'नोमैडलैंड' वास्तविकताओं को बड़ी बारीकी से उकेरती फिल्म, बात घुमंतुओं की, पर यात्रा अपने अंदर की
आप किसी ऐसी फिल्म को कैसे देखते हैं जो खुद जीवन का आईना हो? क्लोझाओ की नोमैडलैंड ऐसी ही श्रेणी की फिल्म है। यह जीवन की वास्तविकताओं को बड़ी बारीकी से उकेरती है।
आप किसी ऐसी फिल्म को कैसे देखते हैं जो खुद जीवन का आईना हो? क्लोझाओ की नोमैडलैंड ऐसी ही श्रेणी की फिल्म है। यह जीवन की वास्तविकताओं को बड़ी बारीकी से उकेरती है। यह फिल्म लोगों और उनके रिश्तों के लय-तालपर केंद्रित तो है ही, यह इससे आगे की खिड़की खोलते हुए आपके सामने अस्तित्व की मूलभूत सच्चाइयों को रख देती है।
नोमैडलैंड फिल्म में जीवन की अनगिनत वास्तविकताओं का सामना होता है और इनमें से सबसे गहराई से चित्रण किया गया है नुकसान या खोई हुई चीजों का। उन पलों, उन वस्तुओं का जो फिसलकर हाथ से निकल गई हों।
पेशेवर और जान-मालकी हानि और व्यक्तिगत शोक; पीछे छूट गई जगहों, जीवन को अलविदा कह चुके लोगों और छूट गई या बदशक्ल हो गई वस्तुओं; इनके संदर्भ में बात करें तो नोमैडलैंड अलगाव की एक बड़ी ही गूढ़ और शांत यात्रा है जो अंततः शांत-स्थिरता और उपचार का मार्ग प्रशस्त करती है। यह यात्रा जितनी स्वैच्छिक है, उतनी ही आरोपित और मुक्ति दिलाने वाली क्योंकि यह बड़ी संख्या में अमेरिकी लोगों के टूटे हुए सपनों की दुखद प्रतिबिंब है।
इस फिल्म में फ्रांसिस मैकडोरमैंड ने फर्न की भूमिका निभाई है जो अपने पति के निधन और उस इलाके में रोजगार देने वाली अकेली कंपनी यूएस जिप्सम प्लांट के बंद हो जाने के बाद अपने गृहनगर को छोड़ने का फैसला करती है। वह अपने वैन में जो कुछ भी जरूरत और बहुमूल्य सामान रख सकती थी, उसे लेकर घर छोड़ देती हैं। वह अमेरिका के इस इलाके से उस इलाके तक अपने वैन के साथ भटकती रहती है। बेडलैंड्स नेशनल पार्क से दक्षिणी डकोटा के वॉलड्रग रेस्तरां तक और इससे भी आगे कैलिफोर्निया में फर्न की बहन के साफ-सुथरे घर तक। भटकती फर्न के रूप में नोमैडलैंड फिल्म को उसकी नायिका मिल जाती है। इस फिल्म की यात्रा के साथ-साथ दर्शक भी अमेरिका की यात्रा करते हैं।
इधर-उधर भटकती फर्न की अपनी यात्रा के दौरान वास्तविक जीवन के कई खानाबदोशों- लिंडा मे, स्वैंकी, बॉब वेल्स- से मुलाकात होती है जिनका जीवन अपने आप में एक कहानी होता है। यह फिल्म जेसिका ब्रुडर की पुस्तक ‘नोमैडलैंड: सर्वाइविंग द ट्वेन्टीफर्स्ट सेंचुरी’ पर आधारित है और इसके जरिये खनाबदोशों या उन जैसा जीवन जी रहे लोगों की जिंदगी की एक झलक मिलती है। इन लोगों के लिए घर का मतलब शायद वह नहीं होता जिसे ज्यादातर लोग घर मानते हैं। शायद उनके लिए घर वह है जो उनके भीतर होता है।
उनके माध्यम से हमें जीवन जीने के एक ऐसे तरीके से परिचित कराया जाता है जिनके लिए ठिकाना बदलना तो जैसे रोज का काम हो। जहां काम मिला, वहीं कुछ दिन के लिए लंगर डाल दिया। जब काम नहीं रहा या मन भरने लगा तो लंगर समेटकर आगे बढ़ गए। न सामान इकट्ठा करने की जरूरत, न ही ललक। न तो किसी जगह से जुड़ाव और न ही किसी खास जगह से खुद को जोड़कर देखने की सीमाओं का बंधन।इस फिल्म और इस फिल्म के जरिये उन लोगों की जिंदगी में झांकने का प्रयास है जिनके जीवन में नए लोगों से मिलना और उनसे जुदा हो जाना उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। नए-नए लोगों से मिलते-जुलते आगे बढ़ते रहने वाली यह यात्रा ऐसी होती है जिसमें अंतिम तौर पर अलविदा कहने का रिवाज नहीं। नए-नए लोगों से मिलना और फिर मिलेंगे कहते हुए जुदा हो जाना। एकतरह से देखें तो यही तो जीवन का फलसफा है। जीवन ऐसी ही एक यात्रा है। कुछ पलका पड़ाव। कुछ लोगों से मुलाकात। फिर आगे चल पड़ना। फिर कहीं कुछ पलके लिए रुकना, नए लोगों से मिलना और फिर उनसे विदा होकर अगले पड़ाव के लिए निकल पड़ना। जीवन ऐसा ही तो है!
झाओ की यह कहानी प्रचंड प्रकृति, उसके बरक्स सूक्ष्म मनुष्य और पृथ्वी, पानी और आकाश की विशाल पृष्ठभूमि में चलने वाले दृश्यों के माध्यम से चलती है। कभी प्रकृति को जीवंत करता तेज प्रभावशाली साउंड ट्रैक तो कभी एकदम शांति में हल्की-हल्की आवाज को जीवंत करता म्यूजिक। झाओ एक दृश्य से दूसरे दृश्य में जाने की हड़बड़ी नहीं दिखाते। वह ठहरते हैं। किसी क्षण, किसी भाव, किसी विचार को पकड़ने की कोशिश करते हैं।
महेश भट्ट की फिल्म सारांश में एक दृश्य है जिसमें अनुपम खेर नायक हैं जो बीवी प्रधान की भूमिका में हैं। वह अपनी पत्नी पार्वती (रोहिणी हट्टंगड़ी) से कहते हैं: “तुम्हारे चेहरे की झुर्रियों में मेरे जीवन का सारांश है”।
नोमैडलैंड की आत्मा फ्रांसेस मैकडोरमैंड के भाव से प्रतिबिंबित होती है। एक टूटी और किस्मत की मारी हुई स्त्री जिसे खुद पर बड़ा भरोसा है और किसी भी स्थिति में हार न मानने का जज्बा। वह कहीं एकदम निरीह है तो कहीं एकदम मजबूत। हालात उसे तोड़ने की तमाम कोशिश करते हैं लेकिन वह बहादुरी के साथ उससे दो-दो हाथ करने को उठ खड़ी होती है। उसमें अपने तईं, सामाजिक परंपरा से अलग एक नई राह खोजने और उसपर चलने का हौसला है। नोमैडलैंड ऐसी फिल्म है जिसमें आप अपने अनुभवों को देखते हैं। महामारी के पिछले एक वर्ष में जीवन इतने स्तरों पर तोड़ने वाली भावनाओं से भरा रहा। नोमैडलैंड इस तरह की भावनाओं से उबरने का हौसला देती है।
लोगों से सीमित संपर्क और एकखास ढर्रे पर चल रही दिन चर्या। अपने साथ बिताए पलों को दिन, सप्ताह, महीने में बदलते देखना-अनुभव करना आईने में बार-बार अपना ही चेहरा देखने जैसा है। क्या हम में से तमाम लोग अपने आप में खानाबदोश होकर नहीं रह गए हैं? अपने घरों में होते हुए भी वहां न होना!
मैं खुद को फर्न की जगह पर रखकर महसूस कर सकती हूं कि ब्रह्मांड की निर्विवाद विशालता के बरक्स मेरी हैसियत धूल के एक कण जितनी भी नहीं। अजीब तरह की मानसिक अवस्था। इच्छा होती है जैसे सारे बंधन टूट जाएं। दुनिया में सबकुछ नए सिरे से शुरू हो। ऐसी दुनिया, जिसमें न मैं किसी को जानती हूं और न कोई मुझे। मैं अपनी आवाज अपनी खास जगह को बनाए रखती हुए अपने लक्ष्यों को नए सिरे से तय कर सकूं।
मेरे लिए नोमैडलैंड जैसे विचारों की नई खिड़की खोलने वाली फिल्म रही। उस डॉक्टर की तरह जिसके पास मुझे जाना तो काफी पहले चाहिए था लेकिन कभी गई नहीं। इस फिल्म ने मुझे अपने अंदर की यात्रा करने को प्रेरित किया। फिल्म के शब्दों में, इसने मुझे मौका दिया कि खुद को दूर से किसी रास्ते पर आगे बढ़ती देख सकूं, उस राह को इस छोर से उस छोर तक देख सकूं। यह हमेशा-हमेशा के लिए अपने अंदर संजो लेने वाली फिल्म है।
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