राष्ट्रपति के साथ जगन्नाथ मंदिर में दुर्व्यवहार: आज भी मंदिरों की सामाजिक सत्ता दलितों को मानती है अछूत
स्वतंत्र भारत में दलितों के मंदिर प्रवेश को लेकर एक फर्क ये आया कि ब्रिटिश शासन में दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं देने के लिए जो कानून बने थे, वे नये संविधान के लागू होने के बाद खत्म हो गए। लेकिन सामाजिक स्तर पर जो सत्ता कायम रही है, उसके नियम खत्म नहीं हुए हैं।
उड़ीसा के एक प्रतिष्ठित पत्रकार का कहना है कि पुरी के जगन्नाथ मंदिर में 18 मार्च को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और उनकी पत्नी सविता के साथ पंडों के आपत्तिजनक रवैये की घटना में जातीय पूर्वाग्रह के लक्षण दिखाई दे रहे थे। उन्होने इसे विस्तार देते हुए बताया कि रामनाथ कोविंद के पहले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी इस मंदिर में यात्रा की थी और उन्होने मंदिर की सभी रुढ़ प्रक्रियाओं का पालन किया था क्योंकि उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि मंदिर की व्यवस्थाओं के अनुकूल थी। मसलन, उन्होंने दान-दक्षिणा से लेकर मंदिर के पंडों द्वारा नियंत्रित होने वाली तमाम प्रक्रियाओं का पालन किया था। रामनाथ कोविंद की सपत्नीक इस मंदिर की यात्रा के बाद राष्ट्रपति भवन द्वारा पंडों के रवैये पर सख्त एतराज जाहिर किया गया तो यह स्वभाविक प्रश्न उठा कि क्या राष्ट्रपति का दलित होना इसकी एक वजह हो सकती है।
मंदिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर स्वतंत्रता के पहले से ही आंदोलन होते रहे हैं और आंदोलनकारियों पर हमले की घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है। 1920 से 1930 के दौरान बड़े पैमाने पर अछूतों के मंदिर प्रवेश को लेकर आंदोलन हुए। भारत के अन्य हिस्सों के मंदिरों की तरह ही उड़ीसा के मंदिरों में अछूत ही नहीं, नीची माने जाने वाली जातियों को जाने मनाही रही है। लेखक एके विश्वास ने अपने एक शोध-पत्र में लिखा है कि रवीन्द्र नाथ टैगोर जिस जाति के हैं, उसे नीची की जाति का दर्जा प्राप्त था और उपनाम में टैगोर लिखने वालों को पुरी के मंदिर में जाने की मनाही थी। 1809 में मंदिर में मनाही के कानून भी बने थे। जब डॉ अम्बेडकर ब्रिटिश वायसराय माउंटबेटन के साथ पुरी के मंदिर तक गए तो डॉ अम्बेडकर को मंदिर में नहीं जाने दिया गया था।
ब्रिटिश सत्ता और स्वतंत्र भारत में दलितों के मंदिर में प्रवेश को लेकर एक फर्क ये आया कि सरकार द्वारा दलितों के मंदिरों में प्रवेश नहीं देने के लिए जो कानून बने थे, वे नये संविधान के लागू होने के बाद खत्म हो गए। लेकिन सामाजिक स्तर पर जो सत्ता कायम रही है, उसके नियम खत्म नहीं हुए हैं। जगजीवन राम ने पुरी के जगन्नाथ मंदिर में अपने परिवार के साथ दर्शन के लिए नहीं जाने देने से खिन्न होकर लिखा कि शंकराचार्य के लिए यह सहजता से लिख सकते हैं कि वेदों के अनुसार वैदिक मंदिर नीची जातियों के छुए जाने से अपवित्र हो जाते हैं। जगजीवन राम बड़े संवैधानिक पदों पर रहे हैं, लेकिन उन्हें सामाजिक स्तर पर बड़े पदों के आगे अक्सर नीचे दिखाया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में जनवरी 1978 में रक्षामंत्री ने संपूर्णानंद की मूर्ति का अनावरण किया, लेकिन वहां से उनके जाने के बाद वहां के कुछ ब्राह्मणों ने ये कहकर मूर्ति को गंगाजल से नहलाया कि एक दलित के छूने से मूर्ति अपवित्र हो गई है।
उड़ीसा के पुरी मंदिर में रामनाथ कोविद की सप्तनीक यात्रा से पूर्व कांग्रेस सांसद पीएल पुनिया को एक मंदिर में जाने से रोक दिया गया था, जबकि वे उस वक्त राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग के अध्यक्ष थे। उनके साथ यह घटना 25 जून 2011 को उड़ीसा के रानापाड़ा स्थित हिन्दू मंदिर में हुई थी। सबसे नया उदाहरण उड़ीसा की एक पानो बस्ती में दलितों के खिलाफ हमले का हैं। पानों जाति के परेई नायक ने सिर्फ इतना अपराध किया था कि उन्होंने हिन्दू देवता से सीधे संपर्क करने का साहस किया था। यानी देवता की मूर्ति को पुजारियों के माध्यम से नहीं छुआ था। 16 जून 2018 की इस घटना के बाद पानो बस्ती में रहने वालों के घरों को तहस-नहस कर दिया गया। उन्हें गांव छोड़कर कई दिनों तक छुपकर रहना पड़ा।
संविधान में नागरिक की अवधारणा है और उसके तहत समानता के अधिकार का कोई भी नागरिक इस्तेमाल करता है तो देश में मंदिरों की व्यवस्था असहज हो जाती है। मंदिरों में समानता का सिद्धांत लागू नहीं होता है। आम नागरिकों और मंदिरों की मूर्ति के बीच सामाजिक सत्ता का ढांचा कायम है। वह सत्ता का ढांचा किसी भी आधुनिक सत्ता को अपने से नीचा समझती हैं। उड़ीसा में पुरी के मंदिर में उन्हीं बिचौलियों के रवैये के खिलाफ राष्ट्रपति भवन को आपत्ति जाहिर करनी पड़ी जो मंदिरों में होने वाले कर्मकांडों के माध्यम माने जाते हैं। उन्हें यह सत्ता विरासत में मिलती है।
ब्रिटिश हुकूमत के दस्तावेजों के अनुसार मंदिर में दर्शन करने वालों और मूर्ति के बीच 36 तरह के पंडे होते थे। उनकी संख्या बढ़कर 250 हो गई है। संविधान लागू होने के बाद 70 वर्षों में मंत्रियों, जजों और दूसरे संवैधानिक पदों पर बैठे दलितों के साथ धार्मिक सत्ता ने अपमानजनक व्यवहार करने की दर्जनों मिसालें पेश की है। राष्ट्रपति तीनों सेनाओं के प्रमुख होते हैं, लेकिन राष्ट्रपति जब दलित हों तो समाजिक सत्ता में उनका ओहदा छोटा ही माना जाता है। मंदिरों में वर्चस्व रखने वाले समूहों के बीच शुद्धिकरण की मानसिकता को हिन्दुत्ववादी राजनीति का संरक्षण मिलता रहा है।
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