विष्णु नागर का व्यंग्य: चुनावी टिकट के बाजार में साहित्यकार को कोई नहीं पूछता!

टिकट के लिए नेता दलबदल रहे हैं। संतुष्ट से परमसंतुष्ट हो चुके थे, मगर अब अचानक असंतुष्ट हो रहे हैं। सांप्रदायिक से धर्मनिरपेक्ष और धर्मनिरपेक्ष से फिर सांप्रदायिक हो रहे हैं। नेता ब्राह्मण हो रहे हैं, बनिये हो रहे हैं, यादव और राजपूत हो रहे हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

टिकट में दम बहुत है, सदा राखिए हाथ। बदल लीजिए पारटी, छोड़ दीजिए ईमान। असली वाली पिट रही है क्योंकि चुनावी टिकट वाली फिल्म 'ठग्स आफ हिंदुस्तान' बहुत हिट हो रही है। मध्य प्रदेश मेंं देखो या राजस्थान में, छत्तीसगढ़ में देखो या तेलंगाना में या मिजोरम में - सब जगह टिकट खिड़की पर ऐसी भीड़ है कि भगवान भी संभालने आ जाएं तो संभाल नहीं पाए और वापस चले जाएं। सबको विधानसभा का टिकट चाहिए। दादा को भी चाहिए, बाप को भी चाहिए, बेटे को भी। बेटी को भी चाहिए, बहू को भी। पोते-पोती, नाती -नातिन को भी। सारे खानदान को दे दो तो भी संतुष्टि नहीं। उनके कुत्ते-बिल्ली को भी चाहिए, कम से कम गाय को तो देना ही पड़ेगा, वरना दंगा हो जाएगा, मंदिर यहीं बन जाएगा।

टिकट खिड़की पर मारपीट हो रही है, दंगा-फसाद हो रहा है, जो कल तक मंत्री-मुख्यमंत्री थे, आज विद्रोही होने की धमकी दे रहे हैं या विद्रोही हुए जा रहे हैं। जिन्होंने न बाप के विरुद्ध विद्रोह किया, न दादा के विरुद्ध, न जाति, न धर्म, न सड़ी-गली परंपराओं के विरुद्ध, जिन्हें यह तक नहीं मालूम कि विद्रोह के ‘वि’ में बड़ी ‘ई’ की मात्रा लगती है या छोटी ‘इ’ की, वे 80-90 साल की उम्र में भी विद्रोह कर रहे हैं। उन्हें यह भी दूसरे ही बता रहे हैं कि भैया इसे विद्रोह कहते हैं, इस उम्र में आपसे यह सधेगा नहीं। मगर मान नहीं रहे हैं, विद्रोही होकर दिखा रहे हैं। नेता दलबदल रहे हैं। संतुष्ट से परमसंतुष्ट हो चुके थे, मगर अब अचानक असंतुष्ट हो रहे हैं। सांप्रदायिक से धर्मनिरपेक्ष और धर्मनिरपेक्ष से फिर सांप्रदायिक हो रहे हैं। नेता ब्राह्मण हो रहे हैं, बनिये हो रहे हैं, यादव और राजपूत और न जाने क्या-क्या हो रहे हैं। मंदिर जा रहे हैं, मस्जिद जा रहे हैं, दरगाह जा रहे हैं, बाबाओं-ज्योतिषियों की शरण में जा रहे हैं। रो रहे हैं, गिड़गिड़ा रहे हैं और तो और टिकट न मिलने के गम में इतने गहरे डूब रहे हैं कि इस जन्म को व्यर्थ जाता देख, दूसरे जन्म में टिकट पाने के लिए जहर खा रहे हैं। मगर इतने कड़ियल भी हैं कि मर नहीं रहे हैं। वंशवाद को गाली देकर वंशवाद ही धड़ल्ले से चला रहे हैं।

वैसे ईमानदारी की बात तो यह है कि चाहता तो मैं भी था टिकट, मगर किसी ने दिया नहीं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ - सब जगह ट्राय किया, सब पार्टियों को ट्राय किया। सबने कहा कि ठेंगा चाहिए? वह चाहिए तो अभी और यहीं और बिल्कुल मुफ्त में दे देंगे। किसी ने हमें टके सेर तो क्या टके किलो में भी नहीं पूछा। मैंने बहुत कहा कि साहब मैं करीब पचास साल से हिंंदी साहित्य के माध्यम से देश की सेवा कर रहा हूं तो सबने कहा हुंह, आगे जाकर देखो कोई पार्टी। एक ने तो पूछा कि ये जी, हिंदी साहित्य क्या बला होती है? हमें तो यह भी नहीं मालूम कि हिंदी क्या होती है?  इससे भी आगे बढ़कर एक ने पूछा कि साहित्य? ये क्या होता है भाई? कुछ होता है क्या? हमारे विधानसभा क्षेत्र में तो ऐसी कोई कम्युनिटी नहीं होती! होती होगी तो वोट की दृष्टि से मैटर नहीं करती होगी।

एक से कहा तो पहले तो वह सुनकर खूब हंसा। इतना हंसा कि लगा कहीं आकाश फट न पड़े तो मैंने अपने सिर पर अपनी दोनों हथेलियां रख लीं, ताकि आसमान फटे तो सिर पर न फटे। फिर उसने कहा, अच्छा, साहित्य के माध्यम से भी सेवा की जाती है? हमने तो पहली बार सुना यह। आपने साहित्य की सेवा की होगी तो उससे जाकर ही मांगो न टिकट, हमारे पास क्यों आए हो? एक ने कहा कि हम अगर ये बताएंगे कि ये सज्जन पिछले पांच दशक से साहित्य-सेवा कर रहे हैं तो कोई एक भी वोट देगा हमें? ईमानदारी से बताओ, तुम्हारी बीवी और तुम खुद भी खुद को वोट दोगे?

एक ने कहा कि हां-हां मुझे मालूम है कि हिंदी साहित्य होता है। मैंने बचपन में कर्नल रंजीत को खूब पढ़ा है और गुलशन नंदा को भी। आप भी वैसा कुछ लिखते हो क्या? तब तो आपके पास खूब पैसा होगा फिर, टिकट दे देंगे। फीस में भी आपको रियायत दे देंगे। दूसरों से एक करोड़ लेते हैं, आपकी साहित्य सेवा के रिकार्ड को देखते हुए पचास लाख में दे देंगे। लेकिन बता देते हैं पहले ही, इससे एक रुपया क्या दस पैसे भी कम न लेंगे। मैं जाने लगा तो कहा, चलो टेन परसेंट का स्पेशल डिस्काउंट दे देंगे - 45 लाख फाइनल प्राइस है। मेरा जाना जारी रहा तो कहा, चलो 20 परसेंट का रिबेट दे देंगे।साहित्य के नाम पर इतना बलिदान हम कर सकते हैं। मैं रुका नहीं तो कहा, अरे आप भी तो बताओ, कितना दोगे? दस लाख चलेगा? इससे सस्ता टिकट भाई साहब आपको कहीं नहीं मिलेगा। घूमना चाहो तो घूम के देख लो टिकट के बाजार में। 24 घंटे तक इस रेट पर हम आपको माल देंगे, बाद में खिड़की बंद मिलेगी और जिंदगी भर पछताओगे। जिताने की जिम्मेदारी हमारी, नकदी खर्च करने की आपकी। अरे टिकट खरीदने का दम नहीं है  तो चले  क्योंं आए टिकट बाजार में, फोकटिये साले कहींं के। इन साहित्यवालों को सब मुफ्त मेंं चाहिए। मुफ्तखोर साले, हरामखोर।

(इस लेख में व्यक्त विचारों से नवजीवन की सहमति अनिवार्य नहीं है।)

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