आध्यात्मिक फासीवाद के चंगुल में है आज हमारा लोकतंत्र

ब्राह्मणवाद अब व्यापक तौर पर हमारे सामने है, जिसने आध्यात्मिक फासीवाद को संस्थागत बना दिया। इसके मुताबिक भगवान ने ही भारतीयों को असमान बनाया। इसीलिए संविधान से समान अधिकार मिलने के बाद भी निचली जातियां, गरीब और महिलाएं रोज अपमान और असमानता का सामना करते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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कांचा इलैया

1950 के दशक के उत्तरार्द्ध और 1960 के दशक के पूर्वार्द्ध में मेरे स्कूल के दिनों में 15 अगस्त उत्सव का दिन होता। झंडा फहराने का दिन, मिठाई खाने का दिन। 8-9 साल के मुझ जैसे बच्चे, जिसे जानवर चराने के काम से जबरन हटाकर स्कूली शिक्षा की ओर मोड़ दिया गया था, के लिए स्कूल एक जेल था। लेकिन स्कूल में रहते हुए जब पहली बार 15 अगस्त का दिन आया, मेरे लिए वह एक अनजानी खुशी का मौका था।

पालथी लगाकर धूल भरी फर्श पर बैठने की जगह सड़कों पर खेलता-कूदता। आसपास जोर-जोर से बोलकर अक्षर सीखते बच्चों के कोलाहल से भी पीछा छूटता- तब स्कूलों में अलग-अलग कमरे नहीं होते थे। बतौर पुरस्कार एक पेंसिल या फिर नई स्लेट मिलने की उम्मीदों से उत्साह और बढ़ जाता। मुझे याद है, स्कूल में दाखिले के बाद जब पहली बार 15 अगस्त का दिन आया, मेरे भाई को तो पुरस्कार मिला, लेकिन मुझे नहीं। तब मुझे अपनी असफलता का अहसास हुआ, ईर्ष्या भी हुई। असफलता ने मुझे सिखाया कि कैसे और जोर लगाकर लड़ना है और ईर्ष्या ने सिखाया कि कैसे असफलता से पार पाना है।

तब से तमाम 15 अगस्त गुजर गए। अपने 67वें वर्ष में देश की आजादी की 72वीं सालगिरह देख रहा हूं। इस मौके पर मैं यह पड़ताल करना चाहता हूं कि देश मेरे उस पहले 15 अगस्त के अनुभव की तरह हारा या फिर मेरे भाई की तरह जीता और अपने पड़ोसियों में ईर्ष्या का भाव भर गया? हम राजनीतिक लोकतंत्र हैं जिसमें अगर कोई मेरी नापसंदगी वाली पार्टी सत्ता में आ गई तो मुझे आजादी होती है किअगली बार इसके खिलाफ वोट कर सत्ता से उतार दूं। इस उम्मीद में रह सकता हूं। यह एक सफलता है।

लेकिन हमारी सामाजिक व्यवस्था बेहद अलोकतांत्रिक है। इसे मैं वोट कर बाहर नहीं कर सकता। पार्टियां सत्ता में आती हैं और जाती हैं। लेकिन जात-पात, छुआ-छूत, महिलाओं के साथ असमानता की अलोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था जस की तस बनी रहती है। सामाजिक व्यवस्था में गरीब और दलित तो पीड़ित हैं ही, अमीर भी विकसित मनुष्यों की तरह नहीं रह पा रहे। यह बड़ी विफलता है।आखिर क्यों यह अलोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था भारत में एक संवैधानिक लोकतांत्रिक प्रणाली के साथ-साथ चल रही है?

ऐसा इसलिए है कि हमारे नागरिक समाज की बुनावट में अलोकतांत्रिक आध्यात्मिक व्यवस्था है । यहां तक 21वीं सदी की आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था में भी हमारे सामाजिक रिश्तों को तय करने में धर्म महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लोकतांत्रिक संवैधानिकता तब तक कारगर नहीं हो सकती जब तक नागरिक समाज की संरचना आध्यात्मिक लोकतांत्रिक मूल्य व्यवस्था पर आधारित हो। भारतीय ब्राह्मणवाद अब व्यापक तौर पर हिंदू धर्म की शक्ल में हमारे सामने है जिसने आध्यात्मिक फासीवाद को संस्थागत बना दिया।

उसके मुताबिक भगवान ने ही भारतीयों को असमान बनाया। इस भूमि पर पाए जाने वाले इस्लाम, ईसाइयत, सिख जैसे तमाम धर्मों ने इसी ब्राह्मणवाद की नैतिक प्रणाली पर अपने सामाजिक रिश्तों की रूपरेखा तय की। यही वजह है कि संविधान से समान अधिकार की आश्वस्ति के बाद भी निचली जातियां, गरीब और महिलाएं रोजमर्रा के जीवन में तमाम अपमान और असमानता का सामना करती हैं।


आध्यात्मिक लोकतंत्र आधार होता है सामाजिक लोकतंत्र का और सामाजिक लोकतंत्र स्रोत होता है राजनीतिक लोकतंत्र का। भारतीय संवैधानिकता दमन करने वालों के हृदय परिवर्तन से नहीं बल्कि पीड़ितों के बलिदान के कारण जिंदा रही। बीजेपी और आरएसएस दावा करते रहे हैं कि अगर वे सत्ता में आ गए तो राम राज आ जाएगा। अगर कुछ लोग गाय की पूजा करते हैं तो गाय चराने-पालने वालों को यातना दी जाती है, उन्हें पीट-पीटकर मार डाला जाताहै; अगर कुछ लोग अपने अराध्य की उपासना करना चाहते हैं तो जिनकी आस्था उस अराध्य में नहीं हो, उन्हें भी उसकी उपासना के लिए मजबूर किया जाता है।

इससे संवैधानिक अराजकता की स्थिति पैदा होती है। वे दलित जो कहते रहते हैं कि हम तो उसी ईश्वर को पूजते हैं, उन्हें मंदिर से निकाल दिया जाता है, पीटा जाता है, प्रताड़ित किया जाता है। ऐसे उत्पीड़कों के लिए लोकतंत्र का मतलब है दूसरों पर अत्याचार करना। सभी संवैधानिक संस्थानों को आध्यात्मिक फासीवाद के सिद्धांतों के अनुसार काम करने के लिए बनाया गया है। संस्थान यह मानने लगे हैं कि भारत में लोकतंत्र का यही मतलब है।

आखिर लोकतंत्र की मूल धारणा भारत में तो पैदा हुई नहीं, इसका जन्म धर्मों के अस्तित्व में आने से कहीं पहले ग्रीस में हुआ था। हमारे बुद्धिजीवी उलझन में हैं क्योंकि इनमें से किसी का जन्म लोकतांत्रिक माहौल में नहीं हुआ। बुद्धिजीवी चाहे सांप्रदायिक हों या धर्मनिरपेक्ष, इनकी समान सांस्कृतिक जड़ें तो इसी आध्यात्मिक लोकतंत्र में हैं। बाहर के लोगों के लिए यह एक बकवास अवधारणा हो सकती है। अगर आप धर्मनिरपेक्ष हैं तो इस अवधारणा को नजरअंदाज कर सकते हैं और अगर धार्मिक हैं तो इसे राष्ट्रविरोधी करार दे सकते हैं।

दूसरी श्रेणी के लोगों को 15 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से गरजते प्रधानमंत्री की बहुरंगी पगड़ी देख आह्लादित होना चाहिए था, लेकिन समझने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि इस गर्जना का गरीब जनता के लिए क्या मतलब। हमसे भेड़ बनने की अपेक्षा है, लेकिन एक सूक्ष्मदर्शी गड़ेरिया बनने की नहीं जिसके लिए सभी जानवर समान होते हैं। दलित/शूद्र/आदिवासी आध्यात्मिक दास होते हैं जो धर्मशास्त्र पढ़ने के भी योग्य नहीं। मानव जीवन में ईश्वर की परिकल्पना इस सिद्धांत से आई कि उसने सभी इंसान को बराबर बनाया। लेकिन ब्राह्मणवाद ने ग्रंथों से लेकर आचार-व्यवहार तक के जरिये बताया कि दरअसल, ईश्वर ने ही इंसानों को असमान बनाया।

भारतीय इस्लाम, भारतीय ईसाइयत ने भी इसे स्वीकार किया और असामनता को अपने जीवन का मूल सिद्धांत बना लिया। तमाम बुद्धिजीवी सोचते हैं कि वे धर्मनिरपेक्ष हैं इसलिए धर्म के जन्म के समय बनाए गए आध्यात्मिक फासीवाद के बारे में बात नहीं करेंगे। उनके अनुसार वर्णभेद उसी सुंदर बहुलतावाद का हिस्सा हैं। भारत के दलितों/आदिवासियों और शूद्रों को इस धर्मनिरपेक्षता से भी काफी नुकसान उठाना पड़ा।


कथित धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी इसकी बात नहीं करते। वे बौद्धिक तौर पर इतने बेईमान हैं कि आध्यात्मिक व्यवस्था पर बहस को गैरजरूरी समझते हैं क्योंकि यह कोई समाज विज्ञान जैसा विषय नहीं। क्योंकि उनका जन्म कथित तौर पर जिस धर्म में हुआ, वह तमाम जातियों को मंदिरों में घुसने की अनुमति नहीं देता; आज भी कई जातियों को महंत-पुजारी का काम नहीं मिलता। धर्मनिरपेक्षता हर आध्यात्मिक अलोकतांत्रिक व्यवहार को खूबसूरत कालीन के नीचे दबा देता है, भले वह फासीवाद की हद तक अलोकतांत्रिक हो। इसी से उनकी विविधता बची रहती है।

आध्यात्मिक निरंकुशता, यहां तक कि फासीवाद भी भारत की सभी धार्मिक संस्थापनों का हिस्सा बन गया क्योंकि हर भारतीय में ब्राह्मणवाद घुस गया है और इसने कुछ खास इंसानों को गुलामों की जिंदगी जीने के लिए मजबूर कर दिया है। अगर बौद्धिक विमर्श के केंद्र में आध्यात्मिक लोकतंत्र नहीं रहे तो हमारी संवैधानिकता कभी भी भरभरा जाए जैसा तमाम देशों में देखा है। 15 अगस्त और 26 जनवरी आएंगे और जाएंगे। देश में आध्यात्मिक और सामाजिक रिश्तों में बिना कोई बड़ा बदलाव किए जवान बूढ़े और बूढ़े मरते रहेंगे। मेरे इस देश में इंसानों से कहीं ज्यादा सम्मान की जिंदगी जानवर जी रहे हैं क्योंकि उन्हें आध्यात्मिकता, सामाजिकता और राजनीति की कोई जानकारी नहीं।

(लेखक राजनीतिशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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