मृणाल पाण्डे का लेख: जीवन के अर्थ का अनर्थ हो रहा है

क्या भारीजल की निकासी और नदियों, जलधाराओं के कुदरती बहाव के नियमों को समझकर ताबड़तोड़ शहरी विकास रोका गया? नहीं। इधर, निर्माण कामों को जो अतिरिक्त शह मिली, उसने पुराने तालाब नष्ट कर, नदियों पर थर्मल प्लांट और पर्यटन प्रोत्साहक पक्के घाट बनाकर बाढ़ कीमारक क्षमता कहीं अधिक बना दी है।

फोटो: दिनेश जुयाल
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मृणाल पाण्डे

वैसे तो जीवन के बारे में गंभीर दार्शनिक विचार राजकीय मुखों से बहुत कम ही निकलते हैं; फिर भी इंग्लडैं की महारानी के पोते प्रिंस विलियम की हाल में कही एक बात सटीक थी। टीवी इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा कि आज एलन मस्क या जेफ बेजोस सरीखे धन कुबेर और उनके उतने ही अमीर साथी अंतरिक्ष में चांद- जैसे सूदुर ग्रहों-उपग्रहों की बेशकीमती यात्राओं को हुमक रहे हैं। बेहतर हो कि इस समय वे हमारे और खुद अपने पैरों तले की जमीन, इस पृथ्वी के संरक्षण को समय और आर्थिक मदद दें जो ग्लोबल वार्मिंग से दिनों-दिन छीज रही है।

पिछले कुछ सालों से भारत दुनिया के अधिकतर तरक्कीयाफ्ता लोकतंत्रों की नकल करते हुए अधिकाधिक संपन्नता की चुहा दौड़ में आठ पहर चौदहों याम दौड़ रहा है। उसके एक-दुसरे से गूत्थें शेयर बाजार, हवाला बाजार, कूरियर, मोबाइल मेसेजिंग, मीडिया के डिजिटल प्लेटफॉर्म कभी नहीं सोते। गति और शक्ति को शिवलिंग की तरह पूजने का फल यह हुआ है कि जनता और नेता कोल्हू का बैल बनते जा रहे हैं- आंखों पर पट्टी बांधे बिना व्यतिक्रम के लगातार चलते हुए। मीडिया बार-बार भक्तिभाव से शीर्ष नेतृत्व की 24 घंटे काम करने की धुन पर शत-शत नमन करता रहता है। राजनीति या अर्थजगत में शिखर नेता को न नींद, न सुखद सपने, न विश्राम। कभी-कभार वे तो फिर भी कुछ समय के लिए बाहर चले जाते हैं, खास हवाई जहाजों में। रात गए खास स्पा में उसके थके बदन पर सुगंधित तेल मलकर बेहतरीन पोषाहार खिलाकर वे तंदरुुस्त रहते हैं, ताकि शिखर वार्ता की फोटो ऑप, योगासन, मेडिटेशन के रूटीन के बाद वे फिर काम की दौड़ पर जा निकलें। शेष मध्यवर्गीय लोग जो वेतनभोगी अनुचर हैं, उनके छोटे-छोटे सपने छोटी-छोटी महत्वाकांक्षाएं हैं: बच्चे अच्छी जगह पढ़ने लगें, आईआईटी आदि में दाखिला पा जाएं, अफसर बन जाएं, खुद अपने लिए सालाना भत्ते की बढ़ोतरी और छोटे-मोटे तरक्की के मौकों के लिए वे हर मंगल-सनीचर मंदिर जाते हैं, या जुमे को नमाज पढ़ते या इतवार को चर्च में प्रार्थना करते हैं। सबने मतदाता पत्र, पैन कार्ड, आधार कार्ड बनवाने को जब कहा गया, बिना चीं- चपड़ बनवा लिया, उनको लिंक कराने को कहा गया, सो भी करवाया। फिर कोल्हू के चक्कर से जा जुड़े। किसी का दायरा छोटा, किसी का बड़ा।


इस फसाने में निपट गरीबों का कोई जिक्र नहीं। इधर, जब से ऐसी विभाजित सामाजिक दशा और जीवन शैली ने कार्बन उत्सर्जन और पृथ्वी की सतह गरमाने के मुद्दे उभारे हैं, विकासशील देशों में नेता और प्रशासक ताजा कुदरती आपदाओं का दोष ग्लोबल वार्मिंग पर डालकर अमीर देशों द्वारा उपभोगवाद की अति की तरफ उंगली उठाने लगे हैं। लेकिन याद रखें कि इसमें हमारा विनम्र योगदान भी कम नहीं है। बाढ़ कोई अचानक आ जाने वाला पाहुना नहीं। कुदरत की तरफ से तो देश के हर भाग में मानसून के आने का समय और भारी बरसात की संभावनाएं लगभग तय हैं। यह भी सब जानते आए हैं कि केरल में हर साल ठीक एक जून से मानसून तेज बौछारें लाता है जो दो-तीन सप्ताह में हिमालयीन क्षेत्र तक जा पहुंचता है। आज पुराने लोगों से बात करने पर साफ होता है कि मौसम का ऐसा बिगड़ा मिजाज उन्होंने भी बहुत कम देखा है कि नवरात्रि के बाद भी भारी बारिश होती रहे। जंगल दावानल से मिट जाएं, ग्लेशियर दुर सिमट चलें। शोर इस तरह हो रहा है मानो दोष पराली जलाने वाले किसानों या बड़े परिवारों वाले गरीबों विशेषकर बाहरी देशों से उमड़ आए शरणार्थियों का है। वे ही तमाम संसाधन दीमक की तरह कुतर रहे हैं। बात इसके उलट है। प्रदूषक कोयले का भरपूर इस्तेमाल करने वाले बड़े अमीर उपक्रम, कश्मीर और उत्तराखंड में पर्यटन से भरपूर कमाई को ललकते नेता- बिल्डरों और भू माफिया तथा पहाड़ों एवं नदियों का ताबड़तोड़ भट्टा बिठाकर धार्मिक पर्यटन की ध्वजा जगह-जगह गाढ़ रहे बाबा लोग और उनकी मदद से रातों-रात करोड़पति बने छुटभैये नेताओं के अवैध उपक्रम इस अनाप-शनाप दोहन की सबसे बड़ी वजह हैं। भयावह नतीजे तो हम गए बरसों में देख रहे हैं। पर सच पूछिए, भारी बारिश की पूर्व सचू नाओं के बाद भी क्या कोई देशव्यापी तैयारी की गई? क्या भारी जल की निकासी और नदियों, जलधाराओं के कुदरती बहाव के नियमों को समझकर ताबड़तोड़ शहरी विकास रोका गया? नहीं। उलटे उनका विरोध करने वाले लोगों तथा मीडिया को हर तरह की सजा दी जाने लगी। इधर, निर्माण कामों को जो अतिरिक्त शह मिली, उसने पराुने तालाब नष्ट कर, नदियों पर थर्मल प्लांट और पर्यटन प्रोत्साहक पक्के घाट बनाकर बाढ़ की मारक क्षमता कहीं अधिक बना दी है। पहले केरल को देवताओं की भूमि और फिर उत्तराखंड को देवभूमि कह कर बेचा गया। नतीजा भारी भीड़ और हर कहीं मकानात का निर्माण। अब भौंचक्के प्रशासन के देखते-देखते बादल फटने से तमाम सड़कें, हिल रिसॉर्ट, फाटकदार भव्य कालोनियां, बड़े-बड़े भारतीय और विदेशी उपक्रमों की इमारतें, त्वरित ट्रांसपोर्ट मार्ग और रेल लाइनें, दफ्तर, घर, हवाई अड्डे सब जलमग्न होते जा रहे हैं, प्रशासन स्तब्ध है। बस अब सेना हिलोरे ले रहे जल के बीच बचाव राहत कार्य कर रही है। हमारे यहां समाज जितना कमजोर होता जाता है, लोकल सवालों को लेकर जनता की आकुलता और शिखर से जनता तथा प्रशासन का संवाद उतना ही घट जाता है। संवादहीनता की ऐसी ही कुछ स्थिति संसद में भी बन चुकी है जहां जाति- धर्म के आधार पर बहुसंखुयावादी गठजोड़ द्वारा बहुलतावादी दलों को पीछे धकेल दिया गया है। भारी बहुमत के भरोसे ध्वनिमत से बिना बहस विवादास्पद बिल पारित हो जाते हैं जिनसे लोकतंत्र के ढांचे की बुनियादी प्राथमिकताएं और मानवाधिकारों की व्याख्या बदली जा रही है। बात जब हुई तो बस नेतृत्व की तारीफ के बाद जीडीपी ग्रोथ, शेयर बाजार के चढ़ाव, तथा ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के दिखाए पैमानों पर ही घुमती रहती है। वणिज व्यापार, लोन और बैंकिंग, मीडिया और विदेश नीतियां और बाबुशाही ही नहीं, मीडिया के कार्यकर्ताओं की शक्ल और ड्यूटियां तक शिखर ही तय कराता है। इतिहास गवाह है कि हर मुद्दे पर अपनी धमाकेदार जीत मीडिया की मार्फत तुरंत दर्ज कराने की ऐसी निर्मम उतावली अंतत: कितनी भारी पड़ती है।

कुदरत पर मनुष्य की फतह का जुनून जो पश्चिमी देशों से उमड़ा था, उसने सारी दुनिया को ग्लोबल बाजारों की मार्फत बेचा। कोविड से पहले की दुनिया की समृद्धि उसी जुनून से उपजी थी। पर आज उस जीवन शैली ने खतरनाक गैसों के उत्सर्जन से ग्लोबल ताप इस हद तक हर जगह बढ़ा डाला है कि अमेरिका, जापान, फिलिपींस, चीन या भारत में केरल से ओडिशा तक नगरियां प्रलयपयोधि के जल से झंझावातों से डूब रही हैं, हिमालय क्षेत्र से लेकर अमेरिका और ब्राजील तक के विशाल जंगल आग से नष्ट हो रहे हैं। पर फिर भी जरूरी सबक नहीं सीखे जा रहे। भारत सहित तमाम देश कभी उपनिवेशवादी ताकतों ने जैसे उनके मूल निवासियों की जीवनी को उजाड़कर जंगलों को कटवाया, वहां कोयले और अयस्क की खदानों को दुहा, पयस्विनी नदियों को गाद से भरने वाले बड़े बांध बनाए और नहरें काटीं, ठीक वैसा ही अधिकाधिक मुनाफा कमाने और अपने मित्रों की जगर-मगर जीवन शैली के लिए ऊर्जा और संसाधन दहुने के लिए हमारी अपनी सरकारें अभी भी कर रही हैं। वही टेमप्लेट, अमीरगरीब को लेकर वैसी ही भेदभावपूर्ण नीतियां। प्रकृति का निर्मम दोहन!


युधिष्ठिर, अशोक से लेकर चर्चिल तक कई बड़े लोगों का शासन निर्मम दमनकारिता से सब कुछ अनुशासन परक और सुंदर बनाने की मुहिम के नाम पर शुरू होता है। पर दूसरों को वही करने की कोई छूट या अवसर वे नहीं देना चाहते। पहले खास तरह के हिंदुत्व के विचार का प्रचार, फिर उससे भिन्नता दिखने पर षडयंत्र का हल्ला करना इससे देश या स्वयं नेताओं को भी अर्थमय जीवन की राह नहीं मिल सकती। सार्थक जीवन का मतलब अगर बुहत सारा पैसा कमा लेना है, तो समाज के समृद्ध वर्ग के पास उसकी कमी नहीं। उनके लिबास कभी शुद्ध सफेद, कभी भगवा, तो कभी बहुरंगी बनते रहते हैं। इसने धर्म की भी एक नई दुनिया गढ़ डाली है जहां धर्म के खास मॉल हैं। वहां विराजते ठकुरसुहाती करने वाले कई बाबा, गुरु और उनके चेले अमीरों के लिए विचार से लेकर आहार तक पर ‘हिन्दुत्व’ की विचार परंपरा पर शिविर लगा रहे हैं। बाहर से भी ‘येस वी कैन डू, वी विल’- जैसे मुहावरे ओबामा से उधार ले लिए गए हैं। शिखर नेतृत्व के लिए अलग कक्षाएं या गुफाएं हैं, एकल धयान मनन की।

फिर भी कलियुग में इस नई तरह के धर्मयग का अवतरण शांति नहीं देता। बहुत धर्म का पसारा हो जाए तो खुद को छोड़ सब नास्तिक-पापी ही दिखने लगते हैं। कभी जब वक्त मिले तो पूछिए, इस सारी मारामारी से मिला क्या? क्या यह जय-पराजय से भी बुरी नहीं जो अपने ही लोगों के रक्त से सनी हई है? वैज्ञानिक कह रहे हैं महाप्रलय तक वैसे बहुत कम समय बचा है। फिर भी शायद कभी बड़े लोग जब हिमालय की गुफा में ध्यान लगाएं तो खुद से पूछ ही लें, ए नो मीनिंग सूं बाबा?

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