मृणाल पाण्डे का लेख: मनोरंजन की दुनिया से मीडिया तक भाषाई तमीज का अकाल
अभी हाल में प्रकाश में आई मीडिया और जन स्वास्थ्य सेवा जैसे अहम क्षेत्रों की भाषाई दशा-दिशा पर दो खबरें गौर के लायक हैं। पहली खबर ज्योति यादव के बारे में है जो हिंदी और अंग्रेजी- दोनों भाषाओं में ठोस जमीनी पत्रकारिता की युवा मिसाल हैं।
अभी हाल में प्रकाश में आई मीडिया और जन स्वास्थ्य सेवा जैसे अहम क्षेत्रों की भाषाई दशा-दिशा पर दो खबरें गौर के लायक हैं। पहली खबर ज्योति यादव के बारे में है जो हिंदी और अंग्रेजी- दोनों भाषाओं में ठोस जमीनी पत्रकारिता की युवा मिसाल हैं। हाल में ग्रामीण इलाकों में कोविड के असर पर उनकी विजुअल रपट ॠंखला बहुत महत्वपूर्ण जानकारियां देती है। तब भी उनको टोका गया कि गांवों में जाकर पत्रकारिता करती हैं तो ठीक, लेकिन रपट देते हुए वह हरियाणवी अंग्रेजी में न बोलें। अपना एक्सेंट सुधारें। मीडिया के जानकार तबके में इस उच्चवर्गीय ऐंठ का जमकर विरोध हुआ। पर यह मानसिकता अंग्रेजी मीडिया और उसके गाहकों की बाबत काफी कुछ कहती है। दूसरी वारदात में दिल्ली के एक सरकारी हॉस्पिटल ने केरल की नर्सों को आपस में मलयाली बोलने से रोक दिया। उनसे कहा गया कि वे आपसी बातचीत अंग्रेजी या हिंदी में ही कर सकती हैं। भारी जनविरोध के कारण यह ऑर्डर वापिस ले लिया गया। दोनों मामले दिखाते हैं कि भाषा के मामले में भारत में लोकतांत्रिक सूचना संप्रेषण के मसलों पर आज देश की भाषाओं को किस तरह की चुनौतियां मिल रही हैं।
जहां तक घर भीतर की बात है, सबसे भारी और पुराना झगड़ा हिंदी बनाम शेष भारतीय भाषाओं का है। मानना ही होगा कि हिंदी के प्रति भाजपा के खुले पक्षपात से यह और गहरा हुआ है। अहिंदी भाषी क्षेत्रों से सलाह-मशवरे किए बिना राजनीति के तहत जब राष्ट्रभाषा के बतौर हिंदी को धुकाने से जाति, वर्ग और क्षेत्रीयता की खड़ी लकीरों से बंटे अहिंदी भाषी समाज में हिंदी से बेवजह दुश्मनी बढ़ गई। साथ-साथ संघ के पहरुओं ने अंग्रेजी का भी विरोध जगा कर बौद्धिक इलाकों में अंग्रेजी को लिबरलों की मानसिकता से जोड़ना चालू कर दिया। इससे संस्थानों की तो दुर्गति हुई पर ई-कॉमर्स और डिजिटल मीडिया की बुनियादी जरूरतों के कारण हमारी अंग्रेजी पर निर्भरता कतई नहीं घटी। उधर भली खासी हिंदी के शुद्धीकरण के नाम पर बोलचाल की हिंदी से उर्दू, अरबी और बोलियों को हटा कर हिंदी को संस्कृतनिष्ठ पांडित्य देने की एक नई मुहिम छेड़ दी गई। भारत में सदियों में बाहर से आते गए नए लोगों के साथ की भाषाओं और बोलियों की भरमार है। इस सबसे बनी बोलचाल की सहज हिंदी की विपु शब्द संपदा नई पीढ़ी के बीच तेजी से घट रही है। इसका सीधा नतीजा है मीडिया से मनोरंजन की दुनिया तक में कानों को सुहाने वाली रसमय बातचीत की जगह निपट गाली-गलौज में बढ़ोतरी।
जिस समय यह हो रहा है, उसी समय हम बाहर से उड़ते आए अजाने डिजिटल अश्वों की टापें भी लगातार झेल रहे हैं। डिजिटल मीडिया सूचना संचार तकनीकी की दुनिया का ताजा कल्कि अवतार है। उसके बीजाक्षरों से बनी भाषा अंग्रेजी की मार्फत ही विश्व बाजार तथा विकसित यूरोपीय भाषाओं से अनूदित विज्ञान और साहित्य की सारी खबरें हम तक ला सकती है। इसलिए अगर हम ग्लोबल दुनिया में आगे जाना चाहते हैं, तो बुनियादी अंग्रेजी ज्ञान भी हमारी नई पीढ़ी के लिए जरूरी है। हाल तक हिंदी पट्टी के विभिन्न इलाके लोक गीतों और लोक नाट्य रूपों की मार्फत लोक जगत में भदेस मानी गई बोलियों में श्रोता और रसिक तैयार कर लिया करते थे। पर पिछले दो सौ सालों में बनी किसानी और हिंदी की मुख्यधारा में सिर्फ बोलियां ना काफी पड़ने लगी हैं। उनको एक टकसाली हिंदी चाहिए जो आसानी से सीखी जा सके। खेती में ई-कॉमर्स का प्रवेश और दूसरी तरफ नई वैज्ञानिक तकनीकी के हुनरों का नौकरियों से रिश्ता भारत में पहले ही सिर्फ हिंदी से काम चला लेना कठिन बना रहा था। इधर, कोविड की कृपा से हिंदी के दूसरे बड़े पौध घर : सिनेमा हॉल तथा मल्टीप्लेक्सों पर भी ताला लटक गया है।
आज की तारीख में मीडिया तथा मनोरंजन, दोनों जगह बहुत हलचल भरा वातावरण है। मीडिया अब छपे अखबारों की बजाय डिजिटल वेब प्लेटफॉर्मों से और जन मनोरंजन सिनेमा हॉल की जगह डिजिटल ओटीटी प्लेटफॉर्मों से कस कर जुड़ चुके हैं। सिर्फ संसदीय समितियां बिठा कर, सरकारी कवि सम्मेलन बुला कर या न्यूनतम समर्थन मूल्य या कर्जा माफी के फौरी झुनझुनों से इस त्रासदी के दीर्घकालिक नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती।
हिंदी पट्टी चूंकि देश की राजनीति की धुरी रही है, वहां राजनीति में मूल्यों की गिरावट के साथ अभद्र भाषा का चलन काफी बढ़ा है। अपने आकाओं की सरपरस्ती तले पल रहे गोदी मीडिया ने भी वही भाषा उठा ली है। साइबर मीडिया के कई भाड़े के सिपाही तो गालीयुक्त हिंदी का जितने बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करने लगे हैं, उससे भ्रम होता है कि हिंदी पट्टी में गालियां साहित्य से संसद तक मनोरंजन और सार्वजनिक भाषणों का अकाट्य हिस्सा हैं। पार्टी प्रवक्ता बिना अभद्र शब्दों के इस्तेमाल किए न तो अपने दल का प्रबल समर्थन कर पाते हैं, नही विपक्ष का मानमर्दन। यह पश्चिमी सभ्यता से निकली सामाजिक और लोकतांत्रिक रवायतों और मौकापरस्त महागठजोड़ों के उदय का फल नहीं। अपनी नाक हमने खुद काटी है। उदाहरण हैं वे जिम्मेदार नेता, सांसद, विधायक और प्रवक्ता जो स्त्रीमुक्ति, सांप्रदायिकता और आरक्षण के सवालों पर हर तीसरे वाक्य में कोई-न-कोई शर्मनाक फब्ती चेप कर अभद्र हिंदी को ही अपनी और अपने दल की विशेष पहचान बना रहे हैं।
मनोरंजन की तरफ देखिए : नेटफ्लिक्स या अन्य ओटीटी चैनलों पर रिलीज हुई राजनीति और अपराध जगत पर बनी कई ताजा फिल्में जनता में काफी लोकप्रिय हुई हैं। पर उनमें भी पात्रों द्वारा तकरी बन हर वाक्य में (खासकर महिलाओं, अल्पसंख्यकों और दलितों के बारे में) इस्तेमाल होने वाली भदेस गालियां और फब्तियां आम हैं। हिंदी के बेहतर रूपों और क्षमता से अपरिचित कुछ बड़े समालोचकों को यह गाली-गलौज क्यूट या समय का अक्स भले प्रतीत हो, लेकिन‘मिर्जापुर’ से ‘महारानी’ जैसी फिल्में या सीरियल और उनके लोकधुनों पर आधारित गानों की भाषा सही मायनों में लोकधर्मी हिंदी नहीं है। यह लेखकों के देहात तथा छोटे शहरों से अपरिचय और वहां के आम लोगों के बीच बन रही भाषा शैलियों से आलसी अपरिचय की उपज है। जब पटकथा-डायलॉग लेखक में अपने खयालात को तर्क के बूते स्थापित कर पाने और कोई लोकतांत्रिक संवाद छेड़ने की इच्छा या काबिलियत न रह जाए, तब वे बार-बार चौंकाने वाले विशेषणों से जनता का ध्यानाकर्षण कराने की तरफ मुड़ जाते हैं। अफसोस कि भारत में आज लोक जीवन भी बॉलीवुड की नकल करने लगा है।
भारत जनपदों का देश है, जो गांवों के समूहों से बने हैं। हालिया विधानसभा चुनावों ने भी साबित किया है कि शहरी जीवन जितना भी उखड़ा हुआ और तेज रफ्तार बना हो, हवाई जहाज से उतर कर नई तकनीकी और ई-कॉमर्स की नारेबाजी करने तथा मेक इन इंडिया के चतुर नारों पर गांव का किसानी पर जीने वाला जन भरोसा नहीं करता। नए कृषि कानूनों का गांवों में इतना बड़ा विरोध क्यों हो रहा है? क्योंकि विकास के नाम पर अपने इलाके में वन कटानों और पानी के छीज रहे भंडार से खेतिहर समाज पहले ही सशंक था। 2017 की नोटबंदी, पशुओं की खरीद-फरोख्त पर अचानक लगाई गई बेसिर पैर बंदिशों के बाद उसे लगता है कि बिना उसकी राय लिए मंडियों को सीधे मल्टीनेशनल ताकतों को पकड़ाना उसकी जीवनशैली, पशुपालन और नगदी लेन-देनपर आधारित व्यवस्था पर कुल्हाड़ी चला देगा। अफसोस यह, कि उनसे सीधे मिल कर बात करने की बजाय हमारे सजे- संवरे नेता पृथ्वीपुत्रों के आगे यूपी और गुजरात के मॉडल धुका रहे हैं।
बंगाल की हार ने साबित किया है कि लोग दिल्ली पर भरोसा नहीं कर पा रहे। जनता से दिल्ली का मानवीय रिश्ता इस हद तक टूट गया है कि पुराने शब्दों को बार-बार दोहराने के बावजूद लोगों को उनमें वह पवित्रता नजर नहीं आती जो 2019 में आई थी। भाजपा और संघ के प्रचारकर्ताओं को यकीन था कि गांव जवार का किसानी वोट वह धर्मसभा और रथ यात्राओं से बंगाल तथा उत्तर प्रदेश को हमेशा पक्ष में खींच सकता है। लेकिन जमीनी राजनीति कर रहे स्टालिन, विजयन और ममता को पता था कि धर्म के नाम पर जनता के अवचेतन में आज भी तेईस सौ साल पहले बुद्ध या महावीर की धर्मयात्राओं की स्मृति है जिनका उद्देश्य जनता के बीच जबरन धर्म विशेष की अलख जगाना नहीं, उनका जीवन बेहतर बनाना था। अशोक से लेकर हर्षवर्धन और अकबर से शाहजहां तक सब बड़े शहंशाहों ने स्वीकार किया कि लोगों के बीच लगातार पैठ बनाने से ही जानपदिक लोगों का जीवन दर्शन, उनके नजरिए से उनकी भाषा में धर्मकी व्यावहारिक सीख और आम लोगों से अंतरंग बतकही बनाई जा सकती है। ‘जानपदसा च जनता दसने धमनुसथिच धम पलि पुछा च’, (जिन अटल सामाजिक और नीति नियमों से मनुष्यों का रोजमर्रा का जीवन चलता है, वे ही धर्म हैं।) यह दर्शन अशोक के स्तंभों, शिलालेखों में आज भी पढ़ा जा सकता है।
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