मृणाल पाण्डे का लेख: कौन बनेगा मुख्यमंत्री?
आज यह यकीन करना कठिन है कि कभी (1956 में) देश के सारे राज्यों का पुनर्गठन हुआ था जिसने राज्यों की ब्रिटिश भारत की सभी पुरानी इकाइयों (सूबों, देसी रियासतों के विलय से बने राज्यों) को मिटा कर प्रदेश और केंद्रशासित राज्य बनाए।
आज यह यकीन करना कठिन है कि कभी (1956 में) देश के सारे राज्यों का पुनर्गठन हुआ था जिसने राज्यों की ब्रिटिश भारत की सभी पुरानी इकाइयों (सूबों, देसी रियासतों के विलय से बने राज्यों) को मिटा कर प्रदेश और केंद्रशासित राज्य बनाए। यह होने से कई तरह की पुरानी प्रशासकीय भिन्नताएं मिटीं और माना गया कि आगे से हमारे संघीय गणराज्य में तमाम राज्य केंद्र के लिए एक ही तरह की स्वायत्त इकाइयां माने जाएंगे। केंद्र में सरकार चाहे किसी भी दल की आए-जाए, उसके सब राज्यों के साथ हमेशा मर्यादित और आपसी भरोसे के रिश्ते रहेंगे। यही नहीं, गवर्नरों का स्थानीय जनता के प्रति उत्तरदायित्व समझते हुए उनको जटिल मसलों पर स्वविवेक से अंतिम फैसला लेने का हक दिया गया जो राष्ट्रपति के पास भी नहीं है।
इस सब के कई दशक बाद धीमे-धीमे देशी-विदेशी ताकतों के लिए पोलो का मैदान बनते चले गए कश्मीर के तिफाड़ होने पर चर्चा करना तो आज बेकार है, पर दूसरे क्षेत्रीय राज्यों में भी केंद्रीय सरकारों की उपेक्षा या अत्यधिक हस्तक्क्षेप रुके नहीं। लोकल मतदाताओं के सर के ऊपर जाकर कई बार चंद केंद्रीय कृपाभाजनों को सूबे का कार्यभार सौंपा गया और उनके केंद्र के आदेश को धरातल पर जस का तस उतारने से इलाकाई जनता में खिन्नता बढ़ी। मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश-जैसे बड़े राज्यों के कुछ कथित तौर से उपेक्षित पिछड़े इलाकों के निवासी आंदोलन करने लगे। बात अधिक बढ़ी, तब पहले पूर्वोत्तर में और फिर हिंदी पट्टी में बड़े राज्यों को काट कर तीन छोटे राज्य- झारखडं , छत्तीसगढ़ और उत्तराखडं बना दिए गए। लेकिन यह छोटे राज्यों की तरक्की का स्थायी फार्मूला नहीं बन सका।
दरअसल, जनभावना के आधार पर आंदोलन छेड़ना तो आसान होता है लेकिन मनचाहा राज्य बनवा लेने के बाद मूल आंदोलनकारी नेतृत्व अक्सर पिछड़ जाता है, और खेले- खाए घाघ इलाकाई नेता अपने हित-स्वार्थ साधते हुए सत्ता संभाल लेते हैं। छोटे राज्यों में जनता की अपेक्षा पर खरा उतर कर सुस्थिर राजकाज चलाना कितना कठिन है, यह अनुच्छेद 370 हटा कर कश्मीर को तिफाड़ करने वाली महाबली मोदी सरकार भी अब समझ चुकी है।
आंदोलनों से बने जिन जंगलों और भूगर्भीय संपदा वाले लघु राज्यों को स्वायत्तता मिली, उनको भी भ्रष्टाचार और जातीय तथा दलगत गुटबंदियों ने जकड़ रखा है। आयारामगयाराम वृत्ति बढ़ी और लगातार डगमग सीमावर्ती राज्य सरकारों के बीच पहले से मौजूद आतंकी साए और सीमा पार से घुसपैठ बढ़े ही हैं, कम नहीं हुए। उधर, क्षेत्रिय उम्मीदें दरकिनार होने से भाजपा को गोवा से कर्नाटक तक ताकतवर क्षेत्रीय दलों को अपनी तरफ करने का मौका मिला और विकास की हर नई मुहिम में बहुसंख्यावादिता और संकीर्ण क्षेत्रीयतावाद बढ़े हैं। जनजातीय, दलित और अल्पसंख्यक हताश महसूस करते हैं जिन पर अभी भी बहुसंख्यक हावी हैं। पर पुलिसिया दमन तथा भ्रष्टाचार की छानबीन के बहाने सभी शासकों और उनकी प्रशासकीय मशीनरी ने असंतुष्टों के साथ खोजी मीडिया पर भी राजकीय इकाइयों की मदद से दमनकारिता अपनाना जारी रखा है। और उनकी तवज्जो पाकर इलाकों की अनमोल खनिज, वन्य और जल संपदा, लोकल निवासियों की जमीनों- सब पर बाहरी ठेकेदारों-आढ़तियों का कब्जा लगातार बढ़ रहा है।
तेरह जिलों वाला उत्तराखडं इसी तरह बना और बिगड़ा। यहां दुर्गम पहाड़ी इलाकों में रहने वालों और भाबर (हल्द्वानी, देहरादून, उधमसिंह नगर या हरिद्वार) के मैदानी जनबहुल उपजाऊ जिलों के लोगों के बीच आबादी के असंतुलित वितरण से मैदानी सीटें बढ़ीं और उनके बूते मैदानी नेताओं की ताकत भी। बड़े जनाधार वाले गोविंद बल्लभ पंत, हेमवती नंदन बहुगुणा और (काफी हद तक) नारायण दत्त तिवारी सरीखे दिग्गजों की रसूखदार उपस्थिति ने मैदान और पहाड़ के लोगों के बीच का अंतराल जिस तरह भरा था, वह आज बार-बार मुख्यमंत्री बदल कर भी लोकल भाजपा नेताओं के लिए असंभव दिखता है। गढ़वाली बनाम कुमैंय्या, मैदानी बनाम पहाड़ी इलाके, डेवलपर लॉबी बनाम लोकल जनता से राजनीति साधने के लिए की गई जोड़-तोड़ ने छुटभैये नेताओं की मिलीभगत से बाहरियों को जमीनों की भारी अवैध खरीद-फरोख्त का मौका दे दिया है। रही-सही कसर पहाड़ की भौगोलिक स्थिति को न समझने वाले नेतृत्व द्वारा धार्मिक पर्यटन को दिए गए बेसिर पैर के बढ़ावे ने पूरी कर दी।
अब तक यह साफ हो चुका है कि दुनियाभर में ग्लोबल वार्मिंग से मौसम बहुत तेजी से बदल रहा है। बादल फटना, बेमौसम की बरसात तथा बढ़ती गर्मी ने सब राज्यों में बाढ़- सुखाड़ की चिंताजनक स्थितियां पैदा कर दी हैं। पर बेहद नाजुक हिमालयीन पर्यावरण में नासमझ खोदाखादी ने इलाके के कच्चे पहाड़ों को लगातार खोखला बना कर ग्लेशियर पिघलाते हुए जीव नदायिनी गंगा, यमुना, और असंख्य छोटी- बड़ी धाराओं के वजूद पर भारी संकट ला दिया है। विशेषज्ञों और भूगर्भशास्त्रियों की चेतावनी अनसुनी करते हुए तीर्थाटन के नाम पर सतही विकास का जो झाग फेंटा गया वह आज होटलों, स्पा और थीम पार्कों के रूप में चारों तरफ फैल गया है। यात्रा सुखद-सहज बनाने के नाम पर हो रहे सड़कों के चौड़ीकरण का काम तथा भारी मशीनरी की निरंतर आवाजाही से पहाड़ों का बड़े पैमाने पर दरकना देखने में आ रहा है! केदारनाथ और फिर धौली नदियों की भीषण बाढ़ और इस बरसात में हिमाचल से अरुणाचल तक सब प्रांतों की पर्यटन नगरियों को जाने वाली सड़कों पर भूस्खलन इसी का नतीजा है।
अब हाल यह है कि उत्तराखडं हो कि गुजरात या गोवा, प्रांतों की सर्वोच्च सत्ता पर केंद्र से चयनित मुख्यमंत्री तो धूमधाम से बिठा तो दिए जाते हैं, पर पार्टियों के महत्वाकांक्षी असंतुष्टों द्वारा उनके खिलाफ मीडिया में खबरें प्लांट करना, स्टिंग ऑपरेशन करवा कर शर्मनाक सीडी को गुप्त तौर से लीक कराते हए मुख्यमंत्री की कुर्सी तले लगातार बारूदी सुरंग बनाने की कुप्रथा कर्नाटक से उत्तराखडं तक जारी रहती है। जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, वहां यह सब और तेजी से उभरेगा।
भाजपा के शीर्ष नेताओं द्वारा पूर्व में कांग्रेसी विधायक तोड़ना, स्टिंग करवाना और मुख्यमंत्री को घेरना इस बिंदु पर खुद उनको भारी पड़ रहा है। स्थानीय नेतृत्व को पीछे कर राज्यस्तरीय दावे लेकर राष्ट्रपति भवन का जहांगीरी घंटा बजाकर हाईकमान की पसंद का पदार्थी भेजना, भितरघातियों को भले कुछ देर चुप करा दे लेकिन आगे जाकर प्रांतीय नेतृत्व का कद लगातार बौना बना देता है। अगर हर क्षेत्रीय भितरघात राष्ट्रस्तरीय कांग्रेस बनाम भाजपा मानी जाने लगे, और केंद्र अपने दल की ताकत बढ़ाने के लिए खुद कमान हाथ में लेकर व्यक्तिगत छीछालेदर कराने वाला अशोभनीय छाया युद्ध लड़े, तो क्षेत्रीय दलों की संवैधानिक स्वायत्तता और राज्य की प्रभसुत्ता, दोनों मलिन तो होती ही हैं, राज्यपाल का पद भी अपनी गरिमा खोने लगता है। घूम फिर कर फिर वही हाईकमान, वही दिल्ली से किसी छतरी मुख्यमंत्री का उतारा जाना, हर झगड़े का दिल्ली जाकर निपटारा करवाना देखकर राजेंद्र माथुर की बात याद आती है, कि कुल मिलाकर कांग्रेस किसी पार्टी का नाम नहीं, बल्कि इस अराजक मुल्क में राजकाज चलाने की इकलौती देसी शैली है। लिहाजा अगर आज विधानसभा चुनावों के पास खड़े दिल्ली, कर्नाटक, उत्तराखडं , गोवा, मणिपुर में सारी राजनीति जनता को एक नौटंकी की तरह अवास्तविक नजर आ रही है, तो यह अचरज की बात नहीं। क्या हर राज्यपाल बस दिल्ली में राष्ट्रपति का प्रतिनिधि है, उस राज्य का नहीं, जहां (राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत) उसकी नियुक्ति हुई है? क्या असली रोजी-रोटी की तकलीफों पर कोई गहन विचार मंथन की बजाय कुछ दिनों के लिए सब्सिडियों और कैश वितरण के लिए खजाने खोल कर जनता का दु:ख मिट जाता है? पर सिर्फ चुनावी गणित बिठाने में जुटे नेताओं को अपने बेआबरू होने का भान ही नहीं है और वे समझते हैं कि जिस समय उनके दलीय गुर्गे एक दूसरे की खुफियागिरी करते, स्टिंग जारी करते, असंतुष्टों के लिए खुली बोली लगा रहे होंगे उसी समय उनके प्रतिनिधि टीवी पर विपक्ष से हैंडपंप स्तर के झगड़े छेड़ कर असलियत पर पर्दा डाल देंगे। दामी विज्ञापनों से मीडिया को पाट कर उसे अपने पक्ष में कर लिया जाएगा, रही-सही कसर आकर्षक जुमलेबाजी और हवा-हवाई यात्राओं से पूरी हो जाएगी।
ऐसे बनी सरकार कितने दिन चलेगी? जिस तरह से पहले उत्तराखंड और फिर गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन हुआ और नए मुख्यमंत्री को दिल्ली दरबार के प्रतिनिधियों ने अहमदाबाद आकर उनका राजतिलक किया, वह कहीं-न-कहीं सूबे के नेतृत्व से जुड़े तमाम संभावित सवालों को अब सामंती और मध्ययुगीन रंगत दे रहा है। मीडिया पर हो रही बहसों में यह और भी साफ दिखता है। अगली बार अमुक सूबे के नेतृत्व (या काबीना विस्तार) में राजयोग किसके पक्ष में बनेगा? किसी के बेटे, जमाई का? कि बगावती भाई अथवा औलाद का? या फिर सीधे दिल्ली का चयनित कोई रिटायर्ड अफसर या संवैधानिक ओहदे पर रह चुका व्यक्ति आकर गद्दी संभाल लेगा? बार-बार दल-बदल या पद वंचित किसी उपमुख्यमंत्री के आंसुओं का जनता पर अब कोई असर नहीं होता। जब सब कुछ इतना व्यक्तिपरक और दिल्लीमुखी हो जाए, तो फिर प्रदेश के स्थानीय मतदाताओं की इच्छा या संघीय स्वायत्तता के लिए हाशिये कहां बचे रहते हैं?
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