जोशीमठ ही नहीं, पूरा हिमालयीन क्षेत्र संकट में है, कब टूट पड़े विनाश का पहाड़, किसी को नहीं है अनुमान
जोशीमठ ही नहीं, हिमालयीन क्षेत्र के अन्य पर्यटक स्थल भी मुश्किल में दिख रहे हैं। नहीं पता कि कोई विनाशकारी घटना होने वाली है या नहीं लेकिन विशेषज्ञों और आम लोगों- दोनों की आम राय यही है कि विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उससे कभी भी कुछ भी हो सकता है।
अतुल सती 11 जनवरी को सरकारी बैठक छोड़कर निकल आए। वह उत्तराखंड में जोशीमठ के पुराने निवासी और ऐक्टिविस्ट हैं। एक साल पहले जब यहां के घरों, सड़कों पर और खेतों में दरारें आने लगीं, तो नवंबर, 2022 से वह इसे लेकर सभी लोगों का ध्यान आकर्षित करने लगे थे। उनके सोशल मीडिया पोस्ट, फोटो और वीडियो रिपोर्ट ने मीडिया का ध्यान खींचा और ऐक्टिविस्ट भी जमा होने लगे।
इलाके में हाइड्रोपावर प्लांट के लिए टनल बनाने के खयाल से जब एनटीपीसी ने ड्रिलिंग शुरू की, तो उन्होंने उस पर भी आपत्ति जताई। इससे उन्हें सरकार ने चिह्नित कर लिया। उन्हें भय फैलाने वाला और कम्युनिस्ट मान लिया गया। लेकिन यह उनका और उनके-जैसे लोगों का अभियान ही था कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी को जनवरी के आरंभ में अपने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ जोशीमठ आने को बाध्य होना पड़ा। तब उन्हें स्थिति की गंभीरता का एहसास हुआ और टनल तथा बाइपास के निर्माण के काम अस्थायी तौर पर रोकने के आदेश देने पड़े; करीब 700 घरों को ऐसी हालत में बताना पड़ा कि वहां किसी का रहना खतरनाक है। उन्हें खाली करना जरूरी माना गया।
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इससे पहले अफसर जोर देते रहे कि जो दरारें आ रही हैं, वे एक सीमित इलाके में हैं और बड़े पैमाने पर चिंता की कोई वजह नहीं है। इस पर सती ने कहा कि ऐसा है, तो वे घोषणा कर दें कि जोशीमठ बिल्कुल सुरक्षित इलाका है। जब अफसरों ने आनाकानी की और कहा कि ऐसा तो विशेषज्ञ ही कह सकते हैं, सती ने बैठक से बहिष्कार कर जाने का फैसला किया।
वैसे, यह सच है कि वैज्ञानिक भी नहीं कह सकते कि कब और किस गति का भूकंप किस इलाके में आएगा; या किस इलाके में कब बादल फटने, हिमनदीय फैलाव, अचानक बाढ़ आ जाने या भूस्खलन की घटनाएं होंगी। फिर भी, उत्तराखंड में पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर जिस किस्म का विनाशकारी विकास हो रहा है, उसमें सरकार को भी अंदाजा होने लगा है कि भविष्य किस किस्म का है।
इसके साथ ही स्थानीय निवासियों की चिंता बढ़ने लगी है। उन्हें घर-जमीन-बिजनेस खोने, अपने साथ के पशुओं को भी साथ रखने में होने वाली दुश्वारियों, घर-जमीन से दूर हो जाने के बावजूद बैंकों की ईएमआई से निजात न मिलने की आशंकाएं तो घेरे हुए हैं हीं। मौसम और प्रकृति कुछ और ही संकेत दे रही है। जोशीमठ से करीब 15 किलोमीटर दूर औली में जनवरी का लगभग आधा समय बीत जाने के बाद भी बर्फ नहीं गिरी। यहां फरवरी में विंटर कार्निवल होता है। इस पर अलग तरह के संकट के बादल हैं।
सिर्फ जोशीमठ और औली ही नहीं, भारतीय हिमालयीन क्षेत्र के अन्य पर्यटक स्थल भी मुश्किल में दिख रहे हैं। कोई नहीं जानता कि कोई विनाशकारी घटना होने वाली है या नहीं लेकिन विशेषज्ञों और आम लोगों- दोनों की आम राय तो यही है कि पर्यटन और इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है, हम नहीं जानते कि उससे आखिरकार हम क्या कुछ खोने जा रहे हैं। अगर लोगों को अपनी जान खोनी पड़ती है और गांव-आबादी गायब हो जाती है, तो वैसा 'विकास' आखिरकार किस काम का?
इन सवालों के जवाब कोई नहीं देना चाहता कि पहाड़ों पर पर्यटकों और उनके वाहनों के आगमन को किस तरह, कब तक, कितना नियंत्रित करना अनिवार्य हो गया है तथा पूरे हिमालयीन इलाके में निर्माण पर रोक क्यों जरूरी नहीं हैं? शिमला, मनाली, नैनीताल, मसूरी, शिलांग, गंगटोक- सब जगह अनिश्चितताओं के बादल हैं।
इसमें शक नहीं कि बढ़ते पर्यटन की वजह से हिमालयीन क्षेत्र में रोजगार भी बढ़ रहे हैं और यहां के लोगों की आय भी। उदाहरण के लिए, गोविंद वल्लभ पंत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इनवायरमेंट की एक रिपोर्ट में बताया गया कि हिमाचल प्रदेश में इस वक्त 3,350 होटल, 1,656 होम स्टे, 2,912 ट्रैवल एजेंसी, 898 फोटोग्राफर और 1,314 टूरिस्ट गाइड राज्य के पर्यटन विभाग में पंजीकृत हैं। हिमाचल की तुलना में उत्तराखंड में ज्यादा पर्यटक आते हैं। वहां के इस किस्म के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। पर लगता तो यही है कि वहां इन सबके आंकड़े कहीं अधिक होंगे।
विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि हिमाचल प्रदेश के मनाली में निर्मित क्षेत्र (बिल्ट अप एरिया) 1989 में 4.7 फीसदी था जो 2012 में बढ़कर 15.7 फीसदी हो गया और आज यह अनुमानित 25 फीसदी से भी पार है। अध्ययन यह भी बताते हैं कि इसी तरह 1980 से 2022 के बीच यहां पर्यटकों की संख्या में 5,600 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। हिमाचल प्रदेश में पंजीकृत वाहनों की संख्या भी कई गुना बढ़ गई है। हिमाचल में 2007 में सभी किस्म के पंजीकृत वाहनों की संख्या 3 लाख थी। 2019 में यह 16 लाख हो गई। उत्तराखंड में इस किस्म के आंकड़े 2022 तक के उपलब्ध हैं। वहां पंजीकृत वाहनों की संख्या 32 लाख है।
विशषज्ञों की राय है कि जोशीमठ-जैसी स्थिति कर्णप्रयाग और गोपेश्वर, मुनसियारी, नैनीताल, धारचूला और घंसाली में भी बन सकती हैं। हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूगर्भविज्ञानी एसपी सती कहते हैं कि 'इन शहरों में भी भूमि उपस्थान (लैंड सब्सिडेन्स) यानी जमीन धंसने की घटनाएं हो रही हैं। बहुमंजिली इमारतों ने उन जलधाराओं को रोक दिया है जो प्राकृतिक डिस्चार्ज चैनल की तरह काम करते रहे हैं। बिना इलाकाई पारिस्थितिकी का ध्यान रखे मनमाने निर्माण किए जा रहे हैं।'
विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि नैनीताल की सबसे ऊंची ढलाई- नैनी पीक, तथा बलियाना भी सिरकन की ओर है। नैनी लेक के ठीक नीचे दाहिनी ओर फॉल्ट है जो सिसमिक जोन 4 है। जोशीमठ, मुनसियारी और धारचूला सिसमिक जोन 5 में हैं। भूगर्भविज्ञानी प्रो. बी.एस. कोटलिया इसकी वजह नैनीताल में लेक के पानी के लेवल में कमी बताते हैं। बारिश और बर्फबारी- दोनों ही हाल के वर्षों से यहां अनिश्चित रह रहे हैं।
सरकार ने दो साल पहले मसूरी में सड़क जाम से बचने के लिए 2.74 किलोमीटर लंबी सुरंग के लिए 700 करोड़ रुपये मंजूर कर दिए। यहां की आबादी लगभग 30,000 है जबकि यहां सालाना 50 लाख पर्यटक आते हैं। सन 2010 में मसूरी की आईएएस अकादमी ने एक शोध में चेतावनी दी थी कि मसूरी के संसाधनों पर दबाव सहने की क्षमता खत्म हो चुकी है।
विशषज्ञों का कहना है कि ऐसे में सुरंग बना कर अधिक पर्यटक भेजने की कल्पना वास्तव में मसूरी की बर्बादी का दस्तावेज है और यह बात कई सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है कि मसूरी के आसपास का इलाका भूस्खलन के मामले में बहुत ही संवेदनशील है।
यहां की भूगर्भ संरचना से छेड़छाड़ से होने वाले विनाश का अंदाजा सबको है। सन 2014 में लोक निर्माण विभाग ने बाईपास पर चार सुरंग बनाने का प्रस्ताव तैयार किया था जिसमें कार्ट मैकेंजी रोड से कैंपटी फॉल तक सुरंग बनाने की योजना थी। लोंबार्डी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड कंपनी ने इसकी जांच भी की थी लेकिन पर्यावरणीय कारणों से उस परियोजना को शुरू नहीं किया जा सका था।
ब्रिटिश सरकार के दौर में भी हिन्दुस्तान के कुछ राजे-रजवाड़ों ने वर्ष 1928 में अंग्रेजों के साथ मिलकर मसूरी-देहरा ट्रॉम-वे कंपनी बनाकर रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया था, लेकिन सुरंग बनाते समय हादसा हो जाने के बाद योजना बंद कर दी गई। फिर भी, सन 2020 में राज्य सरकार ने गुपचुप सुरंग की योजना पर काम करना शुरू कर दिया।
चार धाम यात्रा से संबंधित परियाजनाओं की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई उच्चस्तरीय समिति से इस्तीफा देने वाले पर्यावरणविद रवि चोपड़ा तो साफ कहते हैं कि 'यह तीर्थाटन नहीं है। यह सीधा पर्यटन है। तीर्थयात्री बहुत सादगी से यात्रा करते हैं। उनकी जरूरतें काफी कम होती हैं। आज के 'धार्मिक पर्यटक' सुविधासंपन्न और तेज गति से यात्रा वाली सुविधाएं चाहते हैं।'
वह कहते हैं कि 'एक समय था जब गंगोत्री जैसी जगहों पर कांवड़ियों की संख्या को सीमित किया गया था। केदारनाथ-बद्रीनाथ में यात्रियों की ज्यादा संख्या को मॉनिटर करना चाहिए और इसे सीमित करना चाहिए।'
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