आकार पटेल का लेख: नई सरकार का मंत्रिमंडल पुराना, तो बदलाव की अपेक्षा कैसे करें !

इसमें शक नहीं है कि वित्त मंत्रालय और शायद गृह जैसे प्रमुख मंत्रालयों की कारगुजारियां ही बीजेपी की हार का कारण रही हैं। इसका अर्थ है कि इन मंत्रालयों में बिना बदलाव के आगे बढ़ना उसी नुकसान को जारी रखना होगा। लेकिन बीजेपी में मोदी को कौन यह बता सकता है?

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आकार पटेल

भारत सरकार का नया मंत्रिमंडल दरअसल पुराना ही मंत्रिमंडल है। गृह, रक्षा, विदेश और वित्त मंत्रालय में वही पुराने चेहरे हैं। यह चारों मंत्री इसलिए महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि इनसे ही सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीएस) बनती है। ये चारों हैं अमित शाह, राजनाथ सिंह, एस जयशंकर और निर्मला सीतारमण। इन चारों को ही इनके पुराने मंत्रालय फिर से दिए गए हैं।

इसके अलावा सड़क और राजमार्ग मंत्रालय फिर से नितिन गडकरी को, रेल मंत्रालय फिर से अश्विनी कुमार को, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय फिर से पीयूष गोयल को और कानून मंत्रालय फिर से अर्जुन राम मेघवाल को दिया गया है।

यहां तक जिन विभागों के मंत्री बदले गए हैं उनमें भी पुराने लोगों को बरकरार रखा गया है, मसलन किरन रिजिजू, ज्योतिरादित्य सिंधिया, गिरिराज सिंह आदि...

लेकिन कुछ चर्चित नाम कम से कम फिलहाल मंत्रिमंडल से गायब हैं, जैसे स्मृति ईरानी और राजीव चंद्रशेखर, लेकिन ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि ये दोनों प्रतिष्ठित मुकाबले में पराजित हुए हैं।

जिन मंत्रियों के विभाग बदले गए हैं, लेकिन उन्हें मंत्रिमंडल में जगह दी गई है, उसका कोई कारण तो सामने नहीं आया है। संभवत: ऐसा सहयोगी दलों तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) को नागरिक उड्डयन (सिविल एविएशन), जेडीएस को इस्पात (स्टील), जेडीयू को लघु, मध्यम और छोटे उद्योग, एलजेपी को खाद्य प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग), शिवसेना को आयुर्वेद और योग देने कारण हुआ हो। या फिर मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान (कृषि और किसान कल्याण) और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर (आवास) को मंत्रिमंडल में उचित जगह देने के कारण हुआ हो।

कुल मिलाकर नई सरकार का मंत्रिमंडल नया नहीं लगता क्योंकि बहुत ही मामूली फेरबदल ही किए गए हैं। विभागों के बंटवारे को अखबारों ने जब रिपोर्ट किया तो दरअसल इसे पन्ने के निचले हिस्से में होना चाहिए था न कि ऊपरी हिस्से में।

सवाल है कि आखिर सरकार 3.0 क्यों 2.0 की तरह नजर आ रही है? जाहिरी वजह तो यही है कि बदलने को कुछ था ही नहीं क्योंकि सबकुछ तो ठीकठाक ही चल रहा था। बदलाव तो तब किया जाता है जब सुधार की जरूरत होती है, और चूंकि बीजेपी चुनाव जीत ही गई है तो इसकी कोई जरूरत ही नहीं है।


लेकिन अगर बीजेपी हार जाती तो उसे विपक्ष में बैठना पड़ता यानी कोई मंत्रिमंडल नहीं बनाना पड़ता और उसके पास कोई कैबिनेट नहीं होती। ऐसे में यह अस्पष्ट है कि इस तरह की सोच में बीच का रास्ता क्या होता और बदलाव के लिए या स्थितियां होतीं। सबकुछ ठीक है समझ में न आने वाला कारण है। तो फिर क्या? एक संभावना है कि जब आपके पास आपकी पार्टी के काबिल लोग न हों जिन्हें अहम जिम्मेदारियां दी जा सकें और प्रधानमंत्री खुद अपनी एक छोटी सी समझ से ही, जो कुछ उनके पास है उसे तय कर सकें।

लेकिन यह भी कोई ठोस कारण नहीं हैं। मौजूदा प्रधानमंत्री के नेतृत्व में प्रधानमंत्री कार्यालय एक तरह से मिनी कैबिनेट की तरह काम करता है, सभी संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दों पर दखल देता है, जिसे रक्षा, वित्त और विदेश मंत्रालय अच्छी तरह जानते-समझते हैं।

एक तीसरी संभावना भी है कि यह मानने की जरूरत ही नहीं है और न ही ऐसी समझ है कि कुछ गलत भी हुआ है। अभी 5 फरवरी 2024 को प्रधानमंत्री ने लोकसभा में खे भाषण दिया था, जिसे यूट्यूब पर भी अपलोड किया गया है। इसमें मोटे तौर पर उन्होंने कहा, “अध्यक्ष जी, आमतौर पर मैं आंकड़ों के चक्कर में नहीं पड़ता हूं। लेकिन मैं देख रहा हूं  देश का मिजाज, जो निश्चित रूप से एनडीए को 400 पार लेकर जाएगा, लेकिन भारतीय जनता पार्टी को 370 सीटें अवश्य देगा।” मोदी के इस ऐलान पर सत्ता पक्ष के लोग डेस्क पीटने लगे थे और लोकसभा में ‘मोदी-मोदी’ के नारे गूंजने लगे थे। मोदी ने फिर दोहराया, “बीजेपी को 370 सीट और एनडीए को 400 पार...” इसके बाद काफी देर तक डेस्क थपथपाने का शोर और नारेबाजी होती रही थी।

लेकिन आज हम जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। बीजेपी 370 तो दूर की बात 270 सीटें भी हासिल नहीं कर पाई। और अपने राष्ट्रीय राजनीति के करियर में प्रधानमंत्री पहली बार एक अल्पमत की सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं।

क्या एक हार मानी जाएगी? अगर आप विपक्ष और उसके वोटरों को देखेंगे तो ऐसा लगेगा कि जैसे वे जीत गए हैं। यह तथ्य की नई सरकार हिली हुई है और बाहरी समर्थन पर टिकी है, इसमें उन्हें अपनी हार नहीं महसूस नहिं होती। जैसाकि योगेन्द्र यादव ने कहा कि बीते एक दशक की स्वीकार्यता और विश्वसनीयता खत्म हो चुकी है। अपराजेयता तो जा ही चुकी है, हमेशा के लिए।

इसी वजह से, बीजेपी के बहुत से समर्थक (और खास तौर पर प्रधानमंत्री के समर्थक) हताश हैं। बाहरी तौर पर, चीजें बदल गई हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक दशक की चुप्पी के बाद फिर से सरकार के कामकाज से जुड़े मुद्दों पर अपनी बातें कह रहा है। एनडीए के सहयोगी भी अपना हठ दिखा रहे हैं।


संभव है कि इस बात को अनदेखा करते हुए यह दिखावा किया जाए कि कुछ हुआ ही नहीं है, लेकिन इससे वास्तविकता नहीं बदलेगी। मतदाता ने प्रधानमंत्री को बताया है कि वे 2019 और 2014 की तुलना में कम लोकप्रिय हैं। मतदाता ने उन्हें यह भी बताया है कि एनडीए सरकार ठीक है - लेकिन बीजेपी की सरकार नहीं।

यह दिखावा करना कि हम अभी भी फरवरी में हैं, खुद को धोखा देना होगा। इसमें कोई शक नहीं है कि वित्त मंत्रालय और शायद गृह जैसे प्रमुख मंत्रालयों की कारगुजारियां ही बीजेपी की हार का कारण रही हैं। इसका अर्थ है कि इन मंत्रालयों में बिना बदलाव के आगे बढ़ना उसी नुकसान को जारी रखना होगा। लेकिन बीजेपी में मोदी को कौन यह बता सकता है? उनके आसपास के कम से कम वे लोग तो नहीं ही बताएंगे जो अपने पदों पर वापस आ गए हैं। और न ही वे मुंह खोलेंगे जो जानते हैं कि सच बोलने के लिए उन्हें दंडित किया जाएगा।

और जो लोग बीजेपी का विरोध करते हैं, उनके लिए सच्चाई से इनकार करने से बेहतर कुछ नहीं होगा। और, आने वाले महीनों में साफ हो ही जाएगा कि दुनिया किसी के भ्रम के साथ तालमेल बिठाने के लिए खुद को नहीं बदलती है।

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