मृणाल पांडे का लेख: और भी रोग हैं जमाने में कोरोना के सिवा, जरा इस ओर भी नजर-ए इनायत हो सरकार!
पोलियो, खसरा तथा गलघोंटू जैसे रोगों के टीकों का काम जो गांवों-कस्बों तक में आशा दीदियां किया करती थीं वे कोविड की जांच के काम में लगी हैं। इससे गर्भवती महिलाओं और शिशुओं का बड़ा वर्ग नियमित रोग निरोधी दवा की नियमित खुराकों से वंचित है।
लॉकडाउन को महीना भर हुआ। अब इस आशय की बातें सरकारी और सरकार परस्त मीडिया में लगातार सुनने को मिल रही हैं कि भारत सरकार ने कोविड का असर सामयिक कदम उठाकर काफी कम कर दिया। नेतृत्व कह रहा है कि देखो बड़े-बड़े यूरोपीय तथा अमेरिका सरीखे महाबली देशों की तुलना में हमारे यहां चुस्त और कड़े कदम उठाने से न तो रोग उतना फैल सका, न ही उतनी मौतें हुईं हैं जितनी इटली, स्पेन , ब्रिटेन या न्यूयार्क जैसे समृद्ध देशों में। रोज दोपहर-शाम बताया जाता है कि लॉकडाउन से तनिक (?) परेशानी ही सही, लेकिन अधिकतर भारत में यह नामुराद रोग अब उतार पर है। अस्पताल आने वालों की, घातक रूप से संक्रमित लोगों की तादाद कम हो रही है। नीति आयोग ने आंकड़े जारी कर इसकी पुष्टि की है कि किस तरह आयुष्मान भारत के बीमा कवच से सुरक्षित उन गरीब रोगियों की, जो कोविड की वजह से श्वसनतंत्र की गंभीर समस्या से जूझ रहे थे, सरकारी अस्पतालों के सघन चिकित्सा विभागों में आवक लगातार कम हो रही है। यानी सरकार बहादुर के चमत्कारी प्रशासकीय तंत्र और जनता की थाली-ताली पीटकर दीये जलाकर बनाए जीवट से इस रोग की तेजी और दायरे दोनों में कमी देखने में आई है। फिर भूखों को पंगत में बिठाकर खाना बांटते सरकारी-अर्द्धसरकारी अमले की मनोहारी मीडिया छवियां जो हैं सो हईये हैं।
लेकिन आंकड़ों की बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। अभी हाल में नियमित रूप से भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र पर शोध करती और सालाना ब्योरे देती आई संस्था राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) ने 627 जिलों के सरकारी शहरी, अर्द्धशहरी इलाकों के 150,000 अस्पतालों, बुनियादी चिकित्सा केंद्रों और कुछ निजी चिकित्सा संस्थानों की पड़ताल की। इस शोध ने जो पिछले महीने (मार्च, 2020) के ब्योरे सामने रखे हैं वे चिंताजनक हैं। वे दिखा रहे हैं कि मामला परीकथा की तरह किसी सरल-सुखांत की तरफ सीधा जाने वाला नहीं है। हालांकि इस शोध में इस बार 75 अन्य जिलों के तकरीबन 40,000 वे चिकित्सा संस्थान शामिल नहीं किए जा सके जहां लॉकडाउन के कारण जाना मुमकिन न था। फिर भी इसको हम आंशिक भी मानें तो भी यह कुछ गंभीर बातों की तरफ नीति निर्माताओं का ध्यान खींचता है।
पहली बात यह कि इस बीच कोविड से निबटने के लिए लगभग सारे सरकारी अस्पतालों और कई अर्द्धशहरी इलाकों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को भी कोविड रोगियों की जांच, क्वारंटीन वार्डों और गंभीर रूप से बीमार रोगियों को खास उपकरणों की मदद से रोग से बचाने वाले केंद्रों में बदल दिया गया। यह काफी हद तक जरूरी था, और निश्चय ही इससे कई मरीज पूरी तरह स्वस्थ होकर घर लौटे। कई को सही समय पर संक्रमण पकड़ में आ जाने से लाभकारी दवाएं मिल सकीं, और उनका इलाका सील होने से कोविड के पैर उस तेजी से भारत में नहीं फैल पाए जैसे यूरोप या अमेरिका में। लेकिन हम यह नहीं भूल सकते कि सवा अरब से अधिक आबादी वाले इस देश में कई तरह के और भी संक्रामक-सांघाति क रोगाणु हमेशा मौजूद रहते हैं। और इम्यूनिटी कम होने या मौसम बदलने से इनके कारण जनता, खासकर कुपोषित गरीबों में तपेदिक, चिकनगुनिया और कैंसर जैसे रोगों से पीड़ित लोगों की भरमार हो गई है। फिर जीवनशैली और खानपान से उपजे दिल के रोग, मधुमेह और रक्तचाप तो हैं ही।
इनके पीड़ितों को नियमित समय पर विशेष दवाओं से लगातार उपचार की जरूरत होती है। उनके उपचार के क्रम का लंबे समय तक टूटना उनकी मौत की वजह बन सकता है। इधर सारा ध्यान तथा सरकारी आर्थिक मदद चूंकि कोविड का संक्रमण रोकने के उपकरण खरीदने, सामान्य सरकारी अस्पतालों को संक्रामक रोगों के लिए ही आरक्षित करने और ओपीडी बंद करने पर केंद्रित किया जाता रहा, कई अन्य गंभीर रोगियों को भरपूर तकलीफ भोगनी पड़ रही है। अचरज नहीं कि उनमें से कई जो निजी चिकित्सा का भारी खर्चा नहीं उठा सकते मौत का ग्रास बन जाएं।
कोविड की रोकथाम में सबसे बड़ा कारक है जांच। पर सही जांच के लिए सरकारी क्षेत्र में जरूरत के अनुसार, उपकरण भी बहुत कम जगह उपलब्ध हैं, लिहाजा रोगियों को सारे हस्पताल पहले निजी लैब से जांच करवा कर कोविड होने का सर्टिफिकेट लाने को कह रहे हैं। उधर अन्य रोगों के रोगी अगर इलाज को जाएं तो उनको भी कोविड न होने का सर्टिफिकेट दिखलाना पड़ता है। हमारे एक मित्र जो टाइफायड से पीड़ित थे, तकरीबन दो हफ्ते बाद ही यह सर्टिफिकेट पाकर इलाज शुरू करवा सके। ऐसे कई अन्य मामले भी हैं। ऐसे में लैब्स की बन आई है। सरकारी ताकीद के बावजूद वे एक जांच के लिए 4,500 से 5000 रुपए तक ले रही हैं। इसलिए कई मामलों में लोग जब तक स्थिति बेहाल न हो जाए तब तक रोग का मामूली घरेलू दवाओं से उपचार कराते रहते हैं। चूंकि वे सरकारी बहियों में दर्ज नहीं हैं, इसलिए यह मान लेना कि रोगी कम हो रहे हैं, बहुत तर्कसंगत नहीं होगा। हम सब जानते हैं कि शहरी और ग्रामीण सब जगह मधुमेह का रोग बहुत व्यापक हो गया है। इसके रोगियों को बाद में कई तरह के रोगों से भी जूझना पड़ता है। नियमित जांच और उसके अनुसार उनकी दवा की मात्रा में रद्दोबदल जरूरी है। उनमें से कई जो लॉकडाउन वाले इलाकों में रहते हैं जीवन रक्षक दवाओं की किल्लत से जूझ रहे हैं। जो डायलिसिस पर हैं उनकी हालत भी गंभीर हो रही है।
एक और वर्ग है, गर्भवती महिलाओं और बच्चों का जिनको नियमित तौर से अनीमिया रोग निरोधी टीके लगवाना जरूरी हैं। पोलियो, खसरा तथा गलघोंटू जैसे रोगों के टीकों का काम जो गांवों-कस्बों तक में आशा दीदियां किया करती थीं वे कोविड की जांच के काम में लगी हैं। इससे गर्भवती महिलाओं और शिशुओं का बड़ा वर्ग नियमित रोग निरोधी दवा की नियमित खुराकों से वंचित है। इसके गंभीर दुष्परिणाम बाद में सामने आएंगे जब हम पोलियो, तपेदिक और खसरा जैसे खतरनाक रोगों के बीमारों की तादाद में उछाल देख सकते हैं। गरीबों के लिए हितकारी यह काम चूंकि सरकारी हस्पताल सबसे बड़े पैमाने पर करते रहे हैं, अब तक इन रोगों से हमारे बच्चे लगभग मुक्त हो चले थे। इस स्थिति का पलट जाना भारी मेहनत पर पानी फेर देगा। एनएचएम की रिपोर्ट ने एक और ब्योरा दिया है। चूंकि अधिकतर राज्यों में जचगियां इधर घर की बजाय सरकारी हस्पतालों में होने लगी थीं, माताओं और नवजात शिशुओं की मृत्युदर में सराहनीय कमी आ गई थी। इधर अस्पतालों की बजाय अधिकतर गरीबों की जचगियां घरों में ही होने लगी हैं। संक्रामक रोग निरोधी केंद्र बन जाने से वे अस्पतालों में पहले की तरह भर्ती नहीं की जा रहीं। इसीलिए कई रिपोर्ट्स इधर आईं हैं कि किस तरह एक गर्भवती महिला को एक से दूसरे अस्पताल भेजने के बीच रास्ते में ही प्रसव हो गया या नवजात की मौत हो गई।
इसी तरह एनएचएम की रिपोर्ट में दिखती एचआईवी-एड्स, टीबी या कैंसर जैसे गंभीर रोगों के मरीजों की हस्पताली पंजीकरण में कमी भी पीड़ितों की तादाद में कमी आ जाने का नहीं, उनकी अस्पतालों या औपचारिक चिकित्सा केंद्रों तक कम होती जा रही पहुंच का प्रमाण है। कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि सरकारें कोविड के खिलाफ जंग भले जारी रखें, लेकिन उनको अन्य संक्रामक रोगों और उनके पीड़ितों के नियमित उपचार के लिए भी स्वास्थ्य सेवाओं का एक हिस्सा अनिवार्य रूप से खुला रखना चाहिए, वरना भविष्य में सारे देश के लिए, खासकर आने वाली पीड़ी के लिए इसके गंभीर दुष्परिणाम निकल सकते हैं। यह याद रखने लायक है कि सभी रोग विशेषज्ञों की राय में कोविड अंतिम महामारी नहीं। इससे पहले भी वैश्विक महामारियां आ चुकी हैं। आने वाले समय में हमको अपने स्वास्थ्य कल्याण क्षेत्र में इस युद्ध के दौरान उजागर हो रही कमियों को दूर करना होगा, जिसके लिए बेहतर बजट आवंटन, विशेष उपकरणों के उत्पादन और पिछले विषाणुओं के खिलाफ विकसित कर लिए गए टीकों की व्यवस्था पहले से करना जरूरी है। बीते सात दशकों में देश ने पोलियो, कालाजार, हैजा, प्लेग और टेटनेस जैसे जानलेवा रोगों, महामारियों पर बड़ी हद तक काबू पाया है। लेकिन यह समय यूरोप, अमेरिका की दुर्गति दिखाकर अपनी पीठ थपथपाने का नहीं। यह एक लंबी लड़ाई है जिसका कोई भी चरण अगर छुट्टा रहने दिया गया तो ये रोग जाते-जाते भी पलटवार कर सकते हैं। ईमान से कहिए, क्या कोई भी भारतीय इस बात पर गर्व महसूस कर सकता है कि हमारे यहां तीन लाख लोग तो कोविड से मरने से बचा लिए जाएं, और उधर सही समय पर सही उपचार न मिलने से हमारे बारह लाख नागरिक अन्य रोगों से दम तोड़ दें?
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