मुजफ्फरपुर से साबित हो गया कि जन स्वास्थ्य की नाकामी का स्मारक है ‘आयुष्मान भारत’

बिहार का मुजफ्फरपुर हो या यूपी का गोरखपुर इनसेफलाइटिस या अन्य वायरल संक्रमण से बच्चों की मौतें हर वर्ष इन्हीं महीनों के दरम्यान ज्यादा होती रही हैं। पर हमारे शासन तंत्र की संवेदनहीनता, बढ़ती गरीबी, बेहाली, कुपोषण और जन-स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में भारी कमी के चलते यह सिलसिला कभी रुकता नहीं है।

फोटो : सोशल मीडिया
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उर्मिलेश

बीते 10 मार्च को रॉयटर्स, बीबीसी और अल-जजीरा सहित दुनिया की तमाम समाचार एजेंसियों ने खबर दीः ट्यूनिशिया के स्वास्थ्य मंत्रीने राजधानी ट्यूनिश के एक अस्पताल में 11 नवजात बच्चों की मौत के चलते इस्तीफा दे दिया। समझा जाता है कि इन बच्चों की मौत किसी खास तरह के इंफेक्शन के चलते हुई। ‘महाशक्ति’ या ‘विश्वगुरु’ बनने की नारेबाजी में मस्त भारत जैसे विशाल देश के आगे छोटा सा ट्यूनिशिया कहीं नहीं ठहरता। पर वहां नवजात बच्चों की मौत पर सरकार का संबद्ध मंत्री इस्तीफा दिए बगैर नहीं रह सकता। वह नैतिक आधार पर इस्तीफा देता है।

क्या बिहार या भारत के राष्ट्रीय शासन तंत्र में आज हम ऐसी किसी नैतिकता की कल्पना कर सकते हैं? मुजफ्फरपुर और उत्तर बिहार के कुछ हलकों में अब तक दो सौ से ज्यादा बच्चों की मौत के बाद भी बिहार या केंद्र सरकार पर किसी तरह का नैतिक दबाव नजर आता है? जिस वक्त मुजफ्फरपुर के अस्पताल में बच्चों की मौतें हो रही थीं, उस वक्त एक उच्चस्तरीय बैठक के दौरान बिहार के स्वास्थ्य मंत्रीऔर प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष मंगल पांडे बैठक की व्यस्तता के बीच अपने किसी निकटस्थ से क्रिकेट मैच का स्कोर पूछते नजर आए। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बच्चों की मौत का सिलसिला शुरू होने के कई दिनों बाद मुजफ्फरपुर स्थित अस्पताल का दौरा किया।


केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्द्धन ने 2014 में इसी मंत्रालय के प्रभारी के तौर पर मुजफ्फरपुर का दौरा किया था। इसी तरह तब भी बच्चों की मौतें हो रही थीं। मौत का कारण एक्यूट इनसेंफलाइटिस सिंड्रोंम (एईएस) बताया गया था। हर्षवर्द्धन ने तब कहा था कि इस रहस्यमय इनसेफलाइटिस के वायरस का पता लगाने और इससे प्रभावित मरीजों के इलाज के लिए भारत सरकार यहां रिसर्च-आधारित 100 बेडवाला विशेष अस्पताल बनवाएगी। कैसी विडंबना है, जून 2019 में भी हर्षवर्द्धन को हू-ब-हू वही वादा करके मुजफ्फरपुर से दिल्ली लौटना पड़ा।

विफलता का स्मारक ‘आयुष्मान भारत’

हर्षवर्द्धन स्वयं प्रशिक्षित चिकित्सक हैं। उनकी सरकार ने बहुप्रचारित ‘आयुष्मान भारत योजना’ (राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अधीन) को देश भर के अपेक्षाकृत गरीब लोगों के लिए अब तक की सबसे लाभकारी और कारगर स्वास्थ्य योजना घोषित कर रखा है। हर्षवर्द्धन ने अपने दौरे में जिस दिन मुजफ्फरपुर में प्रेस कांफ्रेंस की, बच्चों की मौत का आंकड़ा 120 से ऊपर पहुंच चुका था। स्वयं मंत्री जी ने देखा कि कमिश्नरी स्तर के एक प्रमुख शहर और आसपास के तहसील मुख्यालयों पर बने अस्पतालों में दवाएं और डॉक्टर नदारद थे। क्या उन्होंने केंद्र को आधिकारिक तौर पर इस बात की जानकारी दी कि सरकार की बहुप्रचारित स्वास्थ्य योजना-‘आयुष्मान भारत’ मुजफ्फरपुर में विफलता का स्मारक बन चुकी है? जिस राज्य में प्राथमिक-क्षेत्रीय स्वास्थ्य केंद्र, रेफरल अस्पताल और मेडिकल कॉलेज अस्पताल तक दवा, उपकरण और चिकित्सकों की कमी से जूझ रहे हों, स्वास्थ्य सेवा के लिए सुसंगत आधारभूत संरचना न हो, वहां ‘आयुष्मान भारत’ जैसी बीमा आधारित स्वास्थ्य योजना की क्या उपयोगिता है?


एचडीआई में फिसड्डी

एक्यूट इनसेफलाइटिस सिंड्रोम से प्रभावित बच्चों के इलाज में प्रशिक्षित और विशेषज्ञ चिकित्सक भी ‘लक्षण-आधारित इलाज’ की रणनीति अपनाने का सुझाव देते हैं। गोरखपुर से लेकर वैशाली और गया से लेकर मुजफ्फरपुर में अब तक के अनेक मामलों में खास ढंग के इनसेफलाइटिस के वायरस को लेकर विशेषज्ञों में स्पष्टता भले न हो, लेकिन आमतौर पर सभी मानते हैं कि ऐसे वायरस से प्रभावित बच्चे अपेक्षाकृत कम उम्र और खराब सेहत वाले होते हैं। खराब सेहत से डॉक्टरों का मतलब होता है, जिन बच्चों में पोषक विटामिन्स, आयरन और सोडियम आदि की मात्रा जरूरत से बहुत कम हो।

बिहार शिशु कुपोषण और मानव विकास के मामले में देश के अत्यंत दरिद्र राज्यों में शुमार है। राज्यों (केंद्र शासित क्षेत्र सहित) के मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में 1995 से 2017-18 के बीच यूपी और बिहार क्रमशः 28 और 29वें नंबर पर रहते आए हैं। कुपोषित बच्चों के मामले में भी बिहार की स्थिति अत्यंत दयनीय है। ऐसे में बच्चों को खतरनाक बीमारी या वायरस के प्रकोप से बचाना आसान नहीं है। मुजफ्फरपुर या वैशाली में लीची को लेकर उठे विवाद पर अभी तक किसी सुसंगत मेडिकल शोध से ठोस नतीजा नहीं निकला है। ऐसे में ज्यादातर विशेषज्ञ मानते हैं कि एईएस के प्रकोप के पीछे भूख और कुपोषण प्रमुख कारण हैं।


सेहत की चिंता सबसे कम

भारत जन-स्वास्थ्य पर विकासशील मुल्कों में सबसे कम खर्च करता है। इस वक्त भारत अपने जीडीपी में 1.4 फीसदी जन-स्वास्थ्य पर खर्च कर रहा है। सरकार ने पिछले साल 2.5 फीसदी खर्च करने का वादा किया था। ताजा आंकड़े बताते हैं कि वास्तविक खर्च 1.4 फीसदी से आगे नहीं बढ़ सका। दुनिया के कई विकासशील देश 4 से 7 फीसदी के बीच खर्चकर रहे हैं।

यूरोप के विकसित देश, अमेरिका और आस्ट्रेलिया में यह खर्च 6 से 14 फीसदी के बीच है। इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि अंतरिक्ष में अपना स्वतंत्र स्टेशन और बुलेट ट्रेन चलाने में जुटे हमारे देश की प्राथमिकताएं कैसी और कितनी विचित्र हैं! बिहार में जनस्वास्थ्य की दशा भारतीय जन स्वास्थ्य की स्थितिके सबसे निचले स्तर की है। समाज और उसकी सेहत पर ध्यान देने के मामले में बिहार की लापरवाही बेहद आपराधिक है। ऐसे कम राज्य मिलेंगे, जहां स्वास्थ्य बजट में बढ़ोत्तरी के बजाय कटौती होती रहे। पीआरएस के एक समीक्षात्मक आकलन के मुताबिक 2017-18 से 2018-19 के बीच स्वास्थ्य बजट में तीन प्रतिशत की बढ़त दिखती है। सन् 2017-18 में यह 7534 करोड़ था। सन् 2018- 19 में यह राशि हो गई-7794 करोड़। लेकिन इस आवंटन में पटना और मुजफ्फरपुर स्थित दो नए प्रस्तावित कैंसर अस्पतालों के लिए निर्धारित क्रमशः 120 करोड़ और 150 करोड़ की राशि शामिल है। इन दोनों को निकालकर बजट की राशि के साथ विभागीय स्थापना खर्च और वास्तविक स्वास्थ्य सेवा खर्च का हिसाब निकालें तो वह आंकड़ा बेहद नाकाफी होगा। इस वक्त भारत में 11082 मरीज एक एलोपैथिक-प्रशिक्षित डाक्टर पर निर्भर हैं, जबकि बिहार में यह आंकड़ा 28391 का है। एक अन्य अधिकृत आंकड़े के मुताबिक बिहार में तकरीबन 82 फीसदी लोग निजी क्षेत्र में अपना इलाज कराते हैं, जबकि संपूर्ण भारत में यह आंकड़ा 74 फीसदी है।


बिहार में प्रति-व्यक्ति स्वास्थ्य का वार्षिक खर्च 348 रुपये है, जबकि भारत के संदर्भ में यह आंकड़ा 724 रुपये है। बिहार के स्वास्थ्य बजट पर नजर डालें, तो तस्वीर साफ हो जाती है कि उसके जिला स्तरीय अस्पताल और प्रांतीय मेडिकल कॉलेज अस्पताल तक इस कदर दुर्व्यवस्था के शिकार क्यों हैं? क्या आपको मालूम है कि जिस मुजफ्फरपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में इस वक्त सैकड़ों बच्चे एइएस के वायरस से पीड़ित होकर जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं, वहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हालिया दौरे से पहले तक एक भी विशेषज्ञ सीनियर शिशु रोग चिकित्सक तक तैनात नहीं था।

भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडे राज्य के स्वास्थ्यमंत्री हैं। क्या उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि मुजफ्फरपुर स्थित 600 बेड वाले बड़े मेडिकल कॉलेज अस्पताल में एक भी विशेषज्ञ शिशु रोग चिकित्सक नहीं है? मजे की बात है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में राज्यमंत्री अश्विनी चौबे भी बिहार के बड़े भाजपा नेता हैं और एक समय नीतीश कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री रह चुके हैं।

बिहार का मुजफ्फरपुर हो या यूपी का गोरखपुर या दूसरे अन्य इलाके, रहस्यमय बताए जाने वाले इनसेफलाइटिस या अन्य वायरल संक्रमण से बच्चों की मौतें हर वर्ष इन्हीं महीनों के दरम्यान ज्यादा होती रही हैं। कभी यह संख्या घटती है, कभी बढ़ जाती है। पर हमारे शासन तंत्र की संवेदनहीनता, बढ़ती गरीबी, बेहाली, कुपोषण और जन-स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में भारी कमी के चलते यह सिलसिला कभी रुकता नहीं है। मौजूदा सत्ताधारियों की प्राथमिकता में धर्म-संप्रदाय के आधार पर जनता की गोलबंदी तो है पर जनता के स्वास्थ्य का सवाल फिलहाल कहीं नहीं है। ऐसे में भविष्य की तस्वीर बहुत आश्वस्त नहीं करती।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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