आकार पटेल का लेख: छोटे धंधे जाएं भाड़ में, 'टू मच डेमोक्रेसी' के साथ नीति आयोग CEO ने बताया अर्थव्यवस्था का मोदी मंत्र
'टू मच डेमोक्रेसी' के साथ नीति आयोग प्रमुख ने जो दूसरी बात कही थी वह थी मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों को की व्याख्या। इन्हें हालांकि बयानों में आमतौर पर नहीं कहा जाता लेकिन नीतियों में यह साफ नजर आती हैं।
नीति आयोग के सीईओ ने हाल में एक ऐसा बयान दिया जिससे तमाम लोगों के भवें तन गईं और उन्हें अपनी सफाई देनी पड़ी। लेकिन हकीकत यह है कि उन्होंने ऐसा एक बार नहीं दो बार कहा था कि भारत में जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र है। लेकिन जिस भाषण में उन्होंने यह कहा था उसी में कुछ और भी कहा था, जिसकी तरफ लोगों का ज्यादा ध्यान नहीं गया। लेकिन मेरे विचार से यह बहुत अहम और चिंताजनक बात थी। फैक्ट चेक करने वाली वेबसाइट ऑल्ट न्यूज ने पूरे कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग का विश्लेषण किया था और बताया था कि हां नीति आयोग सीईओ ने वैसा ही कहा था जिससे वे इनकार कर रहे हैं।
इसमें कहा गया: “भारत में जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र है जिससे हम हर किसी की मदद करते रहते हैं।” उन्होंने आगे कहा, “पहली बार भारत में एक ऐसी सरकार है जो आकार और प्रकार में बड़ा सोचती है और भारत में विश्व चैंपियन बनाना चाहती है। किसी में ऐसा कहने का न तो साहस है और न ही राजनीतिक इच्छा कि वह किन्हीं 5 कंपनियों को ग्लोबल चैंपियन बनाना चाहते हैं। हर कोई कहा करता था कि मैं भारत में हर किसी की मदद करना चाहता हूं, क्योंकि मुझे हर किसी का वोट चाहिए।”
इस दौरान दूसरी बात नीति आयोग के प्रमुख ने कही और जिस पर ध्यान नहीं गया, वह था उनके द्वारा मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों को की व्याख्या करना। हालांकि बयानों में इसे आमतौर पर नहीं कहा जाता लेकिन नीतियों में यह साफ नजर आती हैं।
संक्षिप्त तौर पर देखें तो धारणा यह है कि भारत में छोटी कंपनियां बहुत ज्यादा हैं और यह प्रभावी भी नहीं हैं। इसके बजाय भारत में गिने-चुने कुछ बड़े लोग होना चाहिए जो पूरी अर्थव्यवस्था को चलाएं, और फिर यह बड़े लोग विश्व के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। तो फिर ऐसा करने के लिए सरकार क्या कर रही है? इसके लिए सरकार छोटे और मझोले धंधों के लिए प्रतिस्पर्धा मुश्किल बना देत है। इसे फॉर्मेलाइजेशन या औपचारीकरण भी कहते हैं। सरकार को लगता है कि छोटे और मझोले धंधे टैक्स चोरी करते हैं। वे नकद में धंधा कर सरकार को धोखा देते हैं। इनके अस्तित्व को मुश्किल में डालना असंभव नहीं है, और इसके लिए पहला कदम है नकद से चलने वाली अर्थव्यवस्था पर पाबंदी लगा देना। ऐसा मौजूदा सरकार ने 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा करके किया। इससे ऐसे धंधे भी जो कानूनी काम कर रहे थे, लेकिन उन्हें काम करने में मुश्किल आने लगी। उनका धंधा महीनों तक इससे प्रभावित रहा। लेकिन इससे बड़े धंधे प्रभावित नहीं हुए क्योंकि वे तो इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफर के जरिए अपना धंधा चलाते रहे और ऐसा ही बड़े या मेट्रो शहरों में रहने वाले उच्च वर्ग के साथ भी हुआ क्योंकि वे तो वैसे भी अधिकतर लेनदेन क्रेडिट कार्ड या डेबिट कार्ड से करते रहे हैं।
छोटे-काम धंधो पर दूसरा प्रहार जीएसटी के जरिए हुआ जिसे इतना जटिल बनाया गया कि इसे समझने के लिए लोगों को बड़ी टीम अलग से रखनी पड़ी। निरंतर रिटर्न फाइल करना और इसे डिजिटल माध्यम से करने का सीथा सा अर्थ था कि इससे अतिरिक्त बोझ पड़ा और बहुत से लोगों को धंधा बंद ही करना पड़ा। और इसका फायदा हुआ बड़े कारोबारियों को।
तीसर प्रहरा सरकार ने जो किया उसने ऐसे छोटे और मझोले उद्योग धंधो की कमर ही तोड़ दी जिनके पास न तो अतिरिक्त नकदी थी और न ही अपने वर्कर्स से ‘वर्क फ्रॉम होम’ कराने के लिए क्षमता।
दुनिया की जानीमानी पत्रिका द इकोनॉमिस्ट ने लिखा है कि नवंबर 2016 के बाद से मुकेश अंबानी की दौलत या हैसियत 350 फीसदी और गौतम अडानी की हैसियत 750 फीसदी बढ़ी। और ऐसा उस अर्थव्यवस्था के बीच हुआ जो लगातार गिरावट देख रही हथी। इस महीने के आंकड़े भी देखें तो ह लगातार 36वां महीना था जब देश की अर्थव्यवस्था ने सुस्ती दर्ज की है।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि गिरावट का यह सिलसिला जनवरी 2018 से शुरु हुआ और तीन साल से जारी है। वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकरा ने पिछले सप्ताह उस सर्वे को जारी करने को कहा जिसे मोदी सरकार ने जारी करने से इनकार कर दिया था। तो फिर इससे क्या पता चला? इससे सामने आया कि भारत के लोग 2018 में 2012 के मुकाबले कम खर्च कर रहे थे। इसका अर्थ यह हुआ कि उनकी आमदनी भी कम हुई है। जाहिर है कि ऐसा हर भारतीय के साथ नहीं है, क्योंकि कुछ लोग उसी से फायदा उठाकर पैसा बना रहे थे जिससे बड़े पैमाने पर लोग प्रभावित हुए थे।
मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां बहुत उलझाने वाली लगती हैं, लेकिन अगर हम गौर से देखें तो समझ में आता है कि यह सरकार जानबूझकर देश के साथ क्या कर रही है। मोदी के पूर्व सलाहकार अरविंद पनगड़िया ने आत्मानिर्भर भारतके नारे की आलोचना करते हुए कहा है कि यह तो सिर्फ एक आयात विचार है जो पूर्व में नाकाम हो चुका है। इसका मतलब है कि मोदी ने उन आयातित चीजों पर टैक्स लगा दिया है जिन्हें भारतीय खरीदते हैं, जैसे टेलीविजन और मोबाइल फोन आदि। और इसका फायदा सिर्फ उन भारतीय उद्योगपतियों को हो रहा है जो इससे ज्यादा कीमत पर अपना सामान बेच रहे हैं।
आत्मानिर्भर नारे से उद्योगपतियों को फायदा हो रहा है न कि आम लोगों को, लेकिन इसे इस तरह प्रचारित नहीं किया जाता। आखिर इस नीति से किसे आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश है? यह उपभोक्ता या आम नागरिक तो नहीं है। यह सरकार के वे चुनिंदा पसंदीदा हैं लोग हैं जिन्हें हर हाल में जिताना है और बाकी हम लोगों को जानबूझकर नाकाम करना है।
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