नाजुक दौर में देश और मुसलमान, उलेमाओं को समझना होगा भरोसे और एकता की बात सिर्फ शिक्षा देने के लिए नहीं
इस नाजुक दौर में मुस्लिम संस्थाओं और धार्मिक नेताओं की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। ऐसे में भी ये धार्मिक नेता अपने छोटे-छोटे मकसद और जिद के लिए आपस में मतभेद रखेंगे, तो फिर ये आम लोगों से कैसे बेहतर होंगे और फिर नेतृत्व उन लोगों को देने की क्या जरूरत है?
जमीयत उलेमा ए हिंद ने देश की आजादी में अहम किरदार निभाया और आजादी के बाद देश में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक सरकार को परवान चढ़ाने में अपनी पूरी क्षमताओं का इस्तेमाल किया। इस साल इसकी स्थापना के पूरे सौ साल हो गए हैं। मौलाना महमूदुल हसन ने अपने साथियों के साथ जिस संस्था की नींव डाली थी वह दुनिया और देश की तरह कई उतार-चढ़ाव से गुजरी है।
इस संस्था ने जहां देश के निर्माण और विकास में सकारात्मक किरदार निभाया, वहीं मुसलमानों में धार्मिक जागरूकता और समाज सुधार के लिए बढ़-चढ़कर काम किया। उतार-चढ़ाव में संस्था का बंटवारा भी एक अहम अध्याय रहा है। वैसे तो कई बार स्वभाव और वैचारिक मतभेद के कारण लोगों ने संस्था से किनारा किया और दूसरी संस्थाओं से जुड़ने के अलावा नई संस्थाएं भी बना डालीं। लेकिन जमीयत उलेमा हिंद न तो दुनिया की ऐसी पहली संस्था है जिसके साथ ऐसा हुआ हो, और न ही आखिरी।
साल 2008 में जमीयत उलेमा हिंद में मतभेद हुए। इसके बाद से हिंदुस्तान में एक ही नाम से दो संस्थाएं काम करने लगीं। एक जमीयत की बागडोर मौलाना अरशद मदनी के हाथ में है, तो दूसरी जमीयत का काम मौलाना महमूद मदनी संभालते हैं, जबकि दोनों रिश्ते में चाचा-भतीजे हैं। दोनों अपनी-अपनी टीम के साथ संस्था को सक्रियता के साथ चला रहे हैं। पिछले कुछ सालों से माहौल में यह बेहतरी आई है कि कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर दोनों एक प्लेटफार्म पर भी साथ मौजूद होते हैं।
साल 2008 और इसके बाद के कुछ साल तक जो माहौल था, अब वैसा नहीं रहा। दोनों ने अपनी- अपनी संस्थाओं को सही और वास्तविक साबित करने के लिए अदालत का भी दरवाजा खटखटाया है। इस बहस से कोई फायदा नहीं है कि दोनों को क्या फायदा और क्या नुकसान है और दोनों ने ऐसा क्यों किया। इस पर बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है, बल्कि कुछ लोगों ने दोनों के बीच सुलह कराने की भी कई बार कोशिश की है।
समस्या यह है कि इस्लाम में अल्लाह पर यकीन और आपसी एकता पर बहुत कुछ कहा गया है। इस्लाम क्या, वैसे भी बचपन से सात लकड़ियों वाला किस्सा हम सब सुनते आए हैं, जिसमें माता-पिता अपने बच्चों को एकता के महत्व और आवश्यकता को समझाने के लिए बताते हैं कि अगर ये लकड़ियां अलग हो जाएंगी तो ये कमजोर हो जाएंगी और उनको तोड़ना आसान हो जाएगा। लेकिन अगर ये एक साथ रहेंगी, तो ये ताकतवर रहेंगी और उनको कोई तोड़ नहीं सकता।
मौलाना अरशद मदनी और उनके भतीजे महमूद मदनी को यह सब बताने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जिस परिवार से उनका संबंध है और जिस माहौल में तथा जैसी शिक्षा उन्होंने प्राप्त की है तो ये सब बातें उन्हें घुट्टी में ही मिल गई होंगी। लेकिन इसके बाद भी अगर ऐसे हालात पैदा हुए हैं, तो आम मुसलमानों के लिए यह बहुत तकलीफ वाली बात है। आम मुसलमान यह सोचने पर मजबूर है कि अल्लाह पर यकीन और एकता की शिक्षा देने वाले खुद इस पर अमल क्यों नहीं करते। क्या ये बातें केवल शिक्षा देने के लिए हैं, क्या ये बातें केवल दूसरों को समझा कर लोगों में अपनी लोकप्रियता और सम्मान बढ़ाने के लिए हैं?
दुनिया, देश और मुसलमान बहुत नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे नाजुक दौर में मुस्लिम संस्थाओं और धार्मिक लीडरों की जिम्मेदारियां और बढ़ जाती हैं। अगर ऐसे दौर में भी ये धार्मिक लीडर अपने छोटे-छोटे उद्देश्यों और अपनी जिद के लिए आपस में मतभेद जारी रखेंगे, तो फिर ये कैसे आम लोगों से बेहतर होंगे और फिर नेतृत्व उन लोगों को क्यों देने की आवश्यकता है।
कोई कुछ भी कहे मैं यह क्यों न कहूं कि उनके आपसी मतभेद का सीधा मतलब अल्लाह पर यकीन और महत्वपूर्ण समाजी कार्यों से हटना है। मुझे नहीं लगता कि उनको इसके बाद यह नैतिक हक प्राप्त है कि वे धार्मिक एकता, अल्लाह पर यकीन और सब्र पर लोगों को शिक्षा दें। अल्लाह ताला उनको सद्बुद्धि दे, ताकि वे अपनी वास्तविकता और अपनी जिम्मेदारियों को समझें।
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