में लगातार जारी कृषि संकट की वजह से गुस्साए किसान कई शहरों में ट्रैक्टर लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। वे भी अधिक और सुनिश्चित कीमतों की मांग कर रहे हैं। वहां कृषि के लिए हर साल 100 बिलियन डॉलर सब्सिडी है जिनमें से 50 प्रतिशत हिस्सा सीधे आय मदद के तौर पर दिया जाता है।

धनी विकसित देशों में मुक्त बाजार से कृषि आय में बढ़ोतरी विफल हो रही है, यह बात साफ तौर पर बताती है कि हमारी आर्थिक सोच और नजरिये में कुछ मूलभूत खामी है। बाहर से विचार उधार लेने की जगह हमारा जोर अपना मॉडल तैयार करने, हमारी अपनी मजबूतियों पर भरोसा करने, हमारी अपनी जरूरतों और अपेक्षाओं पर होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, इसकी जगह भारतीय योजनाकारों को आर्थिक सुधारों का ऐसा देसी मॉडल बनाना चाहिए जिसमें कृषि आर्थिक विकास का दूसरा पावर हाउस बने।

लोगों को खेती-किसानी से दूर ठेलने की जगह छोटे किसानों के हाथों में अधिक आमदनी देने, प्रधानमंत्री की दृष्टि- सबका साथ सबका विकास हासिल करने के लिए कृषि को दीर्घकालिक बनाने और उसे आर्थिक तौर पर व्यावहारिक बनाने पर जोर होना चाहिए।


कृषि अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए तीन नए स्तंभ बनाकर यह संभव हैः

  • यह सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता के साथ किसानों के लिए एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाएं कि कोई व्यापार उसके नीचे नहीं हो। यह किसानों के लिए वास्तविक आजादी होगी।

  • कृषि उत्पाद बाजार समिति (एपीएमसी) संचालित मंडियों के नेटवर्क का विस्तार। अभी करीब 7,000 एपीएमसी मंडियां हैं। अगर 5 किलोमीटर दायरे में एक मंडी हो, तो हमें 42,000 मंडियों की जरूरत होगी।

  • सब्जियों, फलों, दलहन और तिलहन उत्पादों के लिए सफल अमूल डेयरी सहकारिता मॉडल को दोहराने के लिए पर्याप्त निवेश और प्रावधान किए जाएं।

    (यह लेख कन्नड़ दैनिक प्रजावाणी में इसी माह प्रकाशित हुआ था)

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