मोदी की ‘बाहुबली-छवि’ का मुखौटा उतारने में विफल रहा विपक्ष
जैसा भी जनादेश हो, लोकतंत्र में उसका सम्मान किया जाना चाहिए. इसलिए सभी राजनैतिक दलों और नेताओं की तरह हम भी कहेंगे कि जनता का आदेश शिरोधार्य है। किंतु बात यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि यहां से शुरू होती है।
देश में व्याप्त भारी बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर कई विफलताओं, नोटबंदी की अब तक जारी मार, कृषि की दुर्दशा के कारण किसानों के रोष, समाज के सांप्रदायिक विभाजन, गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग, संवैधानिक संस्थाओं में दखलंदाज़ी आदि के बावजूद नरेंद्र मोदी के नेतृत्त्व में बीजेपी भारी बहुमत से आम चुनाव जीती है तो देखना होगा कि इस जनादेश के उत्प्रेरक तत्व क्या रहे।
सवालों का उठना स्वाभाविक है। जैसे कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे को देशभक्त बताने वाली तथाकथित साध्वी और आतंकवाद की अभियुक्त प्रज्ञा ठाकुर का चुनाव जीतना क्या बताता है? क्या भोपाल के मतदाताओं का बहुमत प्रज्ञा ठाकुर की ही तरह गोडसे को देशभक्त मानता है? या, इस अत्यंत क्षोभनाक, शर्मनाक और अनर्थकारी टिप्पणी, जिसकी स्वयं बीजेपी नेताओं ने भी निंदा की और उनके दवाब में प्रज्ञा को अनिच्छा से माफी मांगनी पड़ी, की अनदेखी करके उसे जिताने के कोई और बड़े कारण मतदाताओं के मन में थे?
क्या उत्तर प्रदेश में, जहां एसपी-बीएसपी-आरएलडी के मजबूत गठबंधन के बावजूद बीजेपी बेहतर प्रदर्शन कर पाई, जातीय समीकरण ध्वस्त हो गए, जैसा कि दावा किया जा रहा है? या सामाजिक न्याय की ताकतों के ऊपर कोई और भी बड़ा मुद्दा हावी हो गया?
पश्चिम बंगाल की शेरनी के गढ़ में बीजेपी की आशातीत सफलता का कारण क्या रहा? मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में, जहां कुछ महीने पहले ही मतदाताओं ने बीजेपी को अपदस्थ करके कांग्रेस की सरकारें बनवाईं थीं, वहां ऐसा क्या हुआ कि वोटरों ने लगभग सारी लोकसभा सीटें बीजेपी की झोली में डाल दीं? ऐसे और भी सवाल हैं जो परिणामों के विश्लेषण और इन सवालों के उत्तर तलाशने की मांग करते हैं।
ऊपर हमने जो चंद सवाल उठाए थे उनका सबसे बढ़िया उत्तर केदारनाथधाम की ‘ध्यान गुफा’ से प्रचारित-प्रसारित उस तस्वीर से मिलता है जो मतदान के अंतिम चरण वाले दिन पूरे मीडिया में छाई हुई थी। उस सुसज्जित गुफा में कैमरों के फोकस के बीच ‘एकांतवास’ करते और उससे पहले विवेकानंद और टैगोर की तरह लबादा पहने, हाथ में लाठी थामे केदारनाथ मंदिर के इर्द-गिर्द पदयात्रा करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोटो सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव प्रचार के समापन का सटीक प्रतीक था, यह बताते हुए कि बीजेपी का पूरा चुनाव अभियान जनता के मूल मुद्दों से दूर कट्टर हिंदुत्त्व और उग्र राष्ट्रवाद पर केंद्रित था।
मोदी और शाह समेत किसी भी बीजेपी नेता के चुनाव भाषण हिंदू-गौरव, मुस्लिम-घृणा, पाकिस्तान-विरोध और सेना की शौर्य-गाथा के बिना पूरे नहीं होते थे। यह कहना गलत नहीं होगा कि बीजेपी ने यह चुनाव बालाकोट पर हमले के बहाने हमारी सेनाओं को राजनैतिक प्रचार का माध्यम बनाकर लड़ा। बीजेपी की हर चुनावी सभा में जनता से यह पूछा जाता था कि पाकिस्तान को सही जवाब दिया कि नहीं दिया? और, क्या इस बार आपका वोट शहीद सैनिकों की याद में समर्पित हो सकता है? (चुनाव आयोग की इस पर शर्मनाक चुप्पी एक अलग प्रसंग है)
“पाकिस्तान चाहता है कि मोदी चुनाव हार जाए”- चुनावी सभाओं में अपने प्रधानमंत्री के मुंह से यह सुनना बहुत अफसोस पैदा करता रहा। फिर वे कहते थे- “विरोधी नेताओं के भाषणों पर पाकिस्तान में तालियां बजती हैं, वे वहां के अखबारों की सुर्खियां बनते हैं।” प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों का एक और सतत राग ‘हिंदू-मुसलमान’ था। एक चुनावी सभा में उन्होंने कहा- “कांग्रेस ही है जिसने हिंदू-आतंकवाद शब्द गढ़ कर देश के करोड़ों हिंदुओं का अपमान किया है। इसीलिए उनके नेता हिंदुओं के आक्रोश से डरकर उस सीट से चुनाव लड़ने जा रहे हैं जहां हिंदू अल्पसंख्यक हैं। क्या एक भी उदाहरण है कि कोई हिंदू आतंकवादी बना?”
पाकिस्तान-पाकिस्तान की रट के बाद बालाकोट का जिक्र और यह कि हमारी सेनाओं ने किस तरह बालाकोट में बदला लिया। दरअसल, मोदी जी ‘हमारी सेना’ नहीं, ‘मैंने’ कहते हैं- ‘’मैने घर में घुस कर मारा।’ और, ‘घर में घुस कर मारूंगा।’ इस तरह मोदी नाम के एक ऐसे ‘बाहुबली’ हिंदू नेता की छवि गढ़ी गई जो ‘इस देश को आतंकवादियों से, पाकिस्तान से और मुस्लिम-समर्थकों से बचा सकता है। हिंदुओं का रखवाला तो वह है ही। इस देश के विरोधी दल, विशेष रूप से कांग्रेस जो मुस्लिम-परस्त और पाकिस्तान- समर्थक हैं, इस शक्तिशाली नायक के पीछे पड़े हुए हैं।’
देश के मतदाता को यह समझाने का काम चुनावी सभाओं के अलावा गांव-गांव फैले बीजेपी और आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने बखूबी किया। देशभक्ति के नाम पर मतदाता उग्र राष्ट्रवाद के चक्कर में आ गए। वे भूल गए कि नोटबंदी ने उनके रोजगार छीने हैं, नौजवान पीढ़ी भूल गई कि उनके सामने बेरोजगारी का दानव मुंह बाए खड़ा है। किसान भूल गए कि वे कितने गहरे संकट में हैं और किस तरह ठगे गए हैं। बड़ी तादाद में मतदाताओं ने यह भूलकर कि उनके साथ कैसी वादाखिलाफी की गई है, उस ‘शक्तिशाली’ मोदी के नाम पर वोट दे दिए क्योंकि वे अपने देश को बेतरह प्यार करते हैं। यही तथ्य उत्तर प्रदेश में गठबंधन के बेअसर होने और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के किले में लगी सेंध को भी स्पष्ट करता है।
इसलिए, अगर यह कहा जा रहा है कि यह मोदी सरकार की पिछले पांच साल की नीतियों-कार्यक्रमों की जीत है तो यह वास्तविकता से आंख मूदना होगा। मोदी सरकार की कुछ उपलब्धियां जरूर रही होंगी, लेकिन स्वच्छता अभियान में बने शौचालय, उज्ज्वला योजना में मिले गैस सिलेंडर और प्रधानमंत्री आवास योजना में मिले मकान इस बड़ी जीत का कारण नहीं हैं। ये योजनाएं यूपीए सरकार में भी दूसरे नामों से चल रही थीं और धरातल पर इनकी लोकप्रियता विशेष नहीं है।
असली कारण है- ‘हिंदू मानस से छेड़छाड़’, जैसा कि प्रोफेसर अपूर्वानंद ने ‘द वायर’ में अपने एक लेख में लिखा है। एग्जिट पोल के अनुमान आने के बाद अपूर्वानंद ने लिखा था कि नतीजे इसी तरह आते हैं तो ईवीएम से छेड़छाड़ के आरोप लगेंगे लेकिन वास्तव में मोदी सरकार ने जो किया है, वह हिंदू-मानस को हैक करना है। अपूर्वानंद की टिप्पणी बिल्कुल सही है।
लंबे समय से चले आ रहे बीजेपी-संघ के कट्टर हिंदुत्त्व के अभियान को मोदी सरकार ने पिछले पांच साल में परवान चढ़ाया। उदार और उदात्त हिंदू मानस को कट्टर, संकीर्ण और हिंसक बनाया। ये चुनाव नतीजे उसी का परिणाम कहे जा सकते हैं। और, कहना न होगा कि विपक्ष बीजेपी के इस अभियान का मुकाबला करने में विफल रहा। वह मोदी की बाहुबली-छवि की असलियत मतदाताओं को नहीं दिखा सका। भाजपाई प्रचार मशीनरी के सामने वह टिक नहीं सका। इसलिए यह मोदी की जीत के बराबर ही विपक्ष की विफलता भी है। ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ या भारत का नेहरू मॉडल अब और भी खतरे में है। कांग्रेस के सामने अत्यंत कठिन चुनौती है कि इस देश की बहुलता और संवैधानिक मूल्यों को बचाने की लड़ाई के लिए अपने को कैसे खड़ा करे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और उपन्यासकार हैं)
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