आकार पटेल का लेख: यूट्यूब जैसे न्यू सोशल मीडिया से खुलती है सरकार की पोल, इसीलिए लाया जा रहा है ब्रॉडकास्ट बिल

स्वतंत्र क्रिएटर और पत्रकार या अन्य व्यक्तियों को न्यूज चैनलों की तरह तो नियमित नहीं किया जा सकता इसीलिए सरकार इस बिल को ला रही है। इसमें सोशल मीडिया को इतने विस्तार से परिभाषित किया गया है कि इससे सोशल मीडिया इस्तेमाल करने वाला हर व्यक्ति प्रभावित होगा।

तस्वीर सौजन्य - न्यूजलॉन्ड्री
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आकार पटेल

शब्दकोष में 'प्रोपेगेंडा या प्रचार' शब्द की परिभाषा इस तरह दी गई है: 'सूचना, विशेष रूप से पक्षपातपूर्ण या भ्रामक प्रकृति की, जिसका इस्तेमाल किसी राजनीतिक उद्देश्य या दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है।'

गुजरे वक्त के भारत में प्रोपेगेंडा का इस्तेमाल दूरदर्शन पर नियंत्रण के द्वारा किया जाता था। या फिर कहें कि कम से कम राजनीतिक दलों को ऐसा लगता था. शाम को दिखाए जाने वाले समाचारों में सरकार और उसके एजेंडा के बारे में बताया जाता था। विपक्ष को कोई जगह नहीं दी जाती थी। इस व्यवस्था को स्वाभाविक मानकर स्वीकार कर लिया गया था।

लेकिन चुनावों के दौरान विपक्षी दलों की मांग होती थी कि उन्हें भी उतना ही समय दिया जाए जितना की सत्तारूढ़ दल को दिया जाता था, खासतौर से उनके घोषणापत्र को लोगों तक पहुंचाने के लिए। पार्टियों के नेता उन्हें कैमरे के सामने पढ़ते थे और फिर छोटे दलों ने भी मांग उठाई कि उन्हें भी बड़े दलों के बराबर समय दिया जाए।

कोई चौथाई सदी पहले निजी न्यूज चैनलों के आगमन के साथ ही स्थितियां बदलने लगीं और कम से कम शुरुआती वर्षों में तो दूरदर्शन के बजाए निजी चैनलों के स्टूडियो में होने वाले पैनल में राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेता आते थे। ऐसा लगने लगा था कि यह स्वतंत्रता का अवसान था और उस समय के कुछ वरिष्ठ पत्रकार जो आज भी सक्रिय हैं उसी दौर से निकले हुए हैं, खासतौर से पुराने समय के स्टार न्यूज से, जो बाद में एनडीटीवी बना, उससे निकले हैं।

2014 के लोकसभा चुनाव के कुछ पहले के महीनों में गोदी मीडिया जैसी परिघटना ने हमें प्रोपेगेंडा या दुष्प्रचार के और दौर की तरफ धकेल दिया। इस बार यह पुराने भारत से और भी बदतर था और ज्यादा हानिकारक भी। दूरदर्शन पर तो विपक्ष को सिर्फ़ नज़रअंदाज़ किया जाता था; उसे रोज़ बदनाम नहीं किया जाता था, और न ही उस पर देशद्रोही या राष्ट्रविरोधी कहकर हमला किया जाता था। दूरदर्शन क बागडोर जब तक सत्ता समर्थकों के हाथ में थी, तब भी अल्पसंख्यक लगातार निशाने पर नहीं थे और सिर्फ ध्यान भटकाने का खेल नहीं होता था। नए भारत में निजी चैनलों का यह रोजमर्रा का कार्यक्रम बन गया और एक दशक तक ऐसा ही रहा।


लेकिन हाल ही में इसमें एक और यानी तीसरा बदलाव दिखने लगा है। इसे शुरु हुए ज्यादा दिन तो नहीं हुए हैं, लेकिन इसके बदले रुख से सरकार इसे अपने काबू में करने का कदम उठाने वाली है। और तीसरे बदलाव का सबसे बड़ा कारण हैं सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर लाखों लोगों तक पहुंचने वाले स्वतंत्र पत्रकार का आगमन। इनमें ऐसे लोग और कंटेंट क्रिएटर शामिल हैं, जिनकी पृष्ठभूमि भले ही पत्रकारिता की नहीं रही है लेकिन लेकिन वे हास्य और खासतौर पर व्यंग्य के जरिए सामयिक मुद्दों को लोगों के सामने रखते हैं।

आखिर इनकी पहुंच कितने लोगों तक होगी? सिर्फ आंकड़ों को ही देख लेते हैं। यूट्यूब पर स्वतंत्र पत्रकारों की दर्शकों तक पहुंच न्यूज चैनलों से कम नहीं है। पुण्य प्रसून वाजपेयी (47 लाख सब्सक्राइबर), अजित अंजुम (61 लाख सब्सक्राइबर), अभिसार शर्मा (67 लाख सब्सक्राइबर) और रवीश कुमार (1.1 करोड़ सब्सक्राइबर) आदि ऐसे पत्रकार हैं जो सभी न्यूज चैनलों के नेटवर्क को टक्कर देते हैं। न्यूज चैनलों में टाइम्स नाउ के 53 लाख, रिपब्लिक के 62 लाख और इंडिया टुडे के 93 लाख सब्सक्राइबर हैं। ध्रुव राठी की बात करें तो उसके 2.3 करोड़ सब्सक्राइबर जी न्यूजके 3.6 करोड़ सब्सक्राइबर को टक्कर देते हैं।

इसमें संदेह नहीं कि इन स्वतंत्र पत्रकारों या आवाज की पहुंच उनकी सामग्री में किसी एक विशेष मुद्दे पर फोकस होने के कारण है।

रवीश कुमार के किसी भी वीडियो को 10 लाख से ज्यादा लोग देखते हैं, वहीं जी न्यूज के वीडियो को चंद हजरा, क्योंकि जी न्यूज के बहुत से वीडियो होते हैं। इन वीडियो के क्लिप्स को व्हाट्सऐप जैसे माध्यमों से शेयर किया जाता है जिससे यह स्वतंत्र आवाजें कहीं अधिक लोगों तक पहुंच जाती हैं। चूंकि यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया नेटवर्क इन स्वतंत्र लोगों के साथ अपना एडवर्टाइजिंग रेवेन्यू (विज्ञापनों से होने वाली कमाई) को शेयर करते हैं, इसलिए इन पत्रकारों को किसी कार्पोरेट के बंधन से बाहर खुद काम करने में आर्थिक तौर पर दिक्कत नहीं होती है।

इन पत्रकारों के साथ ही हास्य-व्यंग्य के जरिए मुद्दों को उठाने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ी है। गोदी मीडिया द्वारा प्रोपेगेंडा के जरिए लोगों के मन-मस्तिष्क पर कब्जा करने की कोशिश के बीच ऐसे लोग सामने आए हैं। इनमेंसे कुछ नाम हैं भगत राम, मिस मेडुसा, मेघनाद, गरिमा, रैंटिंग गोला, श्याम रंगीला और उर्विश कोठारी आदि। मैं इन सभी को फॉलो करता हूं और बहुत पसंद करता हूं।


दुर्भाग्य से सरकार के पक्ष में खड़े होने वाले ऐसे बहुत कम लोग हैं जो अच्छी सामग्री पेश कर सकें। ऐसा इसलिए है क्योंकि गोदी क्रिएटर प्रोपेगेंडा वाली ऐसी सामग्री तैयार या पेश करते हैं जो बोझिल और गुस्सा पैदा करने वाली होती है, इसलिए उसके ज्यादा दर्शक नहीं होते।

इन स्वतंत्र आवाजों का हमारे लोकतंत्र में कितना प्रभाव पड़ता है या पड़ा इसके लिए कोई शैक्षणिक अध्ययन करना होगा या कोई किताब लिखनी होगी। लेकिन मेरे दिमाग में तो एक बात साफ है कि इन लोगों ने मोदी के नियंत्रण वाले सरकारी नैरेटिव को तोड़ने और उनका एकछत्र राज खत्म करने का काम तो किया है।

यही कारण है कि सरकार इन स्वतंत्र आवाजों और स्वतंत्र पत्रकारों का गला घोंटने का कदम उठा रही है। इसे सरकार ब्रॉडकास्ट बिल के जरिए करने की कोशिश कर रही है जो चर्चा में है। मोटे तौर पर इस बिल में हर उस व्यक्ति को नियमित या कहें कि नियंत्रित करने की बात है जो सोशळ मीडिया पर है क्योंकि इसी तरीके से सरकार ऐसी सामग्री में हस्तक्षेप कर सकती है, उसे ब्लॉक कर सकती है या प्रतिबंधित कर सकती हा जो उसे पसंद नहीं है। सरकार स्वतंत्र द वायर, स्क्रॉल, न्यूज लॉन्ड्री और न्यूजमिनट जैसी वेबसाइट के पीछे भी पड़ी है।

चूंकि स्वतंत्र क्रिएटर और पत्रकार या अन्य व्यक्ति सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं इसलिए उन्हें उस तरह तो नियमित नहीं किया जा सकता जैसा कि न्यूज चैनलों को किया जाता है। यही कारण है कि सरकार ऐसा इस बिल के जरिए करने की कोशिश कर रही है जिसमें सोशल मीडिया को इतने विस्तार से परिभाषित किया गया है कि इससे सोशल मीडिया इस्तेमाल करने वाला हर व्यक्ति प्रभावित होगा। मंशा तो इस कानून का इस्तेमाल लोगों को निशाना बनाने के लिए करने की है, लेकिन इसका असर अच्छा नहीं होगा। बुरे कानूनों के नतीजे बुरे ही निकलते रहे हैं।

तो क्या मोदी सरकार इस कानून को पास कराने में कामयाब हो जाएगी? ऐसा नहीं होगा। हम अब उस दौर में नहीं है जैसाकि पिछले साल थे। इसके रास्ते में कई अवरोध हैं और बहुत सारे बिंदुओं पर इसका प्रतिरोध होगा।

अगर इसे पिछली संसद में जोर-जबरदस्ती से पारित भी कर दिया गया होता तो भी इसे लागू करने में अड़चने आतीं। प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल को वही करना होगा जो अन्य लोकतंत्रों में सरकारों को करना चाहिए,यानी नागरिकों की आलोचना को सुनना और उसे सहन करना और उससे सीखना भी। ऐसा करके, शायद वे ऐसे कंटेंट या सामग्री पर हंस भी सकें, जैसा कि हममें से कई लोग अक्सर करते हैं।

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