PM-JAY की शुरुआत तो सही, लेकिन व्यापक समीक्षा कर दुरुस्त करने होंगे कील-कांटे

प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के अगले चरण का जरूरी काम यह है कि इसकी अच्छाइयों को बढ़ाया और कमियों को घटाया जाए।

दिल्ली स्थित एम्स ओपीडी का दृश्य
दिल्ली स्थित एम्स ओपीडी का दृश्य

2018 में प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) शुरु की गई थी। तब से पांच साल से ज्यादा समय बीत चुका है। इस दौरान, इस योजना के तहत 27 करोड़ से ज्यादा बीमा कार्ड जारी किए गए और तकरीबन 27 हजार सूचीबद्ध अस्पतालों में 12,250 रुपए के औसत भुगतान के साथ 5.75 करोड़ दाखिले के पैसे जारी किए गए। निश्चित रूप से यह एक बेहतरीन उपलब्धि है और इसका जश्न मनाया जाना चाहिए।

हालांकि कोई भी कार्यक्रम या योजना- चाहे कितनी भी अच्छी तरह सोच-समझकर अमल में लाई गई हों, उसमें अच्छाई और बुराई- दोनों होती हैं। गुण-दोष की समीक्षा की दृष्टि से पांच साल एक अच्छा समय होता है जिससे योजना की अच्छाई को और बढ़ाया जा सके और उसकी कमियों को दुरुस्त किया जा सके। 

सूचीबद्ध 27,000 अस्पतालों और लगभग 20,000 सक्रिय अस्पतालों में से 15,000 सार्वजनिक क्षेत्र के हैं। हालांकि इसकी अभी तक औपचारिक तौर पर समीक्षा नहीं कि गई है, लेकिन जो स्थिति सामने आ रही है, उसके मुताबिक इन सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पतालों का प्रदर्शन उन अस्पतालों से बेहतर है जो योजना का हिस्सा नहीं हैं।

न केवल भारत, बल्कि दुनियाभर के सार्वजनिक क्षेत्र की एक बड़ी चुनौती इसकी गैर-प्रतिक्रियाशीलता है। 1980 के दशक से ब्रिटेन से लेकर थाईलैंड, तुर्की और हाल ही में वियतनाम सहित दुनिया भर की तमाम सरकारों ने उपलब्धि के आधार पर सार्वजनिक क्षेत्र को पैसे देने की रणनीति पर चलने का रास्ता चुना। उन्होंने धीरे-धीरे वार्षिक व्यय बजट के आधार पर वित्तपोषण से किनारा कर लिया है।

इस बदलाव ने उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के प्रदर्शन में सुधार का मौका दिया और यह हैरानी की बात नहीं है कि भारत में भी कुछ ऐसा ही देखा जा रहा है जब पीएमजेएवाई के तहत परिणामों के आधार पर सरकारी अस्पतालों को भुगतान किया जाता है। इस नीति को अगर धीरे-धीरे प्राथमिक देखभाल समेत अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों में भी लागू किया जाए और उनमें भी प्रदर्शन के आधार पर पैसे दिए जाएं तो इसके और भी बेहतर फायदे हो सकते हैं।

अपनी फंडिंग सीमाओं को देखते हुए पीएमजेएवाई अब तक देश के किसी भी हिस्से में पूरी स्वास्थ्य प्रणाली के वित्तपोषण की ओर नहीं बढ़ी है लेकिन पैकेज के आधार पर अस्पतालों को भुगतान करने की दिशा में इसके कदम ने निश्चित ही लाभकारी प्रभाव दिखाया है। उदाहरण के लिए, किसी अस्पताल में सफल सर्जरी के बाद रहने की अवधि बढ़ाना अक्सर अस्पतालों में खराब संक्रमण नियंत्रण के कारण होता है। जब पैकेज तय होता है तो अस्पतालों का इस ओर खास ध्यान होता है ताकि मरीजों को जल्दी से छुट्टी दी जा सके।


पीएमजेएवाई द्वारा दी जाने वाली कम पैकेज दरों की काफी आलोचना हुई है। हालांकि दुनिया के ऐसे अनुभव हैं जो बताते हैं कि केवल इसलिए कि पैकेज दरें कम हैं, यह नहीं मानना चाहिए कि गुणवत्ता भी कम होगी। अस्पताल और पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था नवाचार करके, लागत कम करके, अनावश्यक तामझाम छोड़कर और उच्च गुणवत्ता बनाए रखकर मूल्य नियंत्रित करने के बाद भी निर्धारण का जवाब दे सकती हैं।

जापान ने निश्चित मूल्य व्यवस्था को अपनाया तो स्विट्जरलैंड ने अपना व्यापक स्वास्थ्य देखभाल कानून बनाया और जर्मनी ने सख्त मूल्य नियंत्रण स्थापित किया। तब डर था कि उनकी स्वास्थ्य प्रणालियां इनको झेल नहीं पाएंगी। लेकिन यह डर निराधार साबित हुआ। तोलमोल की रणनीति के रूप में पीएमजेएवाई द्वारा अपनाई गई नीति बेहतरीन रही- सबसे निचले बिंदु से शुरू करें और फिर वास्तविक अनुभव (न कि लॉबिंग) के आधार पर कुछ की दरों को संशोधित करें। यदि इस योजना में उच्च पैकेज दरों के साथ शुरुआत की गई होती, तो इन दरों में किसी तरह की कमी असंभव होती। 

हालांकि योजना के पैनल में कई अस्पताल हैं लेकिन इनमें 25% से ज्यादा निष्क्रिय हैं और यह संख्या देश भर में अलग-अलग है। कर्नाटक में प्रति करोड़ जनसंख्या पर 500 से अधिक सक्रिय अस्पताल हैं तो बिहार में प्रति करोड़ पर केवल 60 हैं। प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में, इस योजना के तहत अस्पताल में भर्ती मुख्य रूप से दक्षिणी राज्यों- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में केन्द्रित है और केरल में प्रति लाख जनसंख्या पर लगभग 16,000 भर्ती से लेकर बिहार के मामले में यह आंकड़ा एक लाख की आबादी के लिए केवल 600 ही है।

उत्तर प्रदेश का मामला विशेष रूप से उल्लेखनीय है- प्रति लाख आबादी पर 18,500 से अधिक कार्डों पर इसने केरल के 21,500 के लगभग बराबर कार्ड जारी किए हैं। हालांकि केरल की 16,000 की तुलना में यहां प्रति लाख आबादी पर अस्पताल में भर्ती होने वालों का औसत 1,200 है।

बेहतरी की गुंजाइश

यह विशाल अंतर कम आय वाले राज्यों में अस्पतालों की उपलब्धता की कमी को दर्शाता है। इसे इस तथ्य से भी जोड़कर देखा जा सकता है कि उत्तर और उत्तर-पूर्व के 200 से ज्यादा जिलों में कुल सी-सेक्शन (ऑपरेशन से बच्चे का जन्म) दरें 10% से काफी कम हैं और इन इलाकों में गर्भवती महिलाएं और उनके नवजात शिशु बड़ी संख्या में मर रहे हैं।

इस समस्या को संबोधित करने के लिए इन जिलों में ज्यादा सरकारी अस्पताल बनाने और उनमें जरूरी मानव संसाधन की व्यवस्था करने की जरूरत है। इसके साथ ही जहां उपयुक्त हो, इन दूरदराज के क्षेत्रों में इस तरह की सुविधाएं स्थापित करने के लिए निजी क्षेत्र को भी प्रोत्साहन करना होगा।

नागरिक उड्डयन मंत्रालय की ‘उड़ान’ (उड़े देश का आम नागरिक) योजना जिसने निजी एयरलाइनों के मामले में कुछ ऐसा ही रणनीति अपनाई, एक बेहतरीन मॉडल के तौर पर देखी जा सकती है। अभी हाल ही में जिस तरह अत्यधिक सफल एडवांस्ड मार्केट कमिटमेंट (एएमसी) योजना के तहत भारतीय निजी क्षेत्र में वैक्सीन तैयार करने को बढ़ावा दिया गया, वह भी मददगार सबक देता है। 

हालांकि पीएमजेएवाई के भीतर पैकेज दरों की दिशा में उठाया गया कदम एक उपलब्धि रही है, फिर भी यह सेवा के लिए शुल्क भुगतान मॉडल के दायरे में ही आता है।


इस तरह से वित्तपोषित बीमा योजनाओं के अपने खतरे होते हैं, जैसा कि अमेरिका ने बहुत बाद में ही सही पीएमजेएवाई, मेडिकेड और मेडिकेयर के अपने संस्करणों के मामले में पाया कि इससे स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर मूल्य मुद्रास्फीति आती है। इसे संबोधित करने का एकमात्र टिकाऊ तरीका पर्याप्त धन के साथ, जनसंख्या मानदंडों के आधार पर पूरी स्वास्थ्य प्रणाली के वित्तपोषण की ओर बढ़ना है, जैसा कि थाईलैंड ने सार्वजनिक क्षेत्र के साथ और इजरायल ने निजी क्षेत्र के साथ मिलकर किया है।

शोध से पता चलता है कि दिल्ली, गोवा, केरल और हिमाचल प्रदेश सहित कई भारतीय राज्यों में मौजूदा सरकारी व्यय सभी आवश्यक स्वास्थ्य देखभाल के वित्तपोषण के लिए पर्याप्त है। अगर इन राज्यों में स्वतंत्र राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरणों को पूरे राज्य स्वास्थ्य बजट का प्रभार दिया जाए, तो उनके पास जिला-स्तरीय कुल स्वास्थ्य प्रणाली वित्तपोषण रणनीतियों को लागू करने और समग्र जिला और राज्य-स्तरीय स्वास्थ्य परिणामों की जिम्मेदारी लेने के लिए पर्याप्त धन होगा।

केंद्र और राज्य, दोनों स्तरों पर पीएमजेएवाई जैसी स्वास्थ्य के लिए कर-वित्तपोषित योजनाओं का स्थायित्व स्वास्थ्य देखभाल के वित्तपोषण के प्रति इस तरह के दृष्टिकोण की निरंतर राजनीतिक और सामूहिक अपील को दर्शाता है। समय के साथ, राष्ट्रीय और राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरण जैसी स्थिर संरचनाएं, जो अब इन योजनाओं को चलाती हैं, विकसित हुई हैं। इन योजनाओं ने इस क्षमता का भी सफलतापूर्वक निर्माण किया है जिससे उन्हें भ्रष्टाचार घोटालों में उलझे बिना निजी क्षेत्र से सेवाएं खरीदने की इजाजत मिलती है।

भारत में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में यह स्थायित्व, स्थिरता और आगे बढ़ने की क्षमता दुर्लभ है। इसने भारत में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में अगले बड़े कदम के लिए मंच तैयार कर दिया है- राज्य स्वास्थ्य बजट का उनके राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरणों को पूर्ण हस्तांतरण जो परिभाषित परिणामों के आधार पर सार्वजनिक क्षेत्र और जहां आवश्यक हो, निजी क्षेत्र को भुगतान कर सके और सार्वजनिक क्षेत्र के स्वचालित-बजट-आधारित वित्तपोषण को पूरी तरह खत्म कर सके। 

इसी के साथ यह ‘उड़ान’ और ‘एएमसी’ जैसी योजनाएं तैयार करने और लॉन्च करने का भी समय है जो भारत के दूरदराज के इलाकों में अस्पताल देखभाल की उपलब्धता में कमी को पूरा कर सकेगा। भारत में कर-वित्तपोषित बीमा योजनाओं के साथ दो दशकों से अधिक के अनुभव ने संकेत दिया है कि अस्पताल क्षेत्र से मजबूत आपूर्ति प्रतिक्रिया के लिहाज से बीमा योजनाएं जरूरी तो हैं लेकिन इतना ही काफी नहीं। 

(डॉ. नचिकेत मोर चेन्नई के द बैनियन एकेडमी ऑफ लीडरशिप इन मेंटल हेल्थ में विजिटिंग साइंटिस्ट हैं। डॉ. शुचिन बजाज उजाला सिग्नस के संस्थापक हैं जो कम लागत वाले अस्पतालों की एक श्रृंखला है। सिंडिकेट, द बिलियन प्रेस )

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