लाॅकडाउन के दौरान फिर से जी उठी प्रकृति, पूरी दुनिया को मिली ये सीख क्या लाएगी नया विकास माॅडल
कोरोना वायरस ने दुनिया को हलकान कर रखा है। चीन से आए इस विषाणु ने तेजी से हमारे शहरों और अब गांवों को भी अपनी चपेट में ले लिया है। लाॅकडाउन के कारण हर आदमी अपने ही घर में कैद है। लेकिन इसका एक सुखद पहलू यह भी है कि पर्यावरण पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
अधिकांश लोग संभवतः अब भी यह नहीं समझ पा रहे कि कोरोना वायरस काम क्या और कैसे करता है। दुनिया भर में उपद्रव मचाने वाले इस वायरस को लेकर हमारे जिम्मेदार से लेकर आम आदमी तक ने अजीबो-गरीब प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं। ‘गो-कोरोना-गो’ कहने, तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का उल्लेख करने, ‘नमस्ते’ और शाकाहार आदि के मुगालते से इस वायरस से बचने के मंसूबे लाॅकडाउन के वक्त भी बांधे जा रहे हैं।
कई लोग अब भी मान रहे कि गो-मूत्र पीने, अनेक जड़ी-बूटियों या होमियोपैथिक दवाओं के सेवन, बाबा-बैरागियों के ताबीज आदि से कोरोना वायरस को समाप्त कर दिया जा सकता है। कहा जा रहा है कि चूंकि ज्यादातर अमीर लोग ही हवाई जहाज से सफर करते हैं और इसलिए वे ही इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं। इन प्रतिक्रियाओं से साफ है कि हमने इस बीमारी को कतई गंभीरता से नहीं लिया है।
इस बीमारी की गंभीरता को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के महानिदेशक टेडोस अदनाने ग्रबियेसस की बातों से समझा जा सकता है। उनके मुताबिक, इस वैश्विक महामारी को फैल कर पहले एक लाख रोगी तक पहुंचने में 67 दिन लगे थे, वहीं एक लाख से दो लाख लोगों के ग्रसित होने में सिर्फ 11 दिन और दो लाख से तीन लाख रोगी होने में मात्र 4 दिन लगे। अमेरिका, इटली और यूरोप में इस बीमारी से क्या हाल है, यह हम देख ही रहे हैं।
कोरोना वायरस या कोविड-19 नया वायरस है, जिसके बारे में हमें बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है। यह वायरस कुछ वर्ष पूर्व फैली बीमारी ‘सार्स’ के परिवार का है, लेकिन अच्छी बात यह है कि यह ‘सार्स’ वायरस की तुलना में कम घातक है। सभी उम्र के लोग इस बीमारी का शिकार हो सकते हैं। अधिक उम्र के लोग, खासकर ऐसे व्यक्ति जो पहले से ही किसी बीमारी, जैसे- डायबिटीज, अस्थमा, हृदय रोग, सांस संबंधी रोग आदि, से पीड़ित हैं, उनमें कोविड-19 बीमारी ज्यादा गंभीर रूप धारण कर सकती है।
इस गलतफहमी में कतई न रहिए कि गर्मी बढ़ेगी, तो यह बीमारी अपने आप खत्म हो जाएगी। ठंड, बर्फ तथा गर्मी के मौसम और नम जलवायु में भी यह वायरस फैलता है। आपकी कहीं आरंभिक जांच हो चुकी है और वह रिपोर्ट निगेटिव रही है, तब भी निश्चिंत रहने-जैसा नहीं है। एयरपोर्ट और रेलवे प्लेटफार्म पर थर्मल स्कैनर से जांच करने से बीमारी का पता नहीं लगता, सिर्फ बुखार की जानकारी होती है।
अब तक इस बीमारी की रोकथाम के लिए कोई वेक्सीन और इलाज के लिए दवाई की खोज नहीं हुई है लेकिन संतोष की बात यह है कि ज्यादातर लोगों में यह बीमारी गंभीर रूप में नहीं होती और स्वयं ठीक भी हो जाती है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के महानिदेशक डॉ. बलराम भार्गव के अनुसार, इस वायरस से संक्रमित होने पर 80 प्रतिशत लोगों को नहीं के बराबर तकलीफ होती है, 20 प्रतिशत में फ्लू-जैसे लक्षण दिखाई देते हैं और उनमें से भी पांच प्रतिशत को ही अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत पड़ती है। इस बीमारी से मृत्यु की दर दो से पांच प्रतिशत है। सरकारी विज्ञापनों और वैसे भी सोशल मीडिया में प्रसारित तरह-तरह के मैसेज से हम सब जानते ही हैं कि सूखी खांसी, तेज बुखार, गले में खराश और सांस लेने में तकलीफ होना इस बीमारी के प्रमुख लक्षण हैं।
यह अब भी ध्यान रखने की बात है कि इस बीमारी का प्रसार दो प्रकार से होता हैः एक, पीड़ित रोगी के खांसने या छींकने से जो छींटे सीधे हमारे ऊपर पड़ते हैं और उस व्यक्ति से हाथ मिलाने से और उस हाथ से अपने मुंह, आंख या नाक को छूने से। दूसरा, पीड़ित, प्रभावित व्यक्ति द्वारा स्पर्श की गई वस्तुओं के संपर्क में आने से। बीमारी से बचाव के लिए पीड़ित व्यक्ति से कम-से-कम तीन फुट दूरी बनाए रखना और साबुन या सेनेटाइजर से हाथ धोते रहना जरूरी है। पीड़ित व्यक्ति और उसकी देखभाल करने वाले मास्क पहनें, ताकि उनके द्वारा बीमारी के कीटाणु आगे न फैलें।
देश, दुनिया या समाज में इस बीमारी के प्रसार को सीमित करने और संक्रमण की श्रंखला को तोड़ने के लिए ही लाॅकडाउन- जैसा कदम उठाया गया, ताकि लोगों का आपस में संपर्क कम-से- कम हो। आईसीएमआर के एक मॉडल के अनुसार, लॉकडाउन से भारत में संक्रमण के 62 प्रतिशत तक कम होने की संभावना है। चीन के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। चीन ने वुहान और उसके आसपास के शहरों में पांच करोड़ जनसंख्या को लगभग घरों में बंद कर दिया था और उनके लिए भोजन और अन्य आवश्यक जरूरतें घर पर ही उपलब्ध करा दी थीं। इसके अलावा प्रयोगशाला जांच द्वारा रोगियों की खोज और उनके उपचार की व्यवस्था भी बीमारी पर नियंत्रण के लिए अत्यंत आवश्यक है। चीन ने यह भी किया। कम समय में अस्पताल का निर्माण किया। हमारे देश में भी सरकार ये सब कदम उठा रही है।
भारत में कोविड-19 का पहला पाॅजिटिव मामला 30 जनवरी, 2020 को मिला था। अभी हम बीमारी की स्टेज-2 में हैं, जिसमें बीमारी का स्रोत पता होता है। जल्दी ही हम स्टेज-3 में जा सकते हैं, जिसमें समाज में संक्रमण की वह स्थिति हो जाती है, जिसमें संक्रमित व्यक्ति को संक्रमण विदेश से आए या उसके परिवार के लोगों से नहीं बल्कि समाज से मिलता है। ऐसे में बीमारी के स्रोत का पता नहीं लगता।
आशा की किरण यह है कि शायद हम चीन और अन्य देशों के अनुभव का फायदा उठाकर बीमारी के चक्र को तोड़ पाएं। हम इस पर नियंत्रण करने की बेहतर स्थिति में हैं, लेकिन हमें सरकार और समाज- दोनों स्तरों पर पूरी ताकत झोंकनी होगी। हमारे पास स्वास्थ्य सेवाओं का पर्याप्त ढांचा नहीं है। सरकार, आम लोग, कंपनियां, निजी अस्पताल- सबको अपनी-अपनी भूमिका निभानी होगी। यह एक राष्ट्रीय आपदा है। इसमें निजी अस्पताल और कंपनियों को मुफ्त या बिना मुनाफे के सहयोग करना होगा।
बीमारी को फैलने से रोकने के लिए उठाए गए कदम- लॉकडाउन से देश, सरकार और समाज पर जो आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव होंगे, खासकर गरीब तबकों पर, उससे निपटने की रणनीति बनानी होगी। यह भी ध्यान रखना होगा कि सामान्य स्वास्थ्य सुविधाएं भी जारी रहें, ताकि अन्य बीमारियों से लोग प्रभावित न हों। मौजूदा मंदी के कारण स्थिति ज्यादा विषम है। लोग अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का ईमानदारी से पालन करें तो बेहतर।
वैसे, लॉकडाउन का एक सुखद पहलू यह भी है कि पर्यावरण पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। चीन और दुनिया भर में लोग इस बीमारी से मरे हैं, पर पर्यावरण साफ होने से प्रदूषण के कारण होने वाली मौतों में कमी आई है। वाहन कम चलने से दुर्घटनाओं में लोग कम मरे हैं। इटली में समु द्रम में डाॅल्फिन दिखाई दी। नहरों का पानी साफ हुआ है। क्या हम इस लाॅकडाउन के दौरान मिल रहे इस तरह के अनुभवों के आधार पर अपने विकास के मॉडल पर कुछ सोच सकते हैं?
(सप्रेस से साभार लेख में लेखक के अपने विचार हैं)
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