खरी-खरी: रिपब्लिक टीवी ही नहीं, पूरे गोदी मीडिया के गोरखधंधे की जांच हो
कटु सत्य यह है कि मीडिया के इस तालाब में अर्णब गोस्वामी अकेले नहीं हैं। अतः अर्णब मामले में केवल ‘रिपब्लिक टीवी’ ही नहीं बल्कि संपूर्ण गोदी मीडिया की जांच होनी चाहिए।
कुछ अजीब पचड़ा है अर्णब गोस्वामी का। यह व्यक्ति पत्रकार कम, नौटंकीबाज कुछ ज्यादा है। भला ‘रिपब्लिक टीवी’ पर कौन भूल सकता है अर्णब की नौटंकी! अभी कुछ माह पहले फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद अर्णब का अपने शो पर ‘मुझे ड्रग्स दो, मुझे ड्रग्स दो’ कहकर चिल्लाना और संपूर्ण हिंदी सिनेमा जगत को ड्रग्स का अड्डा सिद्ध करना। यह नौटंकी नहीं तो फिर क्या थी! परंतु हर नौटकी की भी अंतिम सीमा होती है। इस प्रकार अंततः अर्णब की नौटंकी की भी अंतिम सीमा आ गई। आप जानते ही हैं कि ऐसा तब हुआ जब मुंबई पुलिस ने अर्णब के खिलाफ चल रहे एक मामले में अपनी चार्जशीट दाखिल की। लगभग पांच सौ पन्नों की उस चार्जशीट में अर्णब की पार्थो दासगुप्ता के साथ वाट्सएप पर बातचीत जिसे ‘चैट’ कहते हैं, का ब्यौरा भी था। बस, उस चैट का सोशल मीडिया पर लीक होना था कि हंगामा मच गया। बात ही ऐसी थी कि हंगामा होना ही था।
दरअसल पार्थो दासगुप्ता ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) के मुखिया थे। यह संस्था हर हफ्ते टीवी चैनलों की टीआरपी तय करती है। तो अपने चैनल ‘रिपब्लिक टीवी’ की टीआरपी नंबर वन पर रखने के लिए अर्णब गोस्वामी पार्थो दासगुप्ता को खुश रखते थे। उन्हीं पार्थो से अपनी चैट के दौरान पुलवामा में हुए हमले के बाद अर्णब ने बालाकोट पर भारतीय वायुसेना की स्ट्राइक से तीन रोज पहले बताया कि ‘इस बार पाकिस्तान के खिलाफ कोई बड़ा एक्शन होगा।’ फिर वह बोले, ‘अच्छा ही होगा इस मौसम में बिग मैन के लिए। वह चुनाव जीत जाएंगे।’
अरे भाई अर्णब, तुमको बालाकोट एयर स्ट्राइक से तीन रोज पहले यह कैसे पता चल गया कि भारत सरकार पुलवामा के जवाब में पाकिस्तान के खिलाफ एक बड़ी एयर स्ट्राइक करने जा रही है। फिर अर्णब को यह भी पता था कि इस हमले के फलस्वरूप ‘बिग मैन’ (स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी) चुनाव भी जीत जाएंगे। जैसा कि कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि बालाकोट स्ट्राइक जैसी बात की खबर प्रधानमंत्री सहित केवल दो और मंत्रियों और एनएसए (राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर) को रहती है। स्पष्ट है कि अर्णब को यह सूचना इन्हीं चार व्यक्तियों में से ही किसी ने दी होगी। जैसा कि अर्णब की चैट से स्पष्ट है कि इस स्ट्राइक के फलस्वरूप सत्तापक्ष को 2019 के चुनाव जीतने की भी आशा थी। तो क्या बालाकोट का मकसद चुनाव जीतना था? यदि चुनाव जीतना नहीं था तो फिर अर्णब गोस्वामी को ऐसी खबर पहले से क्यों दी गई? क्या इसका मकसद यही था कि बालाकोट एयर स्ट्राइक के समाचार की अधिकतम चर्चा हो और फिर देश में पाकिस्तान के खिलाफ जो उबाल आए, उसकी लहर पर नरेंद्र मोदी 2019 का चुनाव फिर जीत लें!
अर्णब चैट जिसको अब अर्णब गेट कहा जा रहा है, के खुलासे के बाद भारतीय पत्रकारिता के बारे में कुछ संगीन प्रश्न उभरकर सामने आए हैं। सर्वप्रथम तो यह कि क्या ‘रिपब्लिक टीवी’ जैसे न्यूज चैनल देशहित और जनहित में नहीं बल्कि मोदीहित एवं स्वहित में पत्रकारिता कर रहे हैं! दूसरी बात यह है कि ऐसा केवल अर्णब गोस्वामी ही नहीं बल्कि और भी दूसरे मीडिया हाउस भी कर रहे हैं। सन 2014 में जब से नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं तब से भारतीय मीडिया के एक बड़े वर्ग का झुकाव मोदी और भाजपा के पक्ष में दिखाई पड़ रहा है। बड़े टीवी चैनल हों अथवा समाचार पत्र- सभी मोदीमय दिखाई पड़ते हैं। अब यह बात इतनी स्पष्ट है कि सोशल मीडिया पर ऐसे मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ कहा जा रहा है। अर्थात भारत में मीडिया सत्य के पक्ष से हटकर सत्ता के पक्ष में होता जा रहा है।
यह देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए अत्यंत दुखद बात है। क्योंकि जब मीडिया सत्तापक्ष पर सवाल ही नहीं उठाएगा तो फिर जनता को देश की सच्ची एवं सही स्थिति का अंदाजा कैसे होगा। निश्चय ही पिछले छह वर्षों में यही हो रहा है। तब ही तो नोटबंदी से अर्थव्यवस्था चरमरा गई, पर भाजपा उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव जीत गई। स्पष्ट है कि मीडिया और सत्ता पक्ष के बीच एक गठजोड़ बन चुका है जिसका मकसद यह है कि मीडिया सरकारी विज्ञापन के सहारे काफी नोट कमाए और झूठी- सच्ची खबरें देकर उस कमाई के एवज में मोदी के लिए चुनाव में अनुकूल वातावरण तैयार करे।
मीडिया जगत के बारे में देश में जो चिंताएं थीं, उनकी अर्णब गेट से बहुत हद तक पुष्टि होती है। परंतु वह भारतीय मीडिया जो कभी सत्य के पक्ष में पहली पंक्ति में खड़ा होकर जंग लड़ता था, वही मीडिया आखिर देखते- देखते गोदी मीडिया कैसे बन गया! मैं स्वयं पिछले चार दशकों से मीडिया में सक्रिय रहा हूं। मैंने स्वयं बहुत करीब से मीडिया का चरित्र देखा है। भारतीय मीडिया में पहला संकट उस समय आया जब सन 1990 में उस समय के प्रधानमंत्री ने मंडल कमीशन की सिफारिश के आधार पर पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की। उस समय रातोंरात जातीय भावनाओं का एक बहाव आया और मीडिया में अर्द्धसत्य की हवा चल पड़ी। और उसी अर्द्धसत्य के आधार पर मीडिया ने वी.पी. सिंह की सरकार को बाहर करने में मदद की। परंतु वी.पी. सिंह के जाने के बाद मीडिया सुधर गया।
पर सन 1998 में जब टीवी चैनलों का जोर चला तो फिर मीडिया को धन की आवश्यकता हुई। धन आने के केवल दो साधन थे- एक सरकार और दूसरा बड़ा पूंजीपति। विज्ञापन जमा करने की होड़ में मालिकों ने पत्रकारों को पीआर का भी काम सौंपना आरंभ कर दिया। अब पैसे के जोर पर समाचार चलने लगे। पीआर पत्रकारों के जीवन में चमक-दमक तो आ गई लेकिन मीडिया की सत्यवादी प्रथा धूमिल हो गई। फिर सन 2014 में जब मोदी जी सत्ता में आए तो वह हिंदुत्ववादी लहर लेकर आए। अब न्यूजरूम में भी हिंदुत्व छलकने लगा। मीडिया जगत के इस बदलते चरित्र में बहुत सारे कभी छोटे-मोटे रिपोर्टर कहे जाने वाले पत्रकार चैनलों के मालिक बन गए। यह बीमारी इस बिंदु तक पहुंच गई कि अब आप और हम अर्णब गेट झेल रहे हैं।
परंतु कटु सत्य यह है कि मीडिया के इस तालाब में अर्णब गोस्वामी अकेले नहीं हैं। अतः अर्णब मामले में केवल ‘रिपब्लिक टीवी’ ही नहीं बल्कि संपूर्ण गोदी मीडिया की जांच होनी चाहिए।
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