आकार पटेल का लेख: विपक्षी एकता के असली अर्थ आखिर हैं क्या?
कर्नाटक में विपक्ष के महामंच में तमाम दलों का एकसाथ जुटने के आखिर असली राजनीतिक अर्थ क्या हैं? और, जो दल इस मंच पर नहीं थे, वे क्या संकेत दे रहे हैं? क्या कांग्रेस इस महागठबंधन की धुरी बनेगी? और क्या अगले लोकसभा चुनाव तक ये साथ बरकरार रहेगा?
कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस गठबंध की सरकार के शपथ समारोह में विपक्षी नेताओँ की मौजूदगी के क्या मायने हैं? ऐसा क्या है जो उन्हें एक मंच पर ले आया है, और क्या यह एकता अगले 12 महीनों तक कायम रहेगी?
चलिए पहले यह देखते हैं कि वह कौन से नेता हैं जो बेंग्लुरु नहीं पहुंचे। एक हैं नवीन पटनायक, जिनका ओडिशा में अपना धड़ा है। 2014 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी बीजेडी को 43 फीसदी वोट मिले थे। बीजेपी के हिस्से में 18 फीसदी और कांग्रेस को 25 फीसदी वोट मिले थे।
इस गणित से साफ दिखता है कि नवीन पटनायक इस मंच पर क्यों नहीं थे। उनके लिए बीजेपी से कहीं ज्यादा बड़ा खतरा है, नहीं तो कम से कम बीजेपी के बराबर खतरा तो है ही। हो सकता है कि आने वाले दिनों में समीकरण बदलें, क्योंकि जैसा दिख रहा है, बीजेपी ही नवीन पटनायक के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है। ऐसे में फिलहाल उन्हें अपने विकल्प बंद करने की जरूरत नहीं थी, और उन्होंने वहीं किया कि सही समय का इंतजार कर रहे हैं।
वह पहले भी बीजेपी के साथ गठजोड़ कर चुके हैं। 2019 का मामला सुलटने से पहले राहुल गांधी के साथ जुड़ने का फिलहाल उनके लिए कोई मतलब है नहीं।
तेलंगाना में भी नेता विपक्ष एक कांग्रेसी ही है। और, लगता है कि अगले लोकसभा चुनाव तक ऐसा ही होने वाला है। तेलंगाना में बीजेपी का कांग्रेस जैसा कोई जनाधार है नहीं, और लगता है आगे भी ऐसा ही रहने वाला है। मुख्यमंत्री के चंद्रशेखरराव ने हालांकि एक दिन पहले बेंग्लुरु में गौड़ा खानदान से मुलाकात की थी, लेकिन इस एकजुटता रैली से दूर रहना ही उन्होंने मुनासिब समझा।
और, अब उन नेताओँ पर नजर डालते हैं, जो मंच पर मौजूद थे। बिहार के मतदाता पहले ही बंटे हुए हैं। 2015 के चुनाव में जब लालू की आरजेडी, नीतीश की जेडीयू और कांग्रेस ने मिलकर महागठबंधन में चुनाव लड़ा था, को उसे 40 फीसदी वोट हासिल हुए थे। आरजेडी और जेडीयू, दोनों को ही लगभग एक समान वोट मिले थे। लेकिन बाद में नीतीश की जेडीयू ने महागठबंधन का साथ छोड़ दिया और बीजेपी से हाथ मिलाकर सत्ता पर कब्जा कर लिया। आरजेडी अब भी बीजेपी के साथ है।
वैसे भी बिहार में कोई पार्टी अकेले अपने दम पर कुछ नहीं कर सकती। ऐसे में दो या दो से अधिक दलों का एक-साथ मिलना ही समझदारी दिखती है। कागज़ों में देखें तो नीतीश-बीजेपी का गठजोड़ मजबूत नजर आता है, और आरजेडी के पास किसी और के पास जाने के अलावा दूसरा विकल्प ही नहीं है। ऐसे में लालू परिवार का राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ बनने वाले किसी भी गठजोड़ में शामिल होना स्वाभाविक है।
उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 41 फीसदी, समाजवादी पार्टी को 28 फीसदी, बीएसपी को 22 फीसदी वोट मिले थे। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने 2012 में 29 फीसदी वोटों के साथ सरकार बनाई थी, तो कहा जा सकता है कि उसका वोट बैंक बरकरार है। हां, इतना जरूर कह सकते हैं कि मोदी के पीएम बनने के बाद से उत्तर प्रदेश में बीजेपी कुछ ज्यादा ही बड़ी हो गई है।
उत्तर प्रदेश की कुर्सी के लिए आमतौर पर मायावती और यादव परिवार में मुकाबला होता रहा है। इसलिए उनके लिए अच्छी बात यह है कि 2019 में यूपी में विधानसभा चुनाव नहीं हैं। इससे उन्हें बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन जहां राज्य में सत्ता पर आसीन होने की बात आएगी, यह एकजुटता धड़ाम हो जाएगी। फिलहाल तो ओबीसी + मुस्लिम + दलित गठजोड़ मजबूत नजर आता है। हालांकि वोटों ट्रांसफर इतनी आसानी से होता नहीं है। बरसों पहले मशहूर सेफोलॉजिस्ट दोराब सोपारीवाला ने कहा था कि भारत में गठबंधन सिर्फ इसलिए चलते हैं क्योंकि गठबंधनों में जातियों का गठबंधन भी होता है। लेकिन इनमें से बहुत से दल अब बेचैन हैं, दशकों तक विपक्ष में नहीं बैठना चाहते।
पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 सीटें हैं, वाम दल धराशाई हो चुके हैं और कांग्रेस अप्रासंगिक। बीजेपी मुख्य विपक्षी बन चुकी है, ऐसे में ममता बनर्जीको मोदी के विरुद्ध बनने वाले गठबंधन में ही फायदा दिखता है।
महाराष्ट्र में भी बंगाल की ही तरह कांग्रेस बंटी थी, लेकिन शरद पवार अपनी पार्टी को उस तरह प्रभावी नहीं कर पाए, जैसा कि ममता बनर्जी कर सकीं। अगर कांग्रेस और एनसीपी साथ आते हैं, तो बीजेपी के लिए दिक्कतें होंगी। बीजेपी का जनाधार महाराष्ट्र में उतना मजबूत नहीं है, जितना उत्तर भारत में। पिछले विधानसभा चुनाव में उसे 27 फीसदी वोट मिले थे, हालांकि उसने सभी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा था, फिर भी वह बहुमत के पास पहुंच गई थी। शिवसेना समेत बाकी तीन पार्टियों को 18-18 फीसदी वोट हाथ आए थे।
करीब दो दशक की कभी हां, कभी न वाली साझेदारी के बाद, एक ही विचारधारा के कारण हो सकता है 2019 में दोनों पार्टियां मिलकर चुनाव लड़ें।
आंध्र प्रदेश में मुख्य विपक्षी वाई एस जगनमोहन रेड्डी हैं। बंगाल की ही तरह यहां भी कांग्रेस के वोट बैंक पर स्थानीय करिश्माई नेता ने कब्जा किया है। चंद्रबाबू नायडू द्वारा अपने विकल्प खुले रखना समझ में आता है, क्योंकि उन्हें राज्य स्तर पर सिर्फ बीजेपी से ही खतरा नहीं है।
बीजेपी की रणनीति अब इस पर होगी कि वह उन दलों को ज्यादा नाराज न करे, जो इस महामंच पर नजर नहीं आए। मसलन तमिलनाडु की पार्टियां दूर रहीं, जो चुनाव बाद गठबंधन कर सकती हैं।
कांग्रेस के लिए तो जरूरी है ही कि वह गठबंधन पर जोर दे, लेकिन राज्य स्तर पर ऐसा करना आसान नहीं होगा। हाल में आए एक सर्वे में संकेत मिले हैं कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस को बीजेपी पर बढ़त हासिल है। मध्य प्रदेश में तो बीजेपी 15 साल से सत्ता में है। 2013 में बीएसपी ने मध्य प्रदेश में सिर्फ 4 सीटें जीती थी, जोकि उसकी पिछली संख्या से 3 कम थीं, लेकिन उसके हिस्से में वोट 6 फीसदी आए थे। बीएसपी के साथ गठबंधन करना कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि राज्य स्तर के नेता इस मामले में हठधर्मी दिखा सकते हैं, क्योंकि उन्हें जीत की उम्मीद नजर आ रही है। लेकिन बीएसपी के साथ गठबंधन बीजेपी को मध्य प्रदेश में रोक सकता है और दो दशक की विजय गाथा लिखने जाने से पहले बीजेपी का पटाक्षेप हो सकता है। अगर गांधी परिवार यह गठबंधन कर पाता है तो यह बहुत की परिपक्व राजनीति का द्योतक होगा।
लेकिन अगर वे ऐसा कर पाए, तो हम भले ही किसी भी पार्टी का समर्थन करें, 2019 एक बेहद रोचक चुनाव साबित होगा।
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