नए आपराधिक कानून लागू करने की तैयारी, लेकिन इसके घातक नतीजों पर कोई नहीं सोच रहा?

दुर्भाग्यपूर्ण नोटबंदी और कुख्यात कोविड लॉकडाउन की तर्ज पर नए आपराधिक कानून लागू करने की तैयारी है लेकिन उनके संभावित घातक नतीजों पर कोई नहीं सोच रहा।

प्रतीकात्मक तस्वीर
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ए जे प्रबल

जल्दबाजी में कानून बनाना, बाद में पछताना। भारतीय दंड संहिता, अपराध प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम का स्थान  लेने वाली ‘नई न्याय संहिता त्रयी’ पर कानूनी बिरादरी यही चेतावनी दे रही है। संहिता त्रयी 1 जुलाई को लागू हो रही है।

दूरगामी असर वाले ये खतरनाक नए कानून संसद में ऐसे समय लाए गए जब विपक्षी बेंच के 150 से अधिक सदस्य निलंबित थे और अपनी असहमति व्यक्त करने के लिए सदन में मौजूद भी नहीं थे। नए कानूनों पर न तो किसी राज्य सरकार से सलाह ली गई और न उन्हें इसका अध्ययन करने का वक्त दिया गया। 

संसद की स्थायी समिति के समक्ष अपने असहमति नोट में पूर्व केन्द्रीय मंत्री और वकील पी. चिदंबरम ने साफ कहा कि- ‘राज्य सरकारों, बार एसोसिएशन, राज्य और केन्द्रीय पुलिस संगठन, भारतीय पुलिस फाउंडेशन, नेशनल लॉ स्कूल विश्वविद्यालय, रोजमर्रा कानून लागू करने वाले अधीनस्थ न्यायपालिका के न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के प्रतिष्ठित सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, प्रतिष्ठित वरिष्ठ अधिवक्ताओं और कानूनी विशेषज्ञों के बीच विधेयक का प्रारूप ले जाकर उनकी राय जानने तक की जरूरत नहीं समझी गई जबकि यह काम विचार के स्तर पर ही हो जाना चाहिए था। ’ 

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने नए कानूनों को दी गई चुनौतियों को इस आधार पर सुनने से इनकार कर दिया कि इन्हें अभी तक लागू नहीं किया गया है लेकिन प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सरकार को याद जरूर दिलाया कि बुनियादी ढांचे, भौतिक संसाधनों और प्रौद्योगिकी में भारी निवेश, फोरेंसिक विशेषज्ञों और जांच अधिकारियों के सघन प्रशिक्षण के बिना नए कानून लागू नहीं हो सकते हैं। वह उन प्रावधानों का जिक्र कर रहे थे कि सभी आपराधिक मुकदमों की सुनवाई तीन साल के भीतर पूरी कर ली जाएगी और सुरक्षित रखने के 45 दिनों के भीतर फैसला भी दे दिया जाएगा।

विशेषज्ञों, कानूनी विद्वानों और वकीलों ने इस मामले में समय-समय पर सार्वजनिक रूप से जैसी आशंकाएं व्यक्त की हैं, यहां प्रस्तुत हैं:

माफी के साथ दोषारोपण

“नई संहिता के अंतर्गत किसी कथित अपराधी को गिरफ्तार करने, उसे हथकड़ी लगाने और हिरासत में रखने के लिए पुलिस को और ज्यादा ताकत मिल गई है और यह सब न्यूनतम न्यायिक पर्यवेक्षण के साथ, उसके विवेक पर छोड़ दिया गया है।

[…]

कोई भी अदालत या किसी थाने का प्रभारी पुलिस अधिकारी कोई भी दस्तावेज, इलेक्ट्रॉनिक संचार, जिसमें संचार उपकरण भी शामिल हैं और जिनमें डिजिटल साक्ष्य होने की संभावना है, को प्रस्तुत करने का निर्देश दे सकता है। जांच अधिकारी को मुकदमे में शारीरिक रूप से उपस्थित होने से भी छूट दी गई है और उसकी गवाही वीडियोग्राफी द्वारा रिकार्ड की जा सकती है।

न्याय संहिता में सबसे ज्यादा जोर वे सभी चीजें फिर से अपराध की श्रेणी में लाने पर है जिन्हें सुप्रीम कोर्ट अतीत में अपराध की श्रेणी से बाहर कर चुका है। व्यभिचार को स्त्री-पुरुष दोनों लिंगों के लिए आपराधिक बना दिया गया है। राजद्रोह का अपराध हटा दिया गया है लेकिन इसकी जंजीरों से जकड़ी हुई इसकी आत्मा  पूरी तरह मौजूद है। न्याय संहिता की धारा 150 में ‘भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों’ को अपराध की श्रेणी में रखा गया है। इसके तहत अलगाव या सशस्त्र विद्रोह या विध्वंसक गतिविधियों या अलगाववादी गतिविधियों या भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता को खतरे में डालने के मकसद से शब्दों, संकेतों, दृश्य माध्यमों, इलेक्ट्रॉनिक संचार और वित्तीय साधनों के इस्तेमाल को अपराध की श्रेणी में रखा गया है।”

-- संजय हेगड़े, सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ वकील 


पहले से कहीं ज्यादा कठोर

“अगर ब्रिटिश कानून औपनिवेशिक और क्रूर थे, तो इस सरकार द्वारा बनाया गया कानून 10 गुना ज्यादा कठोर है। इससे पहले कोशिश यह की गई थी कि पुलिस हिरासत के दिनों की संख्या घटाई जाए। नया कानून कहता है कि पुलिस हिरासत को 90 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है, यानी यातना 15 दिन नहीं बल्कि 90 दिन तक जारी रहेगी। यह एक अकेला कठोर प्रावधान ही इस पूरे कानून की निंदा करने के लिए पर्याप्त है।

--  कॉलिन गोंजाल्विस, सर्वोच्च न्यायालय के एक नामित वरिष्ठ वकील और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक

‘दो समानांतर आपराधिक न्याय प्रणालियां’ बनाना

अगर ये तीन नए आपराधिक कानून 1 जुलाई को लागू हो गए, तो हमारे सामने भारी कानूनी और न्यायिक गड़बड़ी के हालात  उत्पन्न हो जाएंगे, जीवन और आजादी खतरे में पड़ सकती है...। मौजूदा प्रक्रियात्मक कानून संभवतः अगले 20 साल या उससे अधिक समय तक लागू रहेंगे, जब तक कि नए कानून के तहत मामले दर्ज न हो जाएं, और मजिस्ट्रेट कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक अपने अंजाम तक न पहुंचने लगें। हमारे देश में किसी एक मामले की यह औसत उम्र मानी जाती है... यानी, नए कानूनों के अस्तित्व में आ जाने के बाद, अदालतों के पास लंबित मामलों के साथ-साथ नए मामले निपटाने का काम भी होगा जिन पर नए प्रावधान लागू होंगे, यानी अगले दो से तीन दशकों के लिए ‘दो समानांतर आपराधिक न्याय प्रणालियां’ लागू रहेंगी। वास्तव में, निकट भविष्य में हमारे पास दो समानांतर आपराधिक न्याय प्रणालियां होंगी जो 20 से 30 वर्षों तक चल सकती हैं। मुझे नहीं पता कि भारत सरकार ने लंबित मामलों पर नए आपराधिक कानूनों के प्रभाव पर कोई अध्ययन किया है या नहीं। अगर कोई है तो वह सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है।

--  इंदिरा जयसिंह, पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल


नागरिक फिर प्रजा होंगे

किसी चीज को औपनिवेशिक कानून कहते समय हमें राज्य और नागरिक के बीच संबंधों पर ध्यान भी ध्यान देने की जरूरत है। औपनिवेशिक काल में राज्य के पास नियंत्रण और शक्ति का एक निश्चित तर्क था और आबादी को नियंत्रित करने के लिए आपराधिक कानून का इस्तेमाल होता था। आबादी को नियंत्रित करने वाले आपराधिक कानून की प्रकृति और उनका इस्तेमाल जारी है... इस अर्थ में, बहुत कुछ नहीं बदला है। औपनिवेशिक तर्क भी जारी हैं। हमने इन नए कानूनों में भी औपनिवेशिक तर्क फिर से लागू किए हैं। इसलिए, वि-उपनिवेशीकरण का तर्क खोखला लगता है; आपराधिक कानून के नजरिये से राज्य और नागरिक के बीच संबंधों में कोई बुनियादी बदलाव नहीं होता है...

दया याचिकाओं को प्रतिबंधित करने वाले प्रावधान और मृत्युदंड  के दोषियों की ओर से तीसरे पक्ष को याचिकाएं भरने से रोकने वाले प्रावधान समझ से परे हैं। मृत्युदंड पाए दोषियों के लिए यह अंतिम अवसर होता है कि वह राष्ट्रपति या राज्यपाल से क्षमादान की उनकी याचिका पर विचार करने की उम्मीद कर सके। यह गरीबों के खिलाफ एक अनुचित और भेदभावपूर्ण प्रावधान है... हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली की वास्तविकता से पूरी तरह अलग है। भारत में मौत की सजा किसे है? किसी अमीर को तो नहीं! कोई सुशिक्षित या जागरूक व्यक्ति भी नहीं जो अपने अधिकारों को जानता है। लोग समय पर अपील या दया याचिका दायर नहीं करते, तो इसलिए कि वे अनजान हैं...।

--  प्रो अनूप सुरेंद्रनाथ, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली

कानून पुस्तकालय बेकार हो जाएंगे

मौजूदा प्रचलित तीनों प्रमुख आपराधिक कानून ‘टाइम टेस्टेड’ हैं जिनमें ज्यादा से ज्यादा मामूली बदलाव की जरूरत है। बड़े बदलावों को अपरिहार्य भले माना गया हो, मौजूदा कानूनों में वांछित संशोधनों के जरिए यह काम बखूबी हो सकता था। न्यायाधीश, वकील या शिक्षाविद्- सभी लोग बीते कुछ वर्षों में हमारे मौजूदा कानूनों के अधिकांश प्रावधानों से परिचित हो चुके हैं। अनेक प्रावधान तो उनकी उंगलियों पर हैं। वैसे दंड प्रावधानों में बदलाव जो समय की कसौटी पर खरे साबित हुए हैं, ट्रायल अदालतों में अराजकता नहीं भी, तो भ्रम की स्थिति ला सकते हैं।

[…] वकील समुदाय का एक छोटा सा वर्ग निश्चित तौर पर नए दंड कानूनों को अपने मुवक्किल के मामले में मुकदमेबाजी के लिए सोने की खान के रूप में देख सकता है। लेकिन कानून में बदलाव के परिणामस्वरूप उनमें से अधिकांश का मोहभंग होना भी तय है। एक अन्य वर्ग भी है जो कानून में बदलाव के जरिये ठीकठाक कमाई का रास्ता निकाल लेगा और वह है ‘कानून प्रकाशक’। पूरे देश के कानून पुस्तकालयों में उपलब्ध मौजूदा दंड विधानों पर गंभीर और उपयोगी टिप्पणियां और ग्रंथ बेकार साबित हो जाने को बाध्य होंगे। उन सभी को नई टिप्पणियां और ग्रंथ खरीदने के लिए मजबूर किया जाएगा। पाठ्यपुस्तक लेखकों को भी अपनी टिप्पणियों में शामिल करने के लिए पर्याप्त केस और ‘कानूनी संदर्भ’ के लिए तब तक इंतज़ार करना पड़ेगा जब तक कि नीचे से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक मुकदमेबाजी के कई दौर नहीं हो जाते। 

--  न्यायमूर्ति वी. रामकुमार (सेवानिवृत्त), केरल उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश

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