जनसंख्या विस्फोट पर पीएम की चिंता वाजिब, लेकिन थोड़ी बात मॉब लिंचिंग पर भी होनी चाहिए

आबादी नियंत्रण के सकारात्मक परिवर्तन से मुस्लिम आबादी भी अछूती नहीं है। हर बहस में अशिक्षा, अज्ञानता, पोलियो खुराक से लेकर बच्चे पैदा करने के ‘आदिकाल’ से चले आ रहे डिस्कोर्स को अब इसलिए बदल देना चाहिए कि यह उस जमात के लिए भी अब बीते दिनों की बात हो रही है।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

जनसंख्या की चिंता वाजिब है प्रधानमंत्री जी। यह बहुत जरूरी सवाल है, जिस पर सबको मिलकर सोचना चाहिए। लेकिन कुछ और बातें भी हैं, जिनकी इससे पहले चिंता कर लेनी चाहिए। हमें थोड़ी चिंता 'भीड़ हत्या' (मॉब लिंचिंग) की भी कर लेनी चाहिए। यह बहुत जरूरी है। आप सोच रहे होंगे कि हम कहां से ये मुद्दा उठा लाए फिर से! लेकिन हम इसे फिर से नहीं उठा लाए हैं। यह इस तरह हमारे जेहन पर छाया कि कभी उतरा ही नहीं। शायद उतरना था भी नहीं, क्योंकि इसे तो कभी ठीक तरीके से संबोधित ही नहीं किया गया। संयोग ही था कि उस दिन आप जब लालकिले से हमें यानी राष्ट्र को संबोधित कर रहे थे, उसी के आसपास यह मुद्दा पहलू खान मामले में निचली अदालत के फैसले के रूप में फिर हमें मुंह चिढ़ा रहा था।

सच कहें तो यह एक ऐसी समस्या है, और इससे इतना कुछ जुड़ा है कि इस पर काबू पाने, इसके तरीकों और इसके लिए दिखने वाली इच्छाशक्ति से ही बहुत कुछ साफ हो जाएगा, शायद नियंत्रित भी। यकीन मानिए, सोच, इच्छा और इरादे से निकलने वाली ऐसी हवाओं को सही दिशा मिले तो यह जनसहभागिता से प्रभावित होने वाले तमाम जरूरी मामलों में कारगर होंगी। यह बड़ा अजीब सा तर्क लग रहा है न! पहले मुझे भी लगा। लेकिन यह एक ‘सस्ता, टिकाऊ और समझदारी भरा’ रास्ता है। विवेक खोते जा रहे समाज के एक बड़े हिस्से के विवेक को पटरी पर वापस लाने का रास्ता। यकीन मानिए, यह बहुत जरूरी है।

बहुत जरूरी है देशभक्ति में बच्चे कम पैदा करने से पहले हमारे जेहन में मौजूदा 'बच्चों' की रक्षा करने का जज्बा पैदा करना। ऐसा संदेश देना जो दूर तक असर कर सके। ठीक वैसे ही जैसे अभी सब गाहे-बगाहे बज उठी किसी भी धुन पर अचानक ‘नाचने’ लगते हैं। वह धुन और उसका पेस वे अपनी सुविधा से तय करते हैं। ज्यादातर फैसले जल्दबाजी और ‘भीड़ मानसिकता’ में लिए जाते हैं, सो अक्सर नतीजे भी वैसे ही होते हैं। इसी से बचने-बचाने के लिए ज्यादा से ज्यादा जागरूकता की दरकार है और जिसे आम जनता से पहले उन ‘समूहों’ तक पहुंचाना ज्यादा जरूरी है, जो ऐसे और तमाम अन्य संवेदनशील मामलों में ‘वैचारिकी’ और ‘मानस’ बनाने-बिगाड़ने की हैसियत रखते हैं। बिना इसके किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति आसान तो नहीं ही है, भटकाव के खतरे ज्यादा हैं।

उस दिन आप जब लालकिले के प्राचीर से हमें संबोधित कर रहे थे, बहुत अच्छा लग रहा था। आपने पानी, पन्नी (पॉलिथिन) और पर्यटन जैसी जरूरी बातें कीं। तमाम और बातें भी थीं। लेकिन हमें बहुत अच्छा लगा जब आपने जनसंख्या विस्फ़ोट की बात की। यह ऐसे जमीनी सवाल हैं, जिनसे कोई कैसे मतभेद जता सकता है। इनकार या विरोध तो दूर की बात है। ये तो हमारे जीवन, हमारे विकास की पहली और मूलभूत कुछ शर्तों में से हैं। अब तक न भी रहा हो, तो इन्हें मूलभूत शर्तों में शामिल करने से किसी को झिझक क्यों हो? अब इन बातों में मंहगाई, बेरोजगारी, सस्ती शिक्षा और सस्ती चिकित्सा की बात नहीं भी हो तो न सही! पहले वालों ने भी कहां कभी इन ‘गैरजरूरी’ बातों के बारे में ज्यादा सोचा-कहा या कुछ किया!


खैर, छोड़िए ये सब। जनसंख्या विस्फोट की ही बात करते हैं। अब आप ही बताइए, यह सपना कैसे पूरा होगा या शक की सुई क्यों नहीं उठेगी या कि लोग सवाल नहीं करेंगे जब टीवी चैनल पर इसी मुद्दे पर चल रही एक अच्छी भली और सकारात्मक मोड़ पर खड़ी हो रही (हालांकि चैनलों के लिए अब यह दूर की बात हो चुकी है) बहस के बीच अचानक आपके ही एक ‘प्रवक्ता’ बताने लगें कि किस तरह मुस्लिम आबादी बढ़ने का अनुपात हिन्दू आबादी अनुपात से कहीं ज्यादा रहा है और वे सीधी बात कर रहे वक्ताओं को भी मजबूर कर बैठें कि वे भी हिन्दू-मुस्लिम करने लगें!

हंसी तब आती है जब ये गुणीजन भारत की आबादी के बरअक्स किसी और कितने ही देशों की आबादी को रखने लगते हैं और भूल जाते हैं कि जिस या जिन देशों को भारत के बरअक्स रख रहे हैं वह तो महज उत्तर भारत के एक या दो राज्यों के बराबर हैं, आबादी के मामले में। वे भूल जाते हैं कि आबादी के मामले में यह चीन को पछाड़ने की कगार पर भले पहुंच गया हो, लेकिन तथ्य है कि आबादी नियंत्रण के मामले में एक सकारात्मक परिवर्तन भी बीते कुछ वर्षों में देश के हर हिस्से से दिखा है, जो निश्चित तौर पर समय के साथ बदली समझदारी और सामाजिक चेतना का प्रतिफल है, जिसका स्वागत होना चाहिए।

कहना न होगा कि बहस तलब मुस्लिम आबादी भी इस परिवर्तन से अछूती नहीं है और हर बहस में अशिक्षा और अज्ञानता के साथ पोलियो खुराक से लेकर बच्चे पैदा करने के ‘आदिकाल’ से चले आ रहे डिस्कोर्स को अब इसलिए भी बदल दिया जाना चाहिए कि यह उस जमात के लिए भी अब बीते दिनों की बात हो रही है। कि थोक में संतान के मामले हिंदू समाजों में भी हैं और यह भी कि हर समाज अब इसके अभिशाप से बखूबी वाकिफ ही नहीं, पर्याप्त सचेत भी है। समाजिक-आर्थिक हालात ने उसे बहुत पहले सतर्क कर दिया था, जिसे अब सकारात्मक विमर्श के साथ सार्थक दिशा देने का वक्त है।

सच तो यह है कि जिस देश में आजादी के आसपास ही जनसंख्या नियंत्रण के सरकारी अभियान की नींव (1951-52) पड़ चुकी थी, उस देश में इस अभियान के आगे न बढ़ पाने के कारणों पर तफसील से विचार की जरूरत है। जरूरत है कि इसके पीछे रही गरीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी आधारभूत दिक्कतों पर विचार हो। अपने ही देश के उन हालात की पड़ताल हो, जो सारे नियम-कानून समान होने के बावजूद जनसंख्या नियंत्रण के मामले में दक्षिण-उत्तर के बीच बहुत बड़ा अंतर दिखाते रहे हैं। इसे दक्षिण-उत्तर की चेतना और समाजिक ताने-बाने के अंतर को समाजशास्त्रीय विश्लेषण के साथ समझने-समझाने की जरूरत है। सतर्क रहने की भी जरूरत है कि इसे हिन्दू-मुस्लिम जैसे खांचों से नापते हुए कहीं कोई और रंग न दे दिया जाए।


वैसे भी, ऐसे समय जब तीन तलाक और 370 निपटाए जा चुके हों, मंदिर भी लगभग हाथ में आया दिख रहा हो, तो ‘जनसंख्या विस्फोट’ अचानक खाली दिखने लगी उपजाऊ जमीन पर नई और देर तक लहलहाने वाली बारह मासी फसल उगाने जैसा है। ऐसे में जब आपके ही लोग इसमें ‘अपने-अपने तरह’ का खाद-पानी देने लगेंगे तो खतरे स्वाभाविक हैं। ऐसा बार-बार हुआ है। हर उस मुद्दे पर जहां आप सकारात्मक दिखने के साथ सबको साथ लेकर, सबका विकास जैसी कम से कम बातें तो करते दिखते ही हैं। संभव है, वाकई करना भी चाहते हों। फिलहाल तो सबसे पहले इसी प्रवृत्ति पर काबू की जरूरत है।

एक बात और। इस वक्त आप जिस भूमिका और जिस हैसियत में हैं, उसमें आप कुछ भी कर सकते हैं। आपको बड़ा, सही अर्थों में अभूतपूर्व टाइप का समर्थन हासिल है। जनता आपकी आवाज से प्रभावित होती है। आपकी हर धुन पर मुग्ध हो जिस तरह नाचने लगती है, उसका लाभ उठाया जाना चाहिए। तीन तलाक, 370 पर वह मुग्ध है और मंदिर पर आश्वस्त। ऐसे में लालकिले से अपील के व्यापक अर्थ हैं, व्यापक असर भी। जरूरी था कि इस अपील में ऐसी-वैसी ‘मॉब थिंकिंग’ पर भी चोट होती। आखिर तो यह भी हमारी आबादी से ही जुड़ा और बड़ा सवाल है। आबादी की रक्षा का सवाल। क्योंकि‘मॉब थिंकिंग’ किसी भी मामले में सही नहीं हो सकती।

(नवजीवन के लिए नागेंद्र का लेख)

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