मृणाल पाण्डे का लेख: जमीनी बदलाव के लिए नया साल मांग रहा है नया सोच, क्या खुद को बदलेंगे सरकार?

हमारी सरकार सत्ता में आने के बाद से घनघोर आत्म प्रचार कर यह आभास पैदा करती रही है कि वह देश के हर कोने को क्रांतिकारी तरह से बदल कर अच्छे दिन बस ला ही रही है जिनको निगोड़ी कांग्रेस ने रोक रखा था।

फोटो: IANS
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मृणाल पाण्डे

जैसे-तैसे बरस 2020, हमारी स्मृतियों का संभवत: सबसे दारुण साल, विदा हो गया। तीसरा महायुद्ध तो नहीं हुआ लेकिन वैश्विक महामारी कोविड के हमले ने दुनिया की हर उम्र, नस्ल और धर्म के अमीरों-गरीबों में कोई फर्क न करने वाली सामूहिक मौत की भयावह संभावना से भली भांति परिचित करवा दिया। हमारी सरकार सत्ता में आने के बाद से घनघोर आत्म प्रचार कर यह आभास पैदा करती रही है कि वह देश के हर कोने को क्रांतिकारी तरह से बदल कर अच्छे दिन बस ला ही रही है जिनको निगोड़ी कांग्रेस ने रोक रखा था। लेकिन खुद वह संसद या सूचनाधिकार की तहत या मीडिया पर विकास की बाबत पूछे जा रहे अपने कार्यकाल के जनजीवन के कई जरूरी सवालों और गिरावट के आंकड़ों को सार्वजनिक करने से परहेज करती है।

अब ऐसी दशा में तो देश को पुष्ट तौर से सरकारी आंकड़े ही बता सकते हैं कि राज-काज और जनजीवन की असली हालत क्या है? वैक्सीन कब तक उपलब्ध होगी और वह सबको मिलेगी कि वहां भी राजनीतिक लाभ-लोभ से भेदभाव होगा? उसके बाद देश में बेरोजगारी और खेती के हालात सुधरेंगे कि नहीं? जब हम घरों में बंद थे, तब नगाड़े बजा लाए गए किसान कानूनों, गरीब कल्याण पैकेज, स्वच्छ भारत मिशन, वत्सला योजना, उज्जवला योजना, गृह प्रवेश कार्यक्रम- जैसी लोकलुभावन सरकारी घोषणाओं का अंतिम फायदा जनता को होना है कि कुछअमीर घरानों को? नए आर्थिक सुधारों से कितने नए घरों-रोजगारों की सृजन संभावना है? बेघर ग्राम पलायन की गंगा वापिस शहरों को लौटेगी क्या? तमाम साफ- सफाई के गाने बजाती शहर में घूमती कचड़ा बटोर गाड़ियों और मुहल्ला क्लीनिकों, विशेष कोविड हस्पतालों के हाल क्या हैं? सरकारी हस्पताल और हमारे डॉक्टर, नर्सें कैसे हैं? जन स्वास्थ्य सेवाओं में इस दौरान में कितनी बेहतरी आई? पर्यावरण कितना साफ हुआ?


ताजा घरेलू उपभोक्ता सूचकांकों, नियोजित क्षेत्र के बीमा तथा भविष्यनिधि के आंकड़ों की सीएमआईई के किए ताजा सर्वेक्षण की पड़ताल से कोई भी जानकार इसी नतीजे पर पहुंचेगा कि हालात खास नहीं सुधरे। उल्टे नोटबंदी और कोविड की दोहरी मार के बाद भी गरीब-अमीर के फासले और बढ़े हैं। तालाबंदी से उबरा उद्योग जगत निजीकरण के फायदे तो ले गा पर खुद फूंक-फूंक कर ही नए रोजगारों की बाबत कदम बढ़ाएगा। अनियोजित क्षेत्र का कोई पुरसाहाल नहीं दिखता। वहां कोविड की तालाबंदी ने लाखों को रातों-रात बेरोजगार, बेघर बना कर गांव भागने को मजबूर किया, पर अधिकतर मजदूर फिर शहर वापिस आएंगे। आखिर गांवों में खस्ताहाल खेती कितनों को कितने दिन तक रोजगार देगी? गोदी मीडिया नए किसान कानूनों के चाहे जितनी तारीफों के पुल बांधे, (अगस्त 2020 में जारी 12.2 मिलियन किसान क्रेडिट कार्डों के बावजूद) गांवों में खेतीबारी की असली दशा का प्रमाण सिंघु बॉर्डर पर धरना देते किसान हैं जिनका कहना है कि वे मर-मिट जाएंगे लेकिन कॉरपोरेट खेती की तहत अपने साथ अन्याय नहीं सहेंगे। मजूर भी शहरों में पहले जैसे हालात अब नहीं पाएंगे। बड़ी वजह है पहली अप्रैल से लागू होने जा रहे नए श्रमिक कानून। यह कानून यूनियनों की ताकत, उनकी परिधि और छोटी फैक्टरियों में कितने मजदूर ठेके पर कितने समय के लिए रखे जा सकते हैं, इसमें भारी बदलाव लाने जा रहा है। विदेशी पूंजी आने से भी छंटनियों का खतरा कम नहीं होगा। बेंगलुरु के पास एपल-जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अभी मजदूरों ने कंपनी के भारतीय पार्टनर द्वारा वेतन भुगतान न किए जाने को लेकर भीषण हंगामा किया। नतीजतन एपल ने वह समझौता ही रद्द कर फैक्टरी पर ताला लगा दिया। यह सब आने वाले समय की एक बानगी है।

इक्कीसवीं सदी में देश को क्रांतिकारी दिशा में ले जाने का आश्वासन देती हुई एनडीए सरकार 2014 में सत्ता में आई थी, उसकी आर्थिक नीतियों ने और फिर कोविड ने दो दशक पूरे होते-होते उसे भारी आर्थिक धक्का दे दिया है। सरकारी आंकड़े न भी जारी हों तब भी यह एक चिंतित करने वाली सचाई है कि 2019-20 के (एनएफएचएस संस्था के ताजा तरीन डेटा में दर्ज) भारत में कुपोषित, अवरुद्ध विकास वाले 0-5 साल तक के बच्चों की तादाद में भारी बढ़त हो रही है। यह इसलिए अधिक चिंताकारी है कि पिछले दशकों में कमजोर कुपोषित बच्चों की तादाद में लगातार सराहनीय गिरावट दर्ज हो रही थी। इसका सीधा मतलब यह कि जिस नई पीढ़ी के स्वास्थ्य कल्याण के नाम पर सारे देश में बड़े-बड़े इश्तहारों और कार्यक्रमों के जरिये शौचालयों की चेन बनाने और पोषाहार वितरण के लुभावने नाम वाले कार्यक्रमों की झड़ी लगा दी गई थी, वे रेत में पड़ा पानी निकले। उनका कोई भी असर लक्षित बच्चों की शारीरिक-मानसिक तंदुरुस्ती पर नहीं पड़ा।


दरअसल सभी राष्ट्रस्तरीय व्यापक और महत्वाकांक्षी सरकारी कार्यक्रमों के तीन चरण होते हैं। पहला होता है नीति निर्धारण। इसमें हम बहुत तेज हैं। हर माह माननीय प्रधानमंत्रीजी द्वारा नियमित तौर से तमाम तरह की विकासपरक पहलों की घोषणाएं की जाती हैं। कई योजनाओं का वह भव्यउद्घाटनकरते दिखते हैं। पर जब इसके बाद का दूसरा अनिवार्य चरण आता है संसद तथा संसदीय समितियों और नीति से जुड़े सभी संस्थानों में इन नई नीतियों को कारगर बनाने के लिए मौजूदा ढांचे की ईमानदार समीक्षा और नीति के लक्ष्यों पर विमर्श, तो बात सरकारी बाबुओं के हाथ आ जाती है। जब मीडिया या विपक्ष की तरफ से सूचनाधिकार की तहत उनसे पूछताछ की जाए तो पारदर्शी जानकारियां नहीं मिलतीं। उस विषय को सरकारी नियमों की तहत निषिद्ध बता दिया जाता है। यह सब निबटा भी तो फिर आता है चरण तीन- यानी दी गई मीयाद के भीतर नई नीति के ठोस नतीजों, उपलब्धियों के ब्योरे सप्रमाण नियमित क्रम से सार्वजनिक होना। इसमें हमारा रिकॉर्ड बहुत खराब है। स्कूल शिक्षा का पाठ्यक्रम, दाखिले या सकल उत्पाद दर से लेकर बेरोजगारी तक के आंकड़े लगातार दरी तले सरका कर पहली योजना खत्म होने से पहले ही अचानक एक और नई आकर्षक नामवाली योजना की घोषणा हो जाती है। फिर उनकी तहत नई स्कूली इमारतें, पाठ्य पुस्तकें और शौचालय बनाने के ठेके तुरत-फुरत जारी हो जाते हैं। लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता, शौचालयों के नियमित इस्तेमाल और उनमें जल-मल निकासी की व्यवस्था पर कौन नजर रखे? टीचर, आशा दीदी किलोकल जल-मल व्ययन इकाइयां? सरकारी दफ्तरों में हाथ खड़ेकर इनको राज्यों का विषय कह दिया जाता है। लो कल्लो बात!

एक जरूरी सवाल यह है कि भारत में जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी पर हर सप्ताह प्रवचन देने वाली सरकार क्या उस सामाजिक दृष्टिकोण और जातिगत भेदभाव को बदलने पर भी सोच रही है जिनकी वजह से लगभग सभी घोषित योजनाएं जमीनी तौर से ठप्प रहती हैं। काम का तसल्लीबख्श बंटवारा कौन, कब, कहां करेगा- राज्य या हर काम खुद अपने हाथ में थामने की जिद पकड़े हुए केंद्र सरकार? केंद्र सरकार को कितना पता है कि देश के उत्तर तथा दक्षिण के राज्यों में विकास कितना फर्क है? उत्तर भारत में सबसे आबादी बहुल तीन राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में लैंगिक भेदभाव, और जाति-धर्म के सोच की प्रतिगामिता ने स्कूलों की पढ़ाई पाठ्यक्रम से लेकर मिड-डे मील या महिला स्वास्थ्य कल्याण कार्यक्रमों तक की दक्षिण में सफल रही योजनाओं को कैसा पेचीदा और भेदभावपूर्ण बना डाला है? जल-मल व्ययन के लोमहर्षक अमानवीय तरीके कैसे गांवों ही नहीं महानगरों में आज भी कायम हैं? स्वच्छ भारत अभियान, उज्जवला योजना, प्रधानमंत्री गृह आवास योजना इनकी बाबत कितनी साफ- सुथरी भरोसेमंद सरकारी जानकारी उपलब्ध है?


अगर सचमुच बाहर की गंदगी का निपटान, जनस्वास्थ्य की बेहतरी, प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रमों की सफलता और नियमित मिड-डे मील पोषाहार वितरण की गारंटी कुछेक निर्माण कार्यों और जोशीले भाषणों से तय हो जाती है, तो फिर हम यूएन की ताजा विकास तालिका में दो पायदान लुढ़क कर 189 देशों के बीच 131नंबर पायदान पर काहे दिखते? हम सब जानते हैं कि किस तरह से धार्मिक कारणों से उत्तर के कई राज्यों में और अब कर्नाटक में भी राजकीय स्कूलों में गरीब कुपोषित बच्चों को सस्ते प्रोटीन के ज्ञात स्रोत अंडे खाने से रोका जाता है। जातीय वजहों से शौचालयों की क्षमता और सफाई में अड़ंगेबाज़ी होती है। और सार्वजनिक शौचालयों में जाति, जेंडर और धार्मिक वजहों से खुली आवाजाही बाधित है। उधर विपक्ष शासित प्रदेशों से लगातार खबरें मिलती हैं कि राजनीतिक वजहों से भाजपा शासित प्रदेशों की तुलना में उनको राहत पैकेज या केंद्र आवंटित राशिया तो नहीं मिली या समय पर नहीं मिली। योजनाएं कितनी ही उजली हों, जब तक उनको लागू करने वालों और जिनके बीच वे लागू होंगी वह समाज साफ दिल-दिमाग नहीं रखता, वे महज जुमलेबाजी ही बनी रहती हैं।

यदि सरकार चाहती है कि जनकल्याण के नाम पर जिस विशाल राशि का वे नई स्कीमों की तहत आवंटन करा रही है, उससे उनकी वाहवाही तो हो पर उनके सुफल भी अगले चुनाव से पहले लोकतंत्र की डालों पर लटके हुए हों ताकि वे फिर चुनाव जीत सकें। वे कम-से-कम दफ्तरों से विकास फूटने का शेख चिल्ली सपना कृपया त्याग ही दें।

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Published: 01 Jan 2021, 7:00 PM