कनाडा में प्रदर्शनकारियों को मुआवजा देने का आदेश, हमारे देश में ऐसे लोगों को राजद्रोही तक करार दिया गया
कनाडा के टोरंटो शहर में वर्ष 2010 के दौरान जी-20 सम्मलेन हुआ था और उस समय हजारों की तादात में बाहर जनता शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन कर रहे थी। इसमें से कुछ की मांगें दुनिया में गरीबी उन्मूलन था, कुछ लैगिक समानता चाहते थे, कुछ पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में देशों की प्रतिबद्धता की मांग कर रहे थे
कनाडा के टोरंटो शहर में वर्ष 2010 के दौरान जी-20 सम्मलेन हुआ था और उस समय हजारों की तादात में बाहर जनता शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन कर रहे थी। इसमें से कुछ की मांगें दुनिया में गरीबी उन्मूलन था, कुछ लैगिक समानता चाहते थे, कुछ पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में देशों की प्रतिबद्धता की मांग कर रहे थे और शेष समलैंगिकों का अधिकार चाहते थे। इन प्रदर्शनकारियों का एक छोटा सा हिस्सा उग्र भी हो गया और कुछ गाड़ियों को जला डाला और पड़ोस के कुछ भवनों के शीशे तोड़ डाले थे। इसके बाद पुलिस ने सभी प्रदर्शनकारियों को, जिसमें लगातार शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोग भी सम्मिलित थे, लाठियों से पीटा, उनपर आंसू गैस के गोले दागे, मिर्ची पाउडर और रबर बुलेट का भी इस्तेमाल किया। कुल मिलाकर पुलिस ने अत्यधिक बल का प्रयोग किया। इसके बाद तूफानी बारिश में भी अगले दो घंटे प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने घेरे रखा और प्रदर्शनकारी सर्दी से बेहाल रहे। बारिश बंद होने के बाद पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को बसों में भरकर अस्थाई डिटेंशन सेंटर पर कई दिनों तक बंद रखा। डिटेंशन सेंटर ने प्रदर्शनकारियों की कैमरे के सामने कपड़े उतार कर तलाशी ली गई। यहाँ तब सारी घटना और पुलिस का रवैय्या लगभग वैसा ही था, जैसा भारत समेत किसी और देश में रहता है। यही दुनियाभर की पुलिस का सामान्य चेहरा है, पुलिसिया जुर्म तो लोकतंत्र का अभिन्न अंग हो चला है।
डिटेंशन सेंटर से रिहा होने के बाद कुछ प्रदर्शनकारियों ने एक स्थानीय मानवाधिकार संगठन, क्लास एक्शन ग्रुप, के साथ मिलकर कनाडा के ओंटारियो की अदालत में पुलिस की ज्यादती के खिलाफ एक याचिका दायर की थी। पूरे दस साल की लम्बी बहस और सुनवाई के बाद अदालत ने पुलिस ज्यादतियों को स्वीकार किया है और पुलिस विभाग को निर्देश दिया है कि हरेक प्रदर्शनकारी को उसपर किये गए दुर्व्यवहार के पैमाने के अनुसार 5000 से 24700 डॉलर (कैनेडियन) का मुवावजा दिया जाए। इसके अलावा जी-20 सम्मलेन स्थल के बाहर मौजूद पुलिस के सर्वोच्च अधिकारी सुपरिडेटेट डेविड फांटों, जिनके निर्देशों पर पुलिस ने पूरी कार्यवाही की थी, के अर्जित अवकाश से 60 छुट्टियां भी काटने का आदेश अदालत ने दिया। अदालत ने कहा कि पुलिस की यह बर्बरता नागरिकों के मानवाधिकार का हनन है, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण धरना/प्रदर्शन नागरिकों का मौलिक अधिकार है, किसी भी कीमत पर पुलिस या सरकार नागरिकों से यह अधिकार नहीं छीन सकती है। अदालत के आदेश के अनुसार पुलिस को एक सार्वजनिक अपील जारी कर नागरिकों से इस घटना के लिए माफी मांगनी पड़ेगी, साथ ही जनता को यह भी बताना पड़ेगा कि भविष्य में धरना/प्रदर्शन के समय पुलिस के समुचित व्यवहार के लिए पुलिस विभाग में क्या बदलाव किये गए हैं या फिर बदलाव किये जायेंगे।
हमारे देश में सरकार, न्यायालय और पुलिस तो इस खबर की अहमियत को नहीं समझ पायेंगे, और जनता भी शायद ही इसका मतलब समझ पाए। इस खबर की अहमियत समझने के लिए एक परिपक्व लोकतांत्रिक व्यवस्था का मस्तिष्क जरूरी है, जो हमारे देश में तो शायद ही किसी के पास हो। यहाँ तो सरे आम ह्त्या करने वाले की तीमारदारी पुलिस करती है, और न्यायालयें भी उसे बरी कर देती हैं। सरकारें और न्यायालयें मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लच्छेदार भाषण तो देती हैं पर इसके हनन की भी कोई कसर नहीं छोड़तीं। अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया मिलिया इस्लामिया, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी जैसी शिक्षण संस्थाओं में सरकार के इशारे पर शांतिपूर्ण आन्दोलनों के विरुद्ध पुलिस का तांडव दुनिया देख चुकी है, पर यह बर्बरता किसी भी न्यायालय को नहीं दिखी, न्यायालयों ने जनता के मानवाधिकार और शांतिपूर्ण धरना/प्रदर्शन के अधिकारों पर लम्बे भाषण देते हुए भी शांतिपूर्वक आन्दोलनकारियों को ही राष्ट्रीय सुरक्षा का खतरा और राजद्रोही तक करार दिया। यह पुलिस, सरकार और न्यायालयों की एकजुटता ही है जिसमें एक गर्भवती प्रदर्शनकारी के लिए ऐसा इंतजाम कर दिया जाता है कि उसे जमानत भी न मिल सके, दूसरी तरफ कानपुर के विकास दुबे ने अगर पुलिस वालों को नहीं मारा होता तो आज भी इत्मीनान से पुलिस अधिकारियों, वरिष्ठ सरकारी कर्मचारियों और बड़े नेताओं के साथ दरबार लगा रहा होता। जम्मू और कश्मीर का भी मानवाधिकार पूरी दुनिया पिछले साल से लगातार देख रही है।
कनाडा में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ज्यादती के लिए प्रदर्शनकारियों को मुआवजा देने का आदेश न्यायालय दे सकती है क्योंकि वहां का लोकतंत्र परिपक्व है, और न्यायालय समेत हरेक संवैधानिक संस्थाएं निष्पक्ष हैं और स्वतंत्र हैं। हमारे देश में केवल खोखला तंत्र है, लोक नहीं। यदि हमारे देश में इस तरह का कोई मामला अदालत पहुँच भी जाए तो आप कल्पना कल्पना कर सकते हैं कि क्या होगा। याचिका दायर करने वाले में से कुछ को पुलिस मुठभेड़ में मार डालती, कुछ को भीड़ मार डालती, और शेष राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा करार दिए जाते। अदालतें पहली ही सुनवाई में याचिका खारिज कर देतीं और याचिकाकर्ताओं पर अदालत का समय नष्ट करने के लिए भारी भरकम जुर्माना भी लगातीं। बड़े-बड़े मंत्री दिनभर समाचार चैनलों पर बैठकर हरेक याचिका दायर करने वालों का चरित्र हनन करते और साथ ही विपक्ष पर भद्दे आरोप लगाते, साथ ही प्रधानमंत्री जी को मानवाधिकार रक्षक के तौर पर इतिहास के किसी भी दौर के सर्वश्रेष्ठ शासक साबित करते. सोशल मीडिया, जो हमारी सरकार का ही अभिन्न अंग है, पर अपशब्दों और धमकी की भरमार रहती, पर सरकार कहती कि उससे सरकार का कोई सरोकार नहीं है। मेनस्ट्रीम मीडिया, पुलिस की सहायता से याचिकाकर्ताओं की ढेर सारी फर्जी सीडी बनवाती और दिनभर उसे जनता को दिखाती। यदि भारत में पुलिस ज्यादतियों या फिर अकर्मण्यता के लिए मुवावजा मिलाने लगे, तब शायद ही कोई धरना/प्रदर्शन होता जिसमें पुलिस को मुवावजा नहीं देना पड़ता। दिल्ली के दंगों के बाद तो पुलिस विभाग हेई कंगाल हो जाता। यही, हमारा लोकतंत्र है और हम मरे हुए लोगों का मानवाधिकार भी।
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