मृणाल पाण्डे का लेख: अथ प्रतिमा नाटकम्
इधर भारतीय राजनीति में इस्लाम पूर्व समय को जनता के आगे लगातार कुछ इस तरह मिथक और किंवदंतियों से मढ़ कर पेश किया जाने लगा है कि उस कालखंड की असली सचाई की बाबत इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री उस कथा में ठोस ऐतिहासिक प्रमाण देकर हस्तक्षेप नहीं कर सकते।
इधर भारतीय राजनीति में इस्लाम पूर्व समय को जनता के आगे लगातार कुछ इस तरह मिथक और किंवदंतियों से मढ़ कर पेश किया जाने लगा है कि उस कालखंड की असली सचाई की बाबत इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री उस कथा में ठोस ऐतिहासिक प्रमाण देकर हस्तक्षेप नहीं कर सकते। कुछ वजह तो यह है कि पुराने भारतीय इतिहास की स्रोत-सामग्री कोविड के प्रामाणिक डेटा की ही तरह असंबद्ध और तितर-बितर है। इसलिए धर्म और धार्मिक पर्यटन का सारा इलाका वैज्ञानिक शोध के हवाले करने की बजाय उसे घेर-घार कर सरकारी इतिहासवेत्ताओं, गोदी पत्रकारों, साधु- साध्वियों, मंत्रियों और बाबुओं के हवाले करना आसान है। पर समय तेजी से बदल रहा है। लॉकडाउन के बाद कई रुकी हुई जानकारियां सतह पर आ रही हैं। और अब अफगानिस्तान से लेकर अमेरिका तक इस हड़कंप भरी दुनिया में घरेलू तथा वैदेशिक राजनीति, अर्थनीति और कूटनीति- सब नए सिरे से तय किए जा रहे हैं। इससे पुरानी चलन की अर्थव्यवस्था, राजनीतिक धड़ेबाजी तथा राजनय में काफी हद तक पैठ बना चुकी सत्तारूढ़ सरकार की पकड़ घर तथा बाहर आर्थिक, सामाजिक और राजनयिक क्षेत्रों में कमजोर हो चली है। कमजोरी और दुविधा के ऐसे क्षणों में चुनाव आने पर भारतीय राजनीति घरेलू स्तर पर अक्सर अपने तूणीर के दो ब्रह्मास्त्र निकाल लेती है: जाति और धर्म। लिहाजा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और हरियाणा सब कहीं मंडल और कमंडल के मुद्दे बोतलबंद दे जिन्नात की तरह फिर फिजां में छोड़े जाने लगे हैं। जब से कोविड की मारक दशा कुछ घटी है, विपक्ष बिहार से उत्तर प्रदेश तक जाति आधारित जनगणना की मांग उठा रहा है, जवाब में सत्तापक्ष ने उत्तर से दक्षिण तक मंदिर निर्माण और पुनर्निर्माण के कई मुद्दों को एक बार फिर और तेज धार देनी शुरू कर दी है।
उत्तर में तो उत्तर प्रदेश और देवभूमि उत्तराखंड सत्तापक्ष द्वारा धर्मधुरी बना कर पेश हो ही रहे हैं। दक्षिण में भी कर्नाटक में सिद्दरामैया के गांव में अचानक राममंदिर का जीर्णोद्धार शुरू हो गया है, उधर तिरुपति उप चुनावों के पहले धार्मिक संस्थानों के मैनेजमेंट का काम एक धर्माचार्य मंडली को सौंपने का मुद्दा उठाया जा रहा है। सरकार का ध्यान तथा खर्चा हर कहीं बड़े-बड़े बोर्ड लगा कर मुफ्त वैक्सीन दिलवाने के लिए प्रधानमंत्री को धन्यवाद देने पर आ टिका दिखता है। विंध्यांचल में विंध्यवासिनी मंदिर तक भक्तों को दर्शन के लिए भव्य पथ देने के लिए 300 करोड़ का पैकेज घोषित हो गया है। और राम मंदिर का खर्च तो पूछिए ही मत, फिर भी लगभग कई-कई लाख करोड़ का पैकेज घोषित करके किसी मंदिर के निर्माण, पुनर्निर्माण और गिनेस बुक में गिने जाने लायक वृहदाकार प्रतिमाओं के बनाने की घोषणाएं हो रही हैं।
इसी क्रम में हाल में माननीय प्रधानमंत्री ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर को और भी बड़ा और भव्य बनाने तथा उसके परिसर में पार्वती माता का नया मंदिर तथा कुछ और निर्माण कार्यों की घोषणा की। बताया गया कि ये धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा तथा लोकल रोजगार देंगे और पर्यटकों को भारतीय धर्म की गहन जानकारी भी प्रदान करेंगे। इस तरह की घोषणाएं भारतीय उपासना पद्धति तथा देवकुल की बाबत एक चिंताजनक अज्ञान सामने लाती हैं, जो सचमुच के श्रद्धालुओं को अचंभे से भर देता है। प्रस्तावित पार्वती मंदिर को ही लें। प्राचीनतम धर्मग्रंथों के अनुसार, शिव तो अर्धनारीश्वर हैं और पार्वती जी को खुद अपनी ही देह में धारण किए हए हैं। यही नहीं, अन्य स्त्री, गंगा मैया को उन्होंने अपने सर पर जटाओं के बीच चंद्रमा सहित स्थापित कर रखा है। ऐसे (कालिदास के शब्दों में) वाणी और अर्थ की तरह पूरी तरह एक-दूसरे में रचे-बसे देव युगल को अलग कर पार्वती के लिए अलग मंदिर बनाना गैरजरूरी है। हमारे यहां तीर्थ का बड़ा महत्व होता है, मनुष्य निर्मित मंदिरों का नहीं। आज का सोमनाथ क्षेत्र पहले प्रभास तीर्थ कहलाता था और काफी पहले (ईसा पूर्व दूसरी सदी) से शैव (पाशुपत) मतानुयायियों का केंद्र और महातीर्थ रहा है। सोमनाथ इलाके में (महाभारत में उल्लिखित) पांडव भी तीर्थाटन को आए थे और शिवपूजन के बाद ही अर्जुन ने द्वारिकाधीश कृष्ण से महाभारत युद्ध में अपना सारथि बनने का अनुरोध किया था। प्रभास यानी आभा से दमकते शिव का तीर्थ।
प्रयाग और काशी की ही तरह प्रभास क्षेत्र भी तीन नदियों के संगम पर बसा पवित्र स्थल है। और प्रयाग या काशी से सोमनाथ तक यहां बार-बार तोड़े, फिर बनवाए या ठीक किए गए मंदिरों का कम, मूल तीर्थ क्षेत्र का ही महत्व स्थायी रहा है। इतिहास गवाह है कि वहां कब किसने कितनी बड़ी मूर्तियां स्थापित कीं या बड़े मंदिर बनाए, वे फिर कब टूटे और फिर कब उनका पुनर्निर्माण हुआ? यह सवाल उन श्रद्धालुओं के लिए लगभग निरर्थक रहे जो इस पूरे दौरान सदियों से काशी, प्रयाग, मथुरा या प्रभास तीर्थ को पवित्र मान कर वहां नदी में डुबकी लगाने आते-जाते रहे। हमारे पुरखे बुद्धिमान थे और एक समन्वित संस्कृति में रहना और दूसरों को भी रहने देना हमसे बेहतर तरीके से जानते थे। सोमनाथ मंदिर के ध्वंस तथा पुनर्निर्माण को इस्लामी आक्रमण का प्रतीक और हिंदुत्व की उस पर फतह के रूप में जनता के बीच प्रचार से मंदिर का दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक दोहन 1990 में शुरू हुआ जिसके नतीजे अच्छे नहीं निकले।
सच तो यह है कि आठवीं सदी के लगभग यहां जो बड़ा भव्य शिव मंदिर था, उसे 11वीं सदी में महम्मुद गजनी ने लूटा। पर चालुक्य राजाओं के 12वीं सदी के अभिलेख के अनुसार, यह फिर बन गया। 14वीं और फिर 15वीं सदी में यह फिर लुटा, तोड़ा गया, प्रतिमा खंडित हुई। अंतत: 18वीं सदी में अहिल्याबाई होलकर ने मूल स्थल के खंडहरों से कुछ दूर वह सोमनाथ मंदिर बनवाया। यही काशी विश्वनाथ मंदिर की भी कथा है जो पहले आज की जगह से अन्यत्र बना था। ये सभी हमलावर मूलत: भारत को सोने की चिड़िया मानकर उसकी कमजोरी के क्षणों में उमड़े सामान्य लुटेरे थे। सोमनाथ का मंदिर समुद्र तट पर महत्वपुर्ण बंदरगाह के पास था, काशी और प्रयाग भी गंगा तट पर महत्वपूर्ण व्यापार केंद्र थे। इसलिए वहां के मंदिर संपन्नता से भरपूर थे जिसने लुटेरों को बार-बार वहां बुलाया। याद रख ने लायक यह है कि इससे धर्म को कोई स्थायी क्षति नहीं हुई। तोड़- फोड़ के बावजूद तीर्थ का महत्व जनता के बीच कायम रहा। सोमनाथ और फिर अयोध्या, काशी, मुथरा के मंदिरों का विखंडन बीसवीं सदी में दलगत राजनीति की लपेट में लाया गया।
यूनान में कभी एथेंस के बड़े नेता पेरिक्लीस ने कहा था कि हम कला की उपासना तो करते हैं, पर पुरुषार्थ के नाश के लिए नहीं। उसी तरह कालिदास ने भी शिव से पार्वती को कहलाया है कि यह लोकमत सही है कि मूर्त रूप की उपासना करनी चाहिए लेकिन पापमय (पापवृत्तये) मन से नहीं। यह मनीषी जानते थे कि मूर्ति पूजा किसी-नकिसी रूप में हर कहीं होती है। लेकिन मूर्ति बनाने की मूल भावना अंतर्मन की दैवी सुंदरता को प्रणाम करना है। यह मूर्ति पूजा जब राजनीतिक हित साधने की कोशिश बन जाए तो विनाशकारी साबित होती है। कांग्रेस के एक विद्वान वरिष्ठ नेता डा. कर्ण सिंह ने कभी योगी जी को एक खत लिख कर कहा भी था कि बिना सिया के राम की मूर्ति अकल्पनीय है। यह सीता को दोबारा अयोध्या से बहिष्कृत करना है।
बहरहाल हमको लगता है कि पत्रकारीय उत्तरदायित्व निभाते हुए हमारे धर्मग्रंथों में दिए गए मूर्ति पूजा की बाबत कुछ जरूरी तथ्य हम गिनाते चलें। बाकी आप खुद समझदार हैं। एक, मूर्ति पूजा तथा मंदिर वैदिक काल में होने के कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं। धर्मशास्त्र के इतिहास (वामन राव काणे) के अनुसार, तब श्रद्धा की कमी नहीं थी लेकिन जनता में अग्नि, सूर्य, वायु या वरुण का पूजन परोक्ष, यानी इनडायरेक्ट तरह से होता था। दो, मूर्ति पूजा और देवायतन पहली सदी के आसपास शुरू हुआ और पहले महायान बौद्ध धर्म ने बुद्ध की प्रतिमाएं बनाना शरू किया। फिर जैन धर्मानुयायी भी जिनदेव की प्रतिमाएं बना कर उनको चैत्यों या स्तूपों में स्थापित करने लगे। पौराणिक हिंदू धर्म के भक्तों के लिए 14वीं सदी में जाकर देव प्रतिमाएं बनने लगीं जिनको घर या मंदिर में रख कर पूजा जाता था। तीन, 8वीं-11वीं सदी के बीच राजाओं की तरफ से विशालतर राजसी मंदिर बनाने और सार्वजनिक पूजा आराधना की होड़ होने लगी थी। लेकिन हर गांव में तब पूजित लोक देवताओं (जिनमें यक्ष भी शामिल थे) के मंदिर जो थान, टेकरियां या स्थान कहलाते हैं, आज तक निराडंबर होते हुए भी पूज्य बने हुए हैं।
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Published: 29 Aug 2021, 8:06 PM