‘हिंदी और अंग्रेजी में तुम्हारा खिलखिलाना बहुत याद आएगा, नीलाभ’

नीलाभ न तो समीर जैन से सवाल पूछने से हिचके और न हीं 21वीं सदी में उनके राजनीतिक समकक्ष नरेंद्र मोदी से भी सवाल करने से पहले डरे।

फोटोः नवजीवन
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कृष्णा प्रसाद

नीलाभ, जब आउटलुक हिंदी में थे तो वह हर कार्यदिवस को दोपहर 1 बजे के करीब 100 मीटर चलकर मेरे ऑफिस पहुंचे जाते थे। दोनों ही ऑफिस दक्षिण दिल्ली में राजेंद्र ढाबा के जोखिम भरे गलियारे में स्थित है। आमतौर पर ऑफिस पहुंचने के बाद उनके पहले शब्द होते थे, “हम्म, तो?” और फिर अगले कुछ मिनटों तक हम कॉफी पीते, गप-शप करते, संभावित साजिशों की कुछ अटकलों पर तुलनात्मक चर्चा करते, कुछ लोगों के प्रतिष्ठा की धज्जियां उड़ाते और फिर अपने-अपने कमरों में वापस चले जाते।

यह वह परिपाटी थी, जो मेरे पूर्ववर्ती विनोद मेहता और नीलाभ के पूर्ववर्ती आलोक मेहता के समय शुरू हुई थी। इसका मकसद यह था कि दोनों ही पत्रिकाएं कमोबेश एक ही स्तर पर रहें। लेकिन समय के साथ एकतरफा नजरिया दिखने लगा और अंग्रेजी, हिंदी को ये बता रही है कि कौन बड़ा है। यह भारतीय पत्रकारिता जगत की कोई नई बात नहीं है, जिसमें सतहीपन हमेशा ठोस या मौलिक को उसकी औकात बताने में कामयाब हो जाता है।

सच ये है कि अखबार हो या टीवी, नीलाभ जितना हिंदी में निपुण थे, उतना ही अंग्रेजी में भी प्रवीण थे और एक बेहतरीन ऑल राउंडर की तरह वह दोनों ही भाषाओं में आसानी से अपनी जगह बना सकते थे। वास्तव में, वह कई वर्षों तक ‘आउटलुक’ अंग्रेजी में नियमित कॉलम लिखते रहे और हम हमेशा अल्प सूचना पर एक अच्छे लेख के लिए उन पर भरोसा कर सकते थे, जो कि आमतौर पर कुछ घंटों से ज्यादा देर का नहीं होता था और उसे भी वह हमेशा समय से पहले लेकर हाजिर होते थे, जो अंग्रेजीदां लोग भी नहीं कर सकते।

दूरदर्शिता और पूर्वाभास के मामले में शायद यह अंग्रेजी ही थी, जिसने नीलाभ की संवेदनशीलता और समझ को उनके हिंदी के साथियों और समकक्षों से ऊपर उठा दिया था। उनमें से बहुत से लोगों ने जहां खुद को हिंदुत्व के समर्थक और विस्तारक के रूप में सीमित कर लिया, वहीं नीलाभ गौरव के साथ धर्मनिरपेक्ष, उदार, प्रगतिशील और समावेशी विचार पर भरोसा करने वाले बने रहे। यह एक काव्यात्मक न्याय है कि उनकी आखिरी पारी नेशनल हेरल्ड के साथ थी, जिस अखबार पर जवाहरलाल नेहरू की छाप है।

इसी समय, अपने पाठकों को अंग्रेजी के पाठकों की तुलना में कम विकसित और इसलिए उन्हें विचारशील पत्रकारिता के कम योग्य मानने वाले हिंदी के कई संपादकों के विपरीत, नीलाभ पाठकों को वह देने के पक्ष में नहीं थे जो ‘वे चाहते थे‘।

आम तौर पर ये बात मीडिया जगत में किसी अच्छे संपादकों को प्रबंधकों और अन्य उच्चाधिकारियों की नजर में अच्छा नहीं बना सकती है और वे हमेशा अपना काम कराने के लिए एक सस्ता घटिया सा बंदर पाल लेते हैं।

इन बातों का जिक्र इसलिए नहीं किया गया है कि नीलाभ हिंदी को हेय दृष्टी से देखते थे या अपनी अच्छी अंग्रेजी की वजह से खुद को श्रेष्ठ समझते थे। वह इससे दूर थे। ये जिक्र सिर्फ मुख्यधारा की मीडिया द्वारा विशेषतौर पर भाषाओं में बहस के स्तर को नीचे और लोकतंत्र को विकृत करने में निभाई गई भागीदारी की भूमिका को उजागर करने के लिए किया गया है।

जब पहली बार नीलाभ बीमार पड़े और उन्हें सीढियां नहीं चढ़ने का मशविरा दिया गया तो अपने पुराने सहयोगी के सम्मान और उनकी चिंता में मैंने उनके ऑफिस जाना शुरू कर दिया। हम दोनों ने ही 1980 के दशक के अलग-अलग साल में द टाइम्स ऑफ इंडिया समूह से अपने करियर की शुरुआत की थी। उसी दौरान समीर जैन कंपनी में आए थे और उन्होंने अखबारी पत्रकारिता के तौर तरीके बदलने की शुरुआत की थी और उस समय समूह में इसकी शिकायत करने या इस पर सवाल उठाने वाले बहुत कम ही लोग थे। इसलिए आपस में समीर के बारे में बात करना एक हमारे लिए एक अच्छा टाइमपास था।

1986 में नीलाभ 25 या 26 साल के थे। उन्होंने बताया कि पटना में नवभारत टाइम्स की कार्यशाला के लिए वह कुछ मिनट की देरी से पहुंचे थे। कार्यशाला में सभी अपना परिचय दे रहे थे। परिचय खत्म होने के बाद वक्ता ने सभी से पूछा, “क्या आप लोग कुछ पूछना चाहते हैं?” किसी ने अपना हाथ नहीं उठाया। इसपर नीलाभ ने पूछा, “हम सभी ने अपना परिचय दे दिया है। आपने अपना परिचय नहीं कराया है।” इस बात पर कमरे में खुसर-फुसर शुरू हो गई। उस वक्ता ने जवाब देते हुए कहा, “मैं समीर जैन हूं, कंपनी का वाइस चेयरमैन और संयुक्त प्रबंध निदेशक।”

समीर जैन जो सुनना पसंद करते थे, हमेशा वो बात कहने के लिए आतुर रहने वाले उनके प्रबंधकों ने गौ-पट्टी में एक "आकांक्षी" भीड़ के लिए 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' का एक हिंदी संस्करण निकालने का प्रस्ताव रखा था। इस बात से एनबीटी के संपादक राजेंद्र माथुर हक्काबक्का रह गए। उस समय प्रसार के मामले में एनबीटी, टाइम्स ऑफ इंडिया के लगभग साथ-साथ था। हालांकि, वह उस समय बॉम्बे और दिल्ली सिर्फ दो केंद्रों से ही प्रकाशित होता था। नीलाभ ने सवाल उठाया था कि “क्यों न इसकी जगह एनबीटी का अंग्रेजी संस्करण निकाला जाए।” इसको खामोशी के साथ खारिज कर दिया गया था, लेकिन नीलाभ का मानना था कि समीर जैन ने हिंदी के बाजार को समझने में गलती की थी।

इसी वजह से दैनिक भाष्कर और दैनिक जागरण और उसकी तरह के अन्य अखबारों को अपने पैर जमाने और आगे बढ़ने का मौका मिल गया।

इस बात ने आज हम जहां हैं उसकी राह बनाई। इसी बात ने नीलाभ को ऐसा योद्धा बना दिया।

नीलाभ ने समीर जैन से सवाल पूछने से पहले दोबारा नहीं सोचा था; और नीलाभ ने 21वीं सदी में उसके राजनीतिक समकक्ष नरेंद्र मोदी से भी सवाल करने से पहले कभी दोबारा नहीं सोचा।

नीलाभ! तुम्हारे दोबारा मिलने तक, हिंदी और अंग्रेजी दोनों में हम तुम्हारी हंसी को बहुत याद करेंगे।

(लेखक आउटलुक के पूर्व एडिटर इन चीफ और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के पूर्व सदस्य हैं)

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Published: 25 Feb 2018, 8:59 AM