पीएम ने फिर छेड़ा 'अर्बन नक्सल' का राग: एनजीओ और सिविल सोसाइटी के खिलाफ मोदी के अनवरत युद्ध का दांव
राजनीतिक दलों और यहां तक कि निजी क्षेत्र के लिए विदेशों से फंडिंग, यहां तक कि गुमनाम चंदा हासिल करने पर कोई रोकटोक नहीं, लेकिन गैर सरकारी संगठनों पर बेशुमार बंदिशें। आखिर क्यों?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार, 22 सितंबर को कहा कि, ‘पर्यावरण रक्षा और चिंता के नाम पर अर्बन नक्सल कई इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को रोक रहे हैं।‘ उन्होंने ऐसे ही एक प्रोजेक्ट के विरोध की याद दिलाते हुए कहा, कि इन्हीं अर्बन नकस्ल ने 1980 के दशक के मध्य में सरदार सरोवर बांध के निर्माण का भी प्रतिरोध किया था। सिविल सोसायटी के जागरुक सदस्यों को प्रधानमंत्री अकसर निशाना बनाते हैं, संभवत: वे इन्हें दुश्मन मानते हैं।
याद दिला दें कि 21 फरवरी 2016 को उन्होंने भुवनेश्वर में हुई एक रैली में कहा था कि वे “एनजीओ की साजिश” के निशाने पर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि साजिश उन्हें ‘खत्म’ करने और सरकार से हटाने की है। इसके कथित सबूत के तौर पर उन्होंने कहा था, “आपने देखा होगा कि सुबह से रात तक, मुझ पर हमले होते हैं। कुछ लोग इसी में लगे रहते हैं।”
उन्होंने आगे कहा था, सिविल सोसायटी के लोग “मुझसे इसलिए नाराज हैं क्योंकि मैंने कुछ एनजीओ से उनके विदेशी चंदे का हिसाब मांगा था कि वे इस पैसे को कहां खर्च करते हैं।” वे गिरोह बनाकर इकट्ठा हो गए और “बीट मोदी, बीट मोदी के नारे लगाने लगे कि अरे यह तो हमारे खर्च का हिसाब मांग रहा है।” उन्होंने कहा था, “वे सुबह से रात तक साजिश रचते रहते हैं कि कैसे मोदी को खत्म किया जाए, कैसे उसकी सरकार को गिराया जाए, कैसे उसे शर्मिंदा किया जाए? लेकिन मित्रों, आपने मुझे वोट दिया है कि मैं देश को इस बीमार से छुटकारा दिलाऊं...”
अब लगभग साफ है कि मोदी काफी हद तक अपने इस लक्ष्य में कामयाब हो चुके हैं। दिसंबर 2019 में संसद में सरकार ने बताया कि जब से मोदी सत्ता में आए हैं, देश के 14,500 एनजीओ के विदेशी चंदा लेने पर रोक लगाई गई है। विदेशी फंडिंग में 90 फीसदी कमी आई है और 2018 के 2.2 अरब डॉलर से गिरकर यह 2019 में 295 मिलियन डॉलर पर आ गई है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इस वित्तीय मदद को रोकने से कितने भारतीयों की जिंदगी पर असर पड़ा है, न सिर्फ एनजीओ में काम करने वाले कर्मचारियों, बल्कि उनकी जिंदगी भी प्रभावित हुई है जिनके लिए और जिनके साथ एनजीओ काम करते थे।
गैर सरकारी संगठनों या एनजीओ पर मोदी का हमला कई तरह की जोर-जबरदस्ती वाली कार्रवाई और आपराधिक कानून के इस्तेमाल से सामने आया है। खासतौर से विदेशी चंदा (विनियमन) कानून यानी एफसीआरए कानून में बदलाव के माध्यम से। विदेशी चंदा (विनियमन) अधिनियम 1976 को इस नजरिए से बनाया गया था कि इससे भारत की चुनावी प्रक्रिया और लोकतंत्र में बाहरी दखल या प्रभाव को रोका जा सके। इसके तहत राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों, पत्रकारों, समाचार प्रकाशकों, जजों, नौकरशाहों और संसद सदस्यों के विदेशी चंदा लेने पर रोक लगाई गई थी।
समय के साथ आए आर्थिक उदारवाद का अर्थ यह हुआ कि इनमें से कई श्रेणी के लोगों या संस्थाओं को विदेशी चंदा लेने की छूट मिल गई और भारत सरकार ने भी एक तरह से ऐसे पैसे को लाने को प्रोत्साहित किया। इसके लिए विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का रास्ता चुना गया और इसका न सिर्फ स्वागत हुआ बल्कि भारत सरकार इसके आंकड़े बहुत गर्व के साथ बताती भी है।
मिसाल के तौर पर देखें तो प्रिंट और टेलीविजन दोनों मीडिया, और निस्संदेह ऑनलाइन मीडिया के लिए भी जो कि सबसे प्रभावशाली मीडिया के तौर पर उभरी है, ऐसा नियम है कि ये न सिर्फ विदेशी निवेश ले सकते हैं, बल्कि इससे प्रभावित भी हो सकते हैं। हाल के दिनों में सबसे बड़ी मीडिया कंपनियां फेसबुक और गूगल रही हैं। ये दोनों कंपनियां पूरी तरह विदेशी मिल्कियत वाली है और इनका प्रबंधन भी विदेशी है। अखबारों को विदेशी विदेशी फर्मों से निवेश लेने की छूट है और ऐसी ही छूट न्यूज चैनलों को भी है।
यहां तक कि राजनीतिक दलों ने भी खुद को एफसीआरए की बंदिशों से अलग कर लिया है। जनवरी 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में दावा किया गया कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने एक ही कंपनी से चंदा लिया है। इस कंपनी का नाम है वेदांता-स्टरलाइट। ऐसा करना एफसीआरए कानून का उल्लंघन है। 28 मार्च 2014 को कोर्ट ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों को एफसीआरए कानून के उल्लंघन का दोषी माना और उसी साल मई में मोदी सरकार और चुनाव आयोग से कहा कि इन दोनों पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई की जाए। जुलाई और अगस्त में दोनों ही दलों ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की।
लेकिन इससे हुआ यह कि 2016 के बजट में विदेशी स्त्रोतों से हासिल चंदे की परिभाषा बदल दी गई और राजनीतिक दलों को मिलने वाले विदेशी चंदे को कानूनी जामा पहना दिया गया। दुर्भाग्य से नया बदलाव बहुत ही भौंडे तरीके से किया गया और मोदी सरकार ने कानून के गलत संस्करण को लिख दिया। इसके बाद इसमें एक और संशोधन किया गया जिसे 2018 में पास कर दिया गया और राजनीतिक दलों को इससे छूट मिल गई। आखिरकरा मार्च 2018 में एक निरस्त कानून में बदलाव किया गया जो कि थोड़ा अटपटा था।
इस बदलाव के बाद और फिर इलेक्टोरल बॉन्ड योजना जरिए, बीजेपी और अन्य दलों को बिना नाम घोषित किए विदेशी स्त्रोतों से असीमित चंदा लेने की छूट दे दी गई। लेकिन जिन संस्थाओं पर पाबंदी बनी रही, वह है गैर राजनीतिक संगठन यानी एनजीओ। और मोदी शासन में इन पर सरकारी शिकंजा भी लगातार कसता रहा और एफसीआरए के तहत उनकी वित्तीय मदद पर एक तरह का अंकुश लगा दिया गया।
कृषि कानूनों (जिनके खिलाफ अभी भी प्रतिरोध जारी है) के साथ ही मोदी सरकार ने पिछले साल एक ऐसा कानून भी पास किया जिसके प्रावधानों के तहतएनजीओ को विदेशी पैसा मिलने के नियम और सख्त हो गए।
मुख्यत: चार बदलाव किए गए: पहला यह कि ऐसे 23,000 एनजीओ जिनके पास विदेशी पैसा हासिल करने के लिए एफसीआरए लाइसेंस था, वे सिर्फ नई दिल्ली में संसद मार्ग स्थित स्टेट बैंक की शाखा में ही खाता खोलकर इस पैसे को हासिल कर सकते थे।
दूसरा बदलाव यह हुआ कि इन पैसों का सिर्फ 20 फीसदी ही एनजीओ अपने प्रशासनिक खर्च के तौर पर इस्तेमाल कर सकते थे। यानी वेतन, ट्रैवल यानी यात्राएं, किराया और इसी तरह के अन्य मद हैं जिन पर एनजीओ का काफी पैसा खर्च होता रहा है, लेकिन अब इन सारे मदों में सिर्फ 20 फीसदी पैसा ही खर्च हो सकता है।
कानून अब एनजीओ को उन्हें हासिल पैसे को पुन: वितरण से भी रोकता है यानी अगर एक एनजीओ दूसरे एनजीओ को मदद के तौर पर पैसा देना चाहे तो नहीं दे सकता, भले ही ऐसा करना एफसीआरए के तहत ही क्यों न हो। इससे एनजीओ सेक्टर को भी आघात पहुंचा क्योंकि आमतौर पर एनजीओ एक दूसरे से बाकी कार्पोरेट सेक्टर की तरह प्रतिस्पर्धा नहीं करते हैं। सभी एनजीओ एक नेटवर्क की तरह काम करते हैं। इस बदलाव से एनजीओ के आपसी तालमेल और गठबंधन के साथ ही एक दूसरे के काम में मदद करने में भी अड़चनें आई हैं।
और आखिर में ऐसा बदलाव जिसके मुताबिक एनजीओ को अब पंजीकृत या रजिस्टर कराने के लिए सभी पदाधिकारियों, निदेशकों और मुख्य काम करने वालों के आधार नंबर देने होंगे। इस कानून में सरकार को यह भी अधिकार मिल गया कि सरकार अपनी इच्छा से बिना कारण बताए किसी भी एनजीओ का लाइसेंस जब तक चाहे तब तक के लिए निलंबित कर सकती है।
यह कहना शायद जरूरी नहीं है, फिर भी बता दें कि निजी क्षेत्र यानी प्राइवेट सेक्टर ऐसे काम नहीं करता है। प्राइवेट सेक्टर को सरकार नहीं बताती है कि उसे अपना पैसा किस तरह से कहां खर्च करना है या फिर एकतरफा तौर पर उनके लिए कोई नियम-कानून नहीं बनाती है। लेकिन ऐसे सारे कदम सिर्फ एनजीओ के लिए हैं।
सिविल सोसायटी के प्रति इस तरह का रवैया या उसका विरोध कोई नई बात नहीं है। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर, नरेंद्र मोदी ने 2014 में एक भाषण में कहा था: "एक और साजिश - एक दुष्चक्र स्थापित किया गया है। विदेशों से धन प्राप्त किया जाता है; एक एनजीओ स्थापित किया जाता है; कुछ लेख छपवाए जाते हैं; एक पीआर फर्म को ठेका दिया जाता है, और धीरे-धीरे , मीडिया की मदद से एक छवि बनाई जाती है। और फिर इस छवि को चमकाने के लिए विदेशों से पुरस्कार प्राप्त किए जाते हैं। ऐसा दुष्चक्र, वित्तीय-गतिविधि-पुरस्कार का एक नेटवर्क स्थापित किया जाता है और, एक बार जब वे एक पुरस्कार प्राप्त कर लेते हैं , हिंदुस्तान में कोई भी उनपर उंगली उठाने की हिम्मत नहीं करता, चाहे पुरस्कार पाने वाला कितना ही नाकाम क्यों न रहा हो।”
प्रधानमंत्री के तौर पर तो अब मोदी के पास इस बात की आजादी भी है कि वे जैसे चाहें सिविल सोसायटी को गंभीर नुकसान पहुंचाएं, भले वे उसे पूरी तरह खत्म न करना चाहे। इसके लिए उन्होंने काफी हद तक, अभिनव तरीकों से, निरंतर ऐसा किया है।
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