मृणाल पाण्डे का लेख: पेगासस के साये और सरकारी अर्धसत्य
मौजूदा सरकार 2018 से पिछले सप्ताह तक पेगासस की मार्फत लगातार विपक्ष के बड़े नेताओं, लगभग 40 वरिष्ठ मीडिया कर्मियों, संपादकों और खुद अपने चंद मंत्रियों के निजी फोनों तथा अन्य ई-उपकरणों का सुरक्षा कवच चुपचाप भेदकर उन पर निगाह रखती आई है।
यह भी होना ही था। जब अधिकतर भारतीय मीडिया राम मंदिर निर्माण और मुफ्त सरकारी टीकाकरण अभियान पर तालियां बजा रहा था, तभी ऐन मानसून सत्र की शुरुआत के समय मक्खी छींक गई। बेहद असरदार विदेशी मीडिया ने कुछ हिम्मती भारतीय निजी डिजिटल खबरिया पोर्टलों के साथ खबर दी कि मौजूदा सरकार 2018 से पिछले सप्ताह तक एक इजरायली कंपनी के खुफिया उपकरण पेगासस की मार्फत लगातार विपक्ष के बड़े नेताओं, लगभग 40 वरिष्ठ मीडिया कर्मियों, संपादकों और खुद अपने चंद मंत्रियों के निजी फोनों तथा अन्य ई-उपकरणों का सुरक्षा कवच चुपचाप भेदकर उन पर निगाह रखती आई है। अब सरकार कभी हमसे घटना की कुटिल क्रोनोलॉजी समझने को कह रही है, तो कभी एक पूर्व सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री वाट्सएप के हवाले से इस तरह की जासूसी की असंभवता बता रहे हैं। अलबत्ता इस सवाल का कोई भरोसेमंद जवाब सरकार नहीं दे रही कि क्या उसने कोई ऐसा उपकरण खरीदा है जो सिर्फ आतंकवादी गतिविधियों पर जासूसी के लिए बनाया गया है और जिसे निर्माता कंपनी सिर्फ सरकारों को ही बेच सकती है। इससे भी कोई इनकार नहीं कर रहा कि सामान्यत: बिना पूर्व स्वीकृति के देश के किसी भी आम या खास नागरिक की फोन टैपिंग से जासूसी करना कानननू नाजायज है और भारत के आईटी तथा निजता के अधिकारों का अतिगंभीर उल्लंघन भी है।
विनाश काले यह विपरीत बुद्धि कहां से उपजी, कहना कठिन है। लेकिन मसला चूंकि ठीक मानसून सत्र के पहले मीडिया में आया और उछला, पहले ही दिन के हो-हल्ले से जाहिर है कि यह खबर सरकार पर और कई नाकामियों, कथित घोटालों तथा विफलताओं के ठीकरे फोड़े जाने की विपक्षी मुहिम को अतिरिक्त गति दे देगी।
औसतन हर चुनाव में हमारे विपक्षी दलों का सत्तापक्ष के खिलाफ दो बातें सफलता पूर्वक साबित करना सबसे बड़ा एजेंडा रहता है। एक, शिखर पर बैठी सरकार अक्षम है। दो, सरकार में उच्चतम स्तर पर अपारदर्शिता और भ्रष्टाचार है। और वह जनता को इस बात से सहमत कर पाई तो उसे इसका (2014 के चुनावों में एनडीए गठजोड़ की तरह) पूरा और दीर्घकालिक फायदा मिलता है। 2014 से 2019 तक बंधुआ बना लिए गए मीडिया की मदद से 2014 के गड़े मुर्दे उखाड़ कर उस पर देश खतरे में है का ताजा मसाला छिड़कने से 2019 में भी एनडीए ने सरकार बनाई। दोनों बार चुनावी मुहिम की जड़ में 2014 से 2019 तक सोशल मीडिया पर कांग्रेस पर घोटालों के इल्जाम और गांधी परिवार का पार्टी के शीर्ष पर बने रहना एनडीए की मददगार रहीं। पर सब दिन होत न एक समाना। 2021 में बंगाल के नतीजों ने खतरनाक सच की झलक दिखा ही दी कि जादूगर का जादू अब हवा में विलीन हो चला है। कोविड के पिछले 18 महीनों के दौरान जिद्दी अदूरदर्शी नीतियों से हर फैसला शिखर नेतृत्व के हाथों में रख देने से 2019 से 2021 के बीच सरकारी साख को भारी नुकसान पहुंचा। साथ ही भाजपा ने अनजाने ही विधानसभा चुनावों में चुनौती दे रहे विरोधी क्षेत्रीय दलों को अपनी ही शैली में केंद्रीय सत्ता के प्रांतीय नुमाइंदों पर वार करने का कौशल थमा दिया। राम नाम से लेकर दलबलुओं तक तमाम आपदाओं को अवसर में बदल कर चतुर खिलाड़िन ममता दीदी खेला जीत गईं तो इसका काफी शेयर खुद भाजपा को भी जाता है।
दूसरा अप्रत्याशित मसला केंद्र में परमुखापेक्षी बनाए जाने से खफा हुए क्षेत्रीय साथियों के गठजोड़ तथा काबीना से हटने तथा महामारी की आमद से जुड़ा है। सलाहकारों और बाबुओं की लंबी फौज महामारी की आग की रोकथाम कैसे करती? वे सब खामोश दरबारियों की तरह मीटिंग-दर-मीटिंग शीर्ष से हकुम की प्रतीक्षा करने को बाध्य थे। लिहाजा जैसे-जैसे महामारी लहर-दर-लहर बढ़ी, किसान आंदोलन लगातार उपेक्षा के बावजूद नए कृषि काननूों के खिलाफ अपनी सुनवाई कराने को सड़कों पर बना रहा, जनता ही नहीं बल्कि देशी- विदेशी मीडिया के अनुभवी रिपोर्टरों की नजरों में भी मंत्री तथा बाबूशाही लगातार अकार्यकुशल तथा अक्षम साबित होने लगे। अब कोविड की घातक दूसरी लहर तो उतार पर है लेकिन तमाम बिलबोर्डों, गोदी मीडिया की बहसों, पहले पन्ने के बड़े बड़े विज्ञापनों के बावजूद उसकी कटु स्मृतियां परिवारों और सोशल मीडिया में जिंदा हैं। बहुप्रचारति मुफ्त वैक्सीन वितरण सीला पटाखा साबित हुआ है। अब तीसरी लहर का हौवा बाहर खड़ा है।
इसलिए पेगासस कांड की क्रोनोलॉजी को कुटिल जगत की भोली भारतीय सरकार के खिलाफ मुहिम मानना कठिन है। जुलाई, 2021 तक मंहगाई, सिकुड़ती आर्थिक गतिविधियां, और बेरोजगारी का साम्राज्य अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में भी हमको तमाम तरह के पैमानों पर (भूख, बेरोजगारी, प्रति व्यक्ति आय, महिला सुरक्षा या मीडिया पर प्रतिबंध) तीसरी दुनिया के देशों की कतार में खड़ा कर चुके हैं। और 2024 के आम चुनावों तक भाजपा नेतृत्व यदि विपक्ष के खिलाफ पुराने वंशवाद तथा भ्रष्टाचार के तिलों से तिबारा तेल निकालना भी चाहे, तो उसे कुछ खास हासिल होगा इसमें शक है।
इस सत्र में विपक्ष के पास सरकार विरोध के मुख्य मुद्दे क्या हैं? राफेल खरीद में अपारदर्शिता, कोविड से निबटने, मुफ्त या सस्ती वैक्सीन मुहैया कराने में दिख रही सरकार की घोर अक्षमता, स्वास्थ्य विभाग के डेटा पर अपारदर्शिता, महंगाई, बेरोजगारी, खासकर एक करोड़ कामगार महिलाओं का आय से वंचित होना, महीनों से जारी किसान आंदोलन, इस सब में अब ताजा स्नूपगेट भी जुड़ गया है। एक विकसित लोकतांत्रिक देश में इतने सारे मुद्दे एक साथ तूल दे न पकड़ते। सामान्यत: विभागीय मंत्री सहित प्रधानमंत्री इस्तीफा दे देते हैं। पार्टी नया नेता चुन लेती है और कुछ दिन बाद अगले चुनावों तक राजनीति की धारा सहज हो जाती है। लेकिन क्योंकि हम भारत हैं, और आज के शिखर नेता जो इस बाबत विपक्षी कांग्रेस की खिल्ली उड़ाते आए हैं, आज खुद पा रहे हैं कि अवतारवाद को तूल देते रहने से आज की घड़ी में भाजपा के लिए नया नेता चुनना राज्य क्रांति जैसा अकल्पनीय बन गया है। हमारे यहां अक्सर राजा ही सेनापति बनते रहे हैं जिनका हाथी यदि रणक्षेत्र से भाग खड़ा हो तो सेना सेनापति को कमान थमाने की बजाय भाग खड़ी होती है। ऐसे देश में झगड़ालू विपक्षी दलों का हित-स्वार्थ साधने को आनन-फानन में एक सर्वस्वीकार्य और कमजोर राजा को चुनकर देश पर काबिज हो जाने का स्थायी खतरा रहता है। जब राहुल गांधी की काबिलियत पर हर तरह के मखौल उड़ा कर पार्टी तथा परिवार की विश्वसनीयता नष्ट की जा रही थी; तब किसने सोचा था कि एक दिन बोफोर्स की ही तरह राफेल का मुद्दा, केंद्रीय काबीना में वंशवादी नेताओं, नेत्रियों की अभूतपूर्व तादाद में मौजूदगी और आर्थिक बदहाली का घंटा स्वयं इस नेतृत्व के गले में भी लटका नजर आएगा?
फिर भी नेता बदलने की बात भारत के किसी सत्तारूढ़ दल को नहीं जंचेगी, जंचनी भी नहीं है। उत्तर प्रदेश के चुनाव सर पर हैं और पार्टी को जिताने वाला अपने रथ का और कोई सारथी सर्वश्रेष्ठम मुख्यमंत्री घोषित किए जा चुके योगी जी को भी नहीं पसंद आएगा। राज-त्याग की भी अपने यहां लंबी परंपरा नहीं है। रण छोड़ कर वनवास ले लेना, फिर अगली बार जनता के बीच जाकर चौगुनी ताकत सहित वापिस आकर रण जीतना अजूबा ही है। साख बहाली की अन्य तरकीब धन बल, भुजबल से दल बदलवाना है। लेकिन तमाम खुफियागिरी, तथा सरकारी ताकत के उपयोग के बाद भी बंगाल में जो हुआ और जैसी खींचतान और अखाड़ेबाजी अन्य राज्यों में जारी है, सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिकता को नष्ट करने वालों को चेतावनी के बाद भीषण मौकापरस्तों ने भी अपनी काठ की हांडी को दोबारा चढ़ाने के सपने तज दिए हैं।
2024 में भाजपा सारथी बदलेगी, इसकी संभावना नहीं। मलिन छवि नेताओं के तत्वावधान में देश के दल पिछले सत्तर सालों के कई शरद जी चुके हैं। राजतिलक लायक एक ठो महानायक का कपाल खोजना हमारी पार्टियों ने अभी तक नहीं छोड़ा है। भारत के मालिक बदलें, यह चिंता की बात नहीं। लोकतंत्र में यह होते रहना अनिवार्य है। कुछ दलों, केंद्र के भाग्यविधाताओं के जाने का डर बहुत कुछ उनका ही बनाया हआ है। बुढ़ाते माता-पिता अक्सर हम उम्रों में कहते रहते हैं कि जाने हमारे बाद बच्चों का क्या होगा? बच्चे बड़े हो चुके हैं यह उनको बात पचती नहीं। पर देश में यह परंपरा स्वीकार नहीं हुई हो, फिर भी हम लेखकों और मीडिया टिप्पणीकारों का काम है कि कम-से-कम एक सिद्धांत के रूप में हम बुढ़ाते नेतृत्व में बदलाव की अनिवार्यता का सिद्धांत निरंतर जिलाए रखें। इससे कम-से-कम हर शासनकाल में लोकतंत्र का दरवाजा हर वर्ग की खुली भागीदारी और वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए खुला रहेगा।
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