राष्ट्रीय युवा दिवसः स्वामी विवेकानंद का वह अमर संदेश, जो बताता है धर्मांधता और धर्म का अंतर
विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अगर इस महासमिति ने दुनिया को कुछ दिखाया है तो वह यही कि अच्छा चरित्र, पवित्रता और दया-दाक्षिव्य पृथ्वी के किसी एक ही धर्म की संपत्ति नहीं है। हर धर्म में बहुत ऊंचे चरित्र के नर-नारियों ने जन्म लिया है।
स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का एक बहुत अच्छा और सरल उपाय यह है कि उनका वह अतिविख्यात शिकागो भाषण हम पढ़ें जो उन्होंने साल 1893 में आयोजित विश्व धर्म संसद में दिया था। उन्होंने इस भाषण में कहा, “मुझे उस देश का नागरिक होने का गर्व है जिसने धरती के सभी धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है।”
इस विख्यात भाषण में स्वामी विवेकानंद ने कहा था- ‘जो धर्म पूरी दुनिया को परम सहिष्णुता और सभी मतों की सार्वजनीन स्वीकृति की शिक्षा देता है, मैं उसी धर्म का हूं और इस पर मुझे गर्व है।’
इस भाषण में स्वामी विवेकानंद ने सांप्रदायिकता और कट्टरवाद की कड़ी निंदा करते हुए कहा कि मानव सभ्यता की असहनीय क्षति करने वाली इन प्रवृत्तियों की अब मृत्यु हो जानी चाहिए। उनके ही शब्दों में- ‘धर्मांध लोग दुनिया में हिंसक उपद्रव मचाते हैं, बार-बार खून की नदियां बहाते हैं, मानव की सभ्यता को नष्ट करते हैं और एक-एक देश को निराशा में डुबाकर मारते हैं। धर्मांधता का यह भयानक दानव अगर न होता, तो मानव समाज आज जो है, उससे कहीं अधिक उन्नत होता। उस दानव की मृत्यु करीब आ गई है और मैं अंतःकरण से भरोसा करता हूं कि इस महासमिति के उद्घाटन के समय आज सुबह जो घंटाध्वनि हुई, वह धर्मोन्यत्तता की मृत्यु की वार्ता दुनिया में घोषित करें। एक ही चरम लक्ष्य की ओर अग्रसर मनुष्य के बीच एक-दूसरे के बारे में संदेह और अविश्वास का भाव समाप्त हो, तथा तलवार या कलम से दूसरे को पीड़ा देने की दुर्बुध्दि का अंत हो।’
इसी सम्मेलन के एक अन्य भाषण में स्वामी जी ने घोषणा की- “जल्द ही हर धर्म की पताका पर लिखा होगा विवाद नहीं, सहायता; विनाश नहीं, संवाद; मतविरोध नहीं, समन्वय और शान्ति।” इस विश्व धर्म सम्मेलन के निष्कर्ष के तौर पर उन्होंने कहा- “अगर इस धर्म महासमिति ने दुनिया को कुछ दिखाया है तो वह यही, कि अच्छा चरित्र, पवित्रता और दया-दाक्षिव्य पृथ्वी के किसी एक ही धर्म की संपत्ति नहीं है। प्रत्येक धर्म में बहुत ऊंचे चरित्र के नर-नारियों ने जन्म लिया है।”
स्वामी विवेकानंद ने अध्यात्म की ऐसी राह दिखाई जिसमें व्यर्थ के अंधविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं था और तर्कसंगत ढंग से समाज में व्याप्त दुखों और समस्याओं के कारणों की खोज कर उन्हें दूर करने को अध्यात्म की राह माना गया था। उन्होंने सभी धर्मों की एकता पर बहुत जोर दिया। वे सहनशीलता से भी एक कदम आगे गए और उन्होंने विभिन्न धर्मों के आपसी मेल और समन्वय से एक बेहतर समाज और देश बनाने का आह्नान किया। अतः स्वामी जी जब नैतिक शिक्षा की बात करते हैं तो वे किसी एक धर्म से जुड़ी संकीर्ण सोच की बात कतई नहीं करते हैं, अपितु वे तो ऐसे सार्वभौमिक और शाश्वत जीवन मूल्यों की बात करते हैं जो सभी समुदायों में अच्छे चरित्र निमार्ण के लिए मान्य हैं।
स्वामी जी ने धर्म की बहुत सार्थक व्याख्या करते हुए कहा कि ईश्वर सभी प्राणियों में है और ईश्वर की सेवा करनी है तो दुखी मनुष्यों और सभी संकटग्रस्त जीवन-रूपों की सेवा करनी चाहिए। यही ईश्वर की वास्तविक उपासना है। उन्होंने देशवासियों और युवाओं से आह्नान किया कि वे सबसे कमजोर, अभावग्रस्त और उपेक्षित लोगों की सहायता के लिए अपने को समर्पित करें। उन्होंने सभी धर्मों की एकता का जो संदेश दिया है, वह पूरे विश्व के लिए आज बहुत जरूरी हो गया है, जबकि कई स्तरों पर नई तरह की असहिष्णुता नए संकट उपस्थित कर रही है। अतः विश्व स्तर पर भी स्वामी जी के संदेश को नई स्थितियों से जोड़ते हुए प्रसारित करना आवश्यक है।
स्वामी विवेकानंद के प्रयासों का विशेष महत्त्व यह था कि वे देश और समाज की आध्यात्मिक जागृति के अग्रणी प्रयास थे। उस समय एक बड़ी समस्या यह थी कि धर्म और अध्यात्म की दुनिया अंधभक्ति, अंधविश्वास और कर्मकांडों पर आधारित थी और समाज की वास्तविक भलाई तथा प्रगति से कट गई थी। पर स्वामी विवेकानंद के लिए तो सबसे बड़ी बात यह थी कि वे अपने आसपास के समाज के दुख-दर्द के वास्तविक कारणों की गहराई तक जाना चाहते थे और फिर इन कारणों को समझकर इन्हें दूर करना चाहते थे। उनके लिए धर्म और अध्यात्म की यही राह थी कि वे समाज के दुख-दर्द को दूर करने से जुड़ें।
यही वजह थी कि उन्होंने तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाया। जिसे सत्य की खोज करनी है, समाज में व्याप्त दुख-दर्द और पिछड़ेपन के वास्तविक कारणों की खोज करनी है, उसे तो तर्कसंगत बनना ही पड़ेगा। आंखे मूंदकर जो समाज में कहा जा रहा है बस उसे स्वीकार कर लेने से काम नहीं चलेगा। अतः स्वामी विवेकानंद ने तर्कसंगत दृष्टिकोण की राह अपनाई। सबसे अधिक श्रद्धा उन्हें अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के प्रति थी, पर उनसे भी प्रश्न करते रहते थे, क्योंकि सत्य की गहराई तक पंहुचने के लिए सवाल उठाते रहना और वैज्ञानिक तर्कसंगत सोच की राह पर चलकर उनके सवाल खोजना जरूरी है। गहरी श्रद्धा के रिश्ते में भी तर्कसंगत सवाल पूछने की गुंजाईश हमेशा बनी रहनी चाहिए।
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