अब कोई सांचा नहीं जो और कल्पना मेहता बना सके, मजदूरों के दर्द ने आखिरकार पूरी तरह तोड़ दिया
देश में प्रवासी मजदूरों के पलायन की दर्दनाक घटनाओं से आखिरकार कल्पना का दिल टूट गया। अंतिम समय तक अपनी व्हील चेयर में बैठे-बैठे ही वह प्रवासियों की पीड़ा कम करने के लिए जो कर सकती थी, करती रही। पर लोगों की तकलीफ के दर्द ने उसकी जीने की इच्छा को भी खत्म कर दिया।
फोन पर विनीत तिवारी ने जानकारी दी “आपा एक बुरी खबर है।” मन हुआ कहूं, “मत बोलो, मैं ये सुन नहीं सकूंगी।” लेकिन सच का सामना तो करना ही पड़ता है। यह कल्पना की मौत की खबर थी। मेरी जिगरी दोस्त कल्पना मेहता हमारे बीच से रुखसत हो किसी दूसरी बेहतर जगह चली गई। शायर और हम सबकी अजीज दोस्त कमला भसीन के शब्दों में- ‘हम भी सूखे हुए पत्तों की तरह टूट जाएंगे, फिर हवाओं पे मुनहासिर है कितनी दूर जाएंगे।’
मैं उससे 1988 में इंदौर में मिली थी। कल्पना वहां हमारा स्वागत करने के लिए मौजूद थीं। हम ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ की एक टीम के रूप में ‘महेश्वर बिजली परियोजना’ के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली महिलाओं के साथ पुलिस द्वारा की गई हिंसा, बल प्रयोग और गिरफ्तारी की जांच के लिए गए थे। इंदौर सर्किट हाउस में ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ की अध्यक्ष मोहिनी गिरि ने आयोग की सदस्य के रूप में मुझे, विषय विशेषज्ञ के रूप में कल्पना मेहता को और जिला महिला एवं बाल विकास अधिकारी संध्या की एक टीम बनाकर घटनास्थल पर भेजा। उन दिनों ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ राष्ट्रीय फलक पर एक मुद्दा बनकर उभर रहा था। मेधा पाटकर जन संघर्ष और जन आंदोलनों का एक चेहरा बन रही थीं।
हमारी छोटी सी टीम मध्यप्रदेश के खरगोन जिले में मंडलेश्वर के नजदीकी गांव जलूद के लिए रवाना हुई। इस पूरी कवायद के पीछे कल्पना का हौसला और जुनून था। अंततः मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को आयोग के सामने उपस्थित होना पड़ा और अपनी कानून-व्यवस्था की असफलता के बारे में सफाई देनी पड़ी। भारत के जाने-माने शिक्षाविद् प्रोफेसर कृष्ण कुमार ने 24 जुलाई 1998 के ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में लिखा “ग्रामीण महिलाओं द्वारा पुलिस बर्बरता की जांच के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग को लेकर आना, पचास साल पुराने इस गणतंत्र के लिए कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।” यह ताकत, हार न मानने वाली कल्पना मेहता की प्रेरणा और कड़ी मेहनत का नतीजा थी।
यह कहानी लंबी है जिसके तमाम नतीजे रहे, कुछ अच्छे और कुछ निराश करने वाले, लेकिन यह कल्पना थी जो इस पूरी यात्रा में मेरी आंखों में चमकती रही। इस नर्मदा अत्याचार की कहानी लिखने के मामले में मैं एक नौसिखिया सदस्य थी। कल्पना ने मेरा हाथ थामा और इस मसले के हर ब्योरे को उसने अपने इंजीनियरिंग के नजरिये से बयां किया। उसने मुझे वहां गांव और अस्पताल में मिली महिलाओं के अनुभवों को सुनना और जज्ब करना सिखाया। उस उथल-पुथल भरे दिन के बाद देर रात वह अपना पोर्टेबल टाइप-राइटर लेकर बैठी और लगभग अधिकांश रिपोर्ट लिख डाली। यह ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ की सबसे अच्छी रिपोर्टों में से थी और इसका पूरा श्रेय कल्पना को जाता है।
यह हमारी उस दोस्ती की शुरुआत थी जो फिर 22 सालों तक चली। इसमें लंबे अंतराल भी रहे, लेकिन प्रेम कभी कम न हुआ। उसके व्यक्तित्व के अनेक पहलू थे जो हर बार उससे मिलने पर मुझे और नयी ऊर्जा से भर देते थे। वह मुझे भुट्टे का कीस और तमाम स्वादिष्ट व्यंजन का स्वाद चखाने इंदौर के पुराने शहर के सर्राफा बाजार ले गई। यह मेरी जीभ और मेरी नजरों के लिए आनंद का विषय था, इन सबके लिए कल्पना का शुक्रिया।
उसने अपनी अनूठी चिकित्सा पद्धति से मेरा इलाज किया, जिसने जीवन की सारी मनोधारणाओं को सकारात्मकता में बदल डाला। मैं उसके बताए हुए नुस्खे को सालों तक अमल में लाती रही, जिसने जीवन की घोर आपदाओं को झेलने में मेरी मदद की। सालों तक हम अपने सफर में दिल्ली और इंदौर के रास्तों पर टकराते रहे। अभी दो साल पहले जब मेरी उससे मुलाकात हुई, आखिरी बार, मुझे एक गहन पीड़ा का एहसास हुआ था।
‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के बुलावे पर इसके संस्थापकों में से एक रहे ख़्वाजा अहमद अब्बास के बारे में बोलने के लिए गई थी। मैं और मेरी मित्र रूथ, ख़्वाजा अहमद अब्बास मेमोरियल ट्रस्ट के प्रतिनिधि के तौर पर प्रोफेसर जया मेहता और कॉमरेड विनीत तिवारी के मेहमान थे। मीडिया और कला जगत के लोगों से भरे हॉल में यह एक रोमांचक शाम थी। लेकिन मेरे लिए इस शाम का महत्वपूर्ण क्षण था, जब देर शाम मैं कल्पना को देखने गई।
हालांकि एक दमदार, सक्रिय कल्पना को व्हील चेयर में देखना मेरे लिए बहुत ही कठिन था, पर मेरे दोस्तों ने मुझे संभाला। वही मुस्कुराहट। शब्द भी निकले, लेकिन बोलने और समझने में मुश्किल रहे। मैंने वहां उसकी नौजवान बेटी और उसके मित्र को देखा। उसकी अंधेरी जिंदगी में दो प्रकाश स्तंभ। मैंने कल्पना को तोड़कर रख देने वाली इस बीमारी को समझने की कोशिश की। लौटकर मैंने न्यूयॉर्क में अपने एक ओंकोलॉजिस्ट दोस्त को पत्र लिखकर उसकी राय मांगी। दरअसल कोई इलाज था ही नहीं।
आज विनीत ने बताया कि प्रवासी मजदूरों के पलायन की इन दर्दनाक घटनाओं से ही आखिरकार कल्पना का दिल टूट गया था। अंतिम समय तक अपनी व्हील चेयर में बैठे-बैठे ही वह प्रवासी मजदूरों की पीड़ा कम करने के लिए जो कुछ कर सकती थी, करती रही। पर लोगों की तकलीफों की इसी कसक ने उसकी जीने की इच्छा को भी खत्म कर दिया।
दोस्त! तुम बहुतों को टूटा दिल लिए छोड़ कर चली गई हो। अब कोई ऐसा सांचा नहीं है जो और-और कल्पनाएं बना सके। तुम्हारी याद हमें प्रेरणा देती रहेगी।
गालिब के शब्दों में: “ऐसा कहां से लाएं कि तुझसा कहें जिसे !”
(लेखिका सईदा हमीद लैंगिक न्याय पर एक जानी-मानी आवाज हैं। वह भारत के योजना आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व सदस्य रही हैं। 2007 में उन्हें देश के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है)
(यह लेख सप्रेस से साभार)
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Published: 29 May 2020, 4:15 PM