‘पकौड़ा अर्थव्यवस्था’ और आत्मनिर्भरता की असली तस्वीर

यही असली आत्मनिर्भर भारत है। इससे लाखों-लाख परिवारों का पेट पलता है और निर्मला सीतारमण को मौका मिलता है कि वह हमारी विकास दर को उपलब्धि के तौर पर बता सकें।

फोटो - विपिन
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अभय शुक्ला

हममें से कई लोगों को याद होगा कि कुछ ही साल पहले भारत के ‘अग्रणी अर्थशास्त्रियों’ में से एक- अमित शाह ने एक क्रांतिकारी सिद्धांत दिया था- सड़क पर ‘पकौड़े’ बेचना एक फायदेमंद रोजगार है। यह भी याद होगा कि इसी विषय पर हमारे ‘दूसरे सबसे बड़े अर्थशास्त्री’ पीयूष गोयल ने कहा कि भारत में बेरोजगारी दर इसलिए ज्यादा है कि बड़ी तादाद में लोग अपना काम करने का विकल्प चुन रहे हैं।

इन दोहरे ‘विस्फोटों’ ने हमारी नव-उदारवादी नींव को हिला दिया और हार्वर्ड, येल, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, आईएमएफ और विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों में हलचल पैदा कर दी। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के लोगों ने जरूर इस सिद्धांत की विनम्रतापूर्वक सराहना की। उसने इन दोनों सज्जनों की प्रतिभा पर कभी संदेह नहीं किया, तब भी नहीं जब अमित शाह ने घोषणा की थी कि भारत 2024 तक पांच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएगा या जब पीयूष गोयल ने आइंस्टीन को गलती से न्यूटन समझ लिया था।

हालांकि क्या आपको पता है, हमारे दो ‘अर्थशास्त्री’ सही थे! नहीं…नहीं, मैं आरएसएस में शामिल नहीं हुआ हूं। फर्क बस इतना है कि मुझे अब सुरंग के दूसरे छोर पर रोशनी दिखने लगी है क्योंकि उस सुरंग में रोशनी ही बंद कर दी गई है।

जिसने इस देश को जिंदा रखा है, वह न तो वित्त मंत्रालय है, न नीति आयोग या मुख्य आर्थिक सलाहकार और न ही दावोस किस्म के कॉर्पोरेट शो। ये तो केवल अरबपति और करोड़पति  बनाते हैं; हमारे करोड़ों आम लोगों का जीवन यापन जिससे होता है, वह है स्व-रोजगार, यानी ‘पकौड़ा अर्थव्यवस्था’, आर्थिक पिरामिड के सबसे नीचे पल रहा ‘जुगाड़’। हालांकि मैं इसे औद्योगिक पैमाने पर ‘सर्वहारा उद्यमिता’ कहूंगा जिसके बारे में आपको आईआईएम और आईवी लीग की बड़ी दुकानों में नहीं सिखाया जाता, शायद इसलिए कि उन्हें इसके बारे में पता ही नहीं है।

लेकिन यह लाखों परिवारों को भोजन देता है, श्रीमती सीतारमण को हमारी विकास दर के बारे में मुर्गे की तरह बांग देने में सक्षम बनाता है और देश को आगे बढ़ाता रहता है जबकि सरकार इसके लिए एक पैसा भी खर्च नहीं करती और न ही चार करोड़ सरकारी कर्मचारियों की फौज को हिलाना-डुलाना पड़ता है। यह है असली ‘आत्मनिर्भरता’। इस प्रतिभा की बानगी हम रोजमर्रा की जिंदगी में कदम-कदम पर देखते हैं लेकिन शायद ही कभी इसके बारे में सोचते हैं।


इस घरेलू प्रतिभा में हमारी अर्थव्यवस्था या समाज में छोटी से छोटी मांग की पहचान करना और फिर उसे पूरा करने के लिए संघर्ष करना शामिल है। यह काम मैकेन्जी या टीसीएस या सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारियों की महंगी सलाह के बिना होता है। उदाहरण के लिए, दूरदराज के इलाकों की यात्राओं के दौरान मुझे हमेशा उन लोगों पर हैरानी होती है जो दुर्गम और जलवायु के नजरिये से खतरनाक जगहों पर दुकानें खोलते हैं।

मैं यहां खीर गंगा या कसोल या मढ़ी (रोहतांग दर्रे के रास्ते पर) जैसे इलाकों की बात नहीं कर रहा हूं जो कार से आने वाले पर्यटकों की सेवा करने वाले मिनी-टाउनशिप बन गए हैं।

बैजनाथ के उस युवक से मेरी मुलाकात चंद्रताल झील (14,000 फुट की ऊंचाई पर सड़क से 20 किलोमीटर दूर) पर हुई थी। उसने झील के किनारे एक विशाल पैराशूट को तंबू की तरह गाड़ रखा था। वह सौ रुपये में एक व्यक्ति को सोने की जगह, बिस्तर और रात का खाना दे रहा था। सीजन के दौरान रोजाना 5-6 ट्रेकर उसके पास आ जाते हैं।

या फिर परबती घाटी में खीर गंगा के रास्ते पर घने जंगल में शर्माजी का ढाबा देखें जहां उनके लिए भालू से निपटना एक बड़ी समस्या है जो छोले चावल और मैगी की गंध से खिंचे चले आते हैं। या फिर उस बहादुर जोड़े को देखें जो बारा भंगाल गांव की चढ़ाई पर 16,000 फुट की ऊंचाई पर थमसर दर्रे के ठीक नीचे मेरह में एक तंबू लगाता है। इतनी तेज बर्फीली हवा कि सोचना भी मुश्किल। यह तंबू थके ट्रेकर और स्थानीय लोगों के लिए सराय का काम करता है।

इन दूर-दराज के इलाकों में व्यवसाय करने का फैसला कोई मार्केटिंग का धुरंधर ही कर सकता था। ये बाटा और लेवाइस की तरह हैं जिन्होंने बेहद मुश्किल जगह पर लोगों की जरूरतों को पूरा करने का व्यवसाय चुना। इस क्रम में उन्होंने कई लोगों की जान भी बचाई होगी। जाड़े में वे सामान बांधकर बैजनाथ, कांगड़ा या चंबा में अपने परिवारों के पास चले जाते हैं और अगले साल वसंत में व्यवसाय पर लौट आते हैं। कोई बैंक ऋण नहीं, कोई पीएलआई नहीं, कोई सब्सिडी नहीं, कोई शिकायत नहीं। ‘औपचारिक’ अर्थव्यवस्था के दायरे से बाहर शुद्ध उद्यमिता। 

मैं जिस शहरी बहुमंजिला हाउसिंग सोसाइटी में रहता हूं, वहां भी इसी किस्म की उद्यमिता देखता हूं। ऐसी सेवाएं जिनकी भविष्यवाणी दस-एक साल पहले एलन मस्क भी नहीं कर सकते थे, लेकिन इतनी जरूरी हैं कि इनके बिना इनमें रहने वाले कुछ नहीं कर सकते।

पालतू जानवरों, खास तौर पर कुत्तों को लें। जानवर पालना स्टेटस सिंबल है, बच्चों के खेलने का साधन हैं, बुजुर्गों के लिए पोते-पोतियों से दूर स्नेह लुटाने का विकल्प। भारत में पालतू जानवरों की देखभाल उद्योग 4,800 करोड़ रुपये का है और हर साल 16.50 फीसद की दर से बढ़ रहा है। लेकिन वह केवल औपचारिक हिस्सा है; इसके अनौपचारिक हिस्से का पता तब चला जब मैं सोसाइटी में आया।


मैं सिर्फ दो उदाहरण दूंगा- ‘डॉग वॉकर’ की भारी मांग है क्योंकि कुत्ते के मालिक या तो बहुत व्यस्त हैं या बहुत बूढ़े या फिर बहुत ‘बड़े’ लोग हैं और कुत्तों को बाहर टहलाने नहीं ले जा सकते। यह कमाने का एक अच्छा मौका है। रोजाना दो बार करीब 30 मिनट कुत्ते को टहलाने के लिए 4,000 प्रति माह। एक डॉग वॉकर एक दिन में पांच कुत्तों को आसानी से टहला सकता है, यानी 20,000 रुपया महीना जो औसत प्रबंधन स्नातक या वकील की कमाई से कहीं ज्यादा है जिसके बारे में केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड को अंदाजा भी नहीं है। फिर है 1,200 से 1,500 महीने पर उपलब्ध ‘डॉग ग्रूमर’ जो उसे शैम्पू करेगा, उसके बाल-नाखून काटेगा, उसके दांत ब्रश करेगा।

मेरी सोसाइटी में एक और उद्यमशील युवा है- वह बालकनियों पर कबूतर-विरोधी जाल लगाने में माहिर है। चूंकि मूर्तियां अब 100 मीटर से अधिक ऊंची हैं और पेड़ दुर्लभ हैं, कबूतर बालकनियों पर बसेरा करने लगे हैं और अच्छी मात्रा में वहां गंदगी छोड़ रहे हैं। अजीत चौहान इसका ताउम्र इलाज करते हैं। वह 15 रुपये प्रति वर्ग फुट के हिसाब से बालकनी में जाली लगाते हैं। चार बेडरूम फ्लैट के लिए इस पर लगभग 12,000 और तीन बेडरूम फ्लैट के लिए लगभग 10,000 रुपये खर्च आएंगे। सारा काम वह खुद करते हैं, केवल एक बच्चे की सहायता से। वह शीर्ष आईएएस पेंशनभोगी से कहीं अधिक पैसे कमाते हैं और उन्हें हर जुलाई में जिंदा रहने का सबूत भी नहीं देना पड़ता!

शिमला से 15 किलोमीटर दूर मेरे छोटे से गांव पुराणीकोटी में भी जुगाड़ू उद्यमी भरे हुए हैं। एक सिख सज्जन पखवाड़े में एक बार अपनी मोटरसाइकिल पर आते हैं। वह पूरी पंचायत को कवर करते हैं। गैस बर्नर, रेगुलेटर, पाइप आदि बेचने/मरम्मत/सेवा करने की पेशकश करते हैं। वह दरवाजे पर हमें एक महत्वपूर्ण सेवा उपलब्ध कराते है। ऐसे में जब निकटतम गैस एजेंसी 20 किलोमीटर दूर है, हमें मरम्मत वगैरह की फिक्र नहीं होती। हरियाणा का एक युवक अपने घर की महिलाओं से भारी मात्रा में अचार बनवाता है और उसे अपनी पिक-अप और मोटरों में रखकर नियमित रूप से आता है। मैं हमेशा उसी से अचार खरीदता हूं। उसने कीमत रखी है 100 रुपये प्रति किलो जबकि ब्रांडेड अचार का रेट लगभग 700-800 रुपये है।

बड़े-बड़े कॉन्क्लेव की चकाचौंध से दूर ये गुमनाम इनोवेटर्स ही हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था को संभालने वाले और हाशिए के लाखों-लाख लोगों के लिए अनौपचारिक आजीविका का निर्माण करने वाले हैं।

अडानी, अंबानी और महिंद्रा के विपरीत वे सरकार से रियायतों की मांग या उम्मीद नहीं करते हैं। वे एनपीए (गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां) नहीं पैदा करते। वे कार्बन डाइऑक्साइड उगलने वाले जेट में बैठकर दावोस नहीं जाते और वे जनता को दूहने के लिए आईपीओ जारी नहीं करते। वे जो भी करते हैं, अपने बूते करते हैं। वे हमारी सच्ची प्रतिभा का प्रतिनिधित्व करते हैं। मुझे इंतजार है कि कभी कोई राजनीतिक दल ‘पकौड़ा’ को अपना पार्टी चिह्न बनाए।

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