कश्मीर के बाद अगला नंबर पूर्वोत्तर राज्यों का, जमीन पर गड़ी नजरों से लोगों में ‘रक्षाकवच’ खोने का खौफ
बीजेपी के जो पूंजीपति मित्र हैं, उनकी नजर पूर्वोत्तर की प्राकृतिक संपदाओं पर पहले से गड़ी हुई है। इन राज्यों में जल, जंगल और जमीन पर जनजातीय लोगों का अधिकार जिन संवैधानिक प्रावधानों की वजह से बना हुआ है, उन्हें खत्म किए बगैर संसाधनों का दोहन संभव नहीं है।
जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को जिस तरह हटा दिया गया है, उसे देखते हुए उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में लोग आशंकित हैं कि बीजेपी प्रबल जनमत के दंभ में उनसे अनुच्छेद 371ए और 371जी के तहत प्रदान किए गए विशेष संवैधानिक सुरक्षा कवच कहीं छीन न ले। इस आशंका से पूर्वोत्तर का नागरिक समाज सतर्क हो उठा है।
सवाल है कि पूर्वोत्तर राज्यों से संवैधानिक सुरक्षा कवच हटा देने से बीजेपी को किस तरह लाभ पहुंच सकता है? बीजेपी के जो पूंजीपति मित्र हैं, उनकी नजर पूर्वोत्तर की प्राकृतिक संपदाओं पर बहुत पहले से गड़ी हुई है। इन राज्यों में जल, जंगल और जमीन पर जनजातीय लोगों का अधिकार जिन संवैधानिक प्रावधानों की वजह से बना हुआ है, उन्हें खत्म किए बगैर संसाधनों का दोहन संभव नहीं हो सकता।
इन राज्यों में कोयला से लेकर यूरेनियम तक अनेक संपदाएं मौजूद हैं। असम में बाबा रामदेव को कौड़ियों के मोल सैकड़ों बीघा जमीन बीजेपी सरकार दे चुकी है। इसके अलावा नागरिकता संशोधन विधेयक के जरिये बीजेपी बांग्लादेशी हिंदुओं को पूर्वोत्तर की नागरिकता प्रदान करना चाहती है और इसकी राह में संवैधानिक प्रावधान बाधक साबित हो सकते हैं।
अरुणाचल प्रदेश की राजनीति शास्त्री रंजू दोदुम का कहना है, “भले ही गृहमंत्री अमित शाह ने आश्वस्त किया है कि पूर्वोत्तर राज्यों से अनुच्छेद 371 को समाप्त नहीं किया जाएगा, लेकिन बीजेपी अपने चुनावी वादे पर अमल करने के लिए आगे बढ़ती हुई दिखाई दे रही है। पूर्वोत्तर के लोगों के प्रबल प्रतिरोध के चलते बीजेपी ने पिछले कार्यकाल में नागरिकता संशोधन विधेयक को राज्यसभा में पेश न कर ठंडे बस्ते में डाल दिया था। इस बार उसके पास भारी बहुमत है और वह कभी भी इस विधेयक को पारित कर सकती है और इसके जरिये गैर मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान कर सकती है।”
पूर्वोत्तर में अपनी राह आसान बनाने के लिए जरूरत पड़ने पर वह संवैधानिक सुरक्षा कवच को भी समाप्त कर सकती है। असम के समाजशास्त्री किशोर कुमार कलिता का कहना है, “हिंदुत्व की राजनी ति करने वाली बीजेपी भारत की बहुलतावादी संस्कृति पर विश्वास नहीं करती। उसे भारत के संघीय ढांचे की पृष्ठभूमि से कोई मतलब नहीं है। कश्मीर से अनुच्छेद 370 को समाप्त कर उसने संकेत दे दिया है कि देश में आत्मनियंत्रण की आवाजों को शांत कर दिया जाएगा। पूर्वोत्तर राज्यों की विभिन्न जनजातियों की तरफ से अधिक आत्मनियंत्रण का अधिकार देने की मांग होती रही है और इसके लिए अनुच्छेद 370 जैसे प्रावधान लागू करने की मांग होती रही है। अब अनुच्छेद 370 को हटाकर बीजेपी ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि निरंकुश शासन चलाने के लिए वह जरूरत पड़ने पर पूर्वोत्तर में लागू अनुच्छेद 371 के विभिन्न प्रावधानों को भी समाप्त कर सकती है।”
असम के किसान नेता अखिल गोगोई ने कहा कि दो किस्म के खतरे सबसे अधिक हैं- एक, छठी अनुसूची के तहत संवैधानिक सुरक्षा उपाय को खत्म किया जा सकता है और दो- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण को भी निशाना बनाया जा सकता है। मेघालय स्थित नागरिक संगठन थामा यू रंगली- जूकी (टीयूआर) ने कहा कि भारतीय संघ पांचवीं और छठी अनुसूची सहित विशेष प्रावधानों और व्यवस्थाओं के माध्यम से विभिन्न समुदायों के साथ विभिन्न समझौतों के द्वारा अस्तित्व में आया। धारा 370 को जिस तरह एक झटके में समाप्त किया गया है, उससे पूर्वोत्तर के संवैधानिक रक्षा कवच पर भी खतरे की आशंका स्वाभाविक है।
दरअसल, नागरिक संगठनों को लगता है कि बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन एक्ट- 1873 के तहत जो इनर लाइन परमिट की प्रणाली आधारित है, उसे भी आने वाले समय में निरस्त किया जा सकता है। इस प्रणाली के तहत अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और मिजोरम में किसी बाहरी व्यक्ति को प्रवेश करने के लिए वीजा की तरह परमिट लेना पड़ता है। नगालैंड के विपक्षी दल नगा पीपुल्स फ्रंट के प्रवक्ता ए कीकोन का कहना है कि सरकार चाहती, तो जम्मू-कश्मीर के लोगों को विश्वास में ले सकती थी।
उन्होंने साफ कहा कि नगालैंड को लेकर अगर इस तरह का कोई कदम उठाने का प्रयास किया जाएगा, तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। नगालैंड की सबसे बड़ी जनजातीय संस्था नागा होहो के अध्यक्ष चुबा ओजुकुम ने भी कहा, “हमें आशंका है कि केंद्र सरकार नगाओं के साथ वैसा ही बर्ताव कर सकती है, जैसा कि जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ किया गया। लेकिन केंद्र को नगा लोगों के साथ ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। अगर सरकार नगा मुद्दों के निपटारे के बजाय ऐसी कोई भी चीज यहां आजमाएगी तो परिस्थिति कहीं ज्यादा खराब हो जाएगी।”
नगालैंड ट्राइबल काउंसिल के सचिव थेजा थेरिह ने भी कहा कि ताजा स्थितियों से हम चिंतित हैं। जब किसी समझौते की समीक्षा की जाती है, तो यह द्विपक्षीय होना चाहिए। केंद्र सरकार को एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करना चाहिए था और यह जम्मू-कश्मीर विधानसभा के माध्यम से होना चाहिए था। हमें उम्मीद है कि केंद्र सरकार हमारे भरोसे को नहीं तोड़ेगी।
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