मृणाल पांडे का लेख: बीजेपी को चारों खाने चित कर सकता है महागठबंधन, लेकिन उसके लिए तेरी-मेरी से तौबा करना होगा
भाजपा से भिड़ना हो, तो महागठबंधन को ‘तेरी इतनी, मेरी इतनी सीटें’ का गणित साधने से पहले आम जनता के बीच जाना होगा। वहां उसे मीडिया, कई गैर सरकारी स्वैच्छिक संगठनों तथा बुद्धिजीवियों के साथ जनता का भरोसा जीतना होगा।
जिस साल मुंबई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपना शताब्दी समारोह मना रही थी, उसी साल भारतीय इतिहास कांग्रेस का भी 46वां वार्षिक अधिवेशन अमृतसर में हो रहा था। कांग्रेस को लेकर उस अधिवेशन में जाने-माने इतिहासकार प्रो. बिपनचंद्र ने (जो खुद मार्क्सवादी थे) कांग्रेस की शास्त्रीय मार्क्सवादी व्याख्या (कि वह 20वीं सदी के शुरुआती दिनों से भारतीय पूंजीपतियों और उभरते मध्यवर्ग की बुर्जुआ पार्टी रही है) के विपरीत जाकर गांधी नीत कांग्रेस के स्वाधीनता आंदोलन को उस समय का सबसे बड़ा जनवादी आंदोलन बताया। उनके अनुसार, गांधी जी की दरिद्र नारायण पर केंद्रित क्रांतिकारिता को भारतीय बौद्धिकों ने सही तरह समझा नहीं क्योंकि बापू की आम हिंदुस्तानी भाषा और लोक मुहावरे अंग्रेजी के मुहावरों में राजनीति पर बहसियाने वालों की समझ से परे रहते आए। वे मुहावरे आज की राजनीति में जमकर इस्तेमाल हो रहे हैं, पर एक बार फिर एकदम भिन्न अजंडा साधने के लिए। कहते भी हैं कि इतिहास कई बार तो मूल की कॉमेडी बन कर खुद को दोहराता है। उदाहरण के लिए, भाजपा के नेताओं के भाषण लें जिनमें वे वामपंथ, उदारवाद, से कुलरिज्म समेत कांग्रेस के खिलाफ भी भारत को ‘मुक्ति’ दिलाने का संकल्प जताते हैं। और उसके साथ ही राष्ट्रपिता गांधी जी के हत्यारे गोडसे तथा अंग्रेजों से माफी मांग कर रिहा हुए कतिपय पुराने लोगों को शहीद कह-कह कर शत-शत नमन भी कर देते हैं। विडंबना यह कि उनकी बात चल निकलती है क्योंकि जैसी अंग्रेजी कहावत है, खोटा पैसा अक्सर अच्छे पैसे को बाजार से बाहर कर देता है। और सच जब तक अपना मुंह जवाब देने के लिए खोलता है, झूठ दुनिया की दो परिक्रमाएं कर चुका होता है।
बार-बार सुनी स्वराज आंदोलन के मुहावरों को सर के बल खड़ा करने वालों की कांग्रेस की निकट मृत्यु की भविष्यवाणियां सामान्य जनता और कई विपक्षी धुरंधरों को भी कई बार सही लगने लगती हैं। हाल में बिहार में नीतीश कुमार की वापसी के बाद पराजित महागठबंधन के एक वरिष्ठ (राजद) नेता शिवानंद तिवारी का वक्तव्य लें जिसमें उन्होंने कांग्रेस को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि महागठबंधन को कांग्रेसी नेतृत्व से अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। मिलता तो उनकी जीत तय थी। दरअसल, महागठबंधन बनने-चलाने की लड़ाई काफी लंबी होती है और वह तब सफल होती है जब इस कठिन और लंबे समय में सभी दल अपने सहयोगियों को सार्वजनिक रूप से लांछित करने की बजाय भीतर खाने ईमानदारी से अपनी बातें आपस में साझा करें और आगे की बड़ी लड़ाई के लिए खुद को सही तरह संयोजित करते रहें। इसके बाद दूसरी जरूरत है कि प्रतिपक्षी गठजोड़ ताकतवर होती जा रही भाजपा का चिंतन, चरित्र और उसकी चाल सही तरह समझे। 2020 में भाजपा का साम्राज्य एक व्यापक स्थिर साम्राज्य है। एक धक्के से हिलने वाला यह मामला नहीं। साथ ही उस पर पुरानी तरह की नैतिकता की दुहाई का असर नहीं होता। वजह यह कि उसका नेतृत्व तथा काडर जाति, धर्म तथा संप्रदाय के मुद्दों पर कई जगह संविधान आधारित बहुलता, सेकुलरवाद तथा अभिव्यक्ति की आजादी से एकदम असहमत साबित होते रहे हैं। उनको भरोसा ही नहीं पक्का यकीन है कि उनकी ही विचारधारा इक्कीसवीं सदी के भारतीय लोकतंत्र के लिए भी एकदम वाजिब है। उसकी तहत लगभग सारे गैर हिंदू शरणार्थी दीमक समान हैं। साथ ही संविधान में वर्णित नागरिक पहचान, धार्मिक कानून तथा मीडिया की आजादी-जैसे कई प्रावधान उनको अनावश्यक लगते हैं जिनमें वे (संसद में अपनी मज़बूत उपस्थिति द्वारा) कई दूरगामी बदलाव लाने के इच्छुक हैं। चुनावी नतीजों से जाहिर है, कि दल के शिखर पुरुष की वक्तृता से मोहित जनता का एक बड़ा भाग चुनावों में कई जगह उनके कार्यकर्ताओं से भी आगे जाकर विभेदकारी वैचारिकता को समर्थन दे रहा है।
भाजपा से भिड़ना हो, तो महागठबंधन को ‘तेरी इतनी, मेरी इतनी सीटें’ का गणित साधने से पहले आम जनता के बीच जाना होगा। वहां उसे मीडिया, कई गैर सरकारी स्वैच्छिक संगठनों तथा बुद्धिजीवियों के साथ जनता का भरोसा जीतना होगा। अन्यथा ‘मां भारती आध्यात्मिक पटल पर विश्वगुरु, और आर्थिक पटल पर विश्वशक्ति बनने जा रही है’ जैसे फिकरों से बुने गए मानसिक इंद्रजाल में भरमाया औसत मतदाता जमीनी सचाई– बेरोजगारी, नोटबंदी, तालाबंदी और मंदी से विमुख बना रहेगा। बनते-बनते बन रहे इस महागठबंधन को आपसी आरोप-प्रत्यारोपों से किनारा करते हुए एक किताबी गतिशील युद्ध की बजाय लोकल जमीनी स्थितियों से उपजे मुद्दों के कई-कई स्थिति युद्धों को राज्यवार धीरज तथा एकजुटता से लड़ना होगा। शिवानंद जी से शिवपाल यादव तक और स्टालिन से मायावती तक सब यह समझ लें कि अब भी वे हर चुनाव के बाद आपसी तू-तू, मैं-मैं करते रहे तो इतिहास का यह विशाल अजगर उनको निगल कर डकार भी नहीं लेगा।
गांधी यदि सफल हुए तो इसीलिए कि अंग्रेजी उपनिवेशवाद के खिलाफ कांग्रेस के झंडे तले उन्होंने एक विशाल समग्रतथा समर्पित महागठबंधन रचा। उसमें भी नरम दल भी था, गरम दल भी। मुस्लिम लीग थी और देश भर के कई जमींदार, बनिया, छात्र और बुद्धिजीवी भी। और फिर भी उनका आंदोलन सुभाष बोस की या चटगांव के क्रांतिकारियों की क्रांतिसेना की तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, के आकर्षक नारे पर नहीं चला। महागठबंधनी अवतार में कांग्रेस ने बापू के नेतृत्व में शांति और धीरज का परिचय दिया। जभी वह लंबे कालखंड में चरण-दर-चरण चंपारण से मुंबई और फिर हिमालय से हिंद महासागर तक अंग्रेजों के कई आकर्षक ‘हमारे स्वामि भक्त टोडी बनो, राज करो’ ऑफर्स से जनता का मन उचटा सके। अढ़ाई सदी से जमे उपनिवेशवादी साम्राज्य की ही तरह हर तरह की जातिवादी, नस्लवादी दकियानूस वैचारिक तानाशाही का उन्मूलन समय, धीरज और आपसी भरोसा मांगता है। यह भी जरूरी है कि जब चुनाव न भी हों तो उस समय भी गठबंधन तितर-बितर न दीखे। उसके सभी साझीदार लगातार अपनी महागठबंधनी पहचान कायम रखते हुए देशभर में दौरे और रणनीति बनाने की कई गोष्ठियां जारी रखें। महागठजोड के साथियों के लिए यह भी भुलाने की बात नहीं कि भारत की धुर दक्षिण और धुर वाम छोड़कर जिनके कई बड़े लीडरान भी स्वराज्य आंदोलन समर्थक रहे, आज की लगभग सारी क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस की ही समावेशी कोख से निकली हैं।
1854 से साम्राज्यवादी, समता विरोधी शोषण से मुक्ति का विचार भारत की फिजां में डोल रहा था। 1857 में उसने कल्लेफेंके भी, पर जातिवादी भेदभाव और अंग्रेजों पर सिपाहियों के हिंसक हमलों के बाद साम्राज्य की जवाबी प्रति हिंसा और चंद रजवाड़ों के पिट्ठू भितरघात ने जल्द ही जनता की वह अभूतपूर्व एकता बनने से पहले ही मिटा दी। पतझड़ के पत्तों की तरह क्रांतिकी कामना करते लोग पहले से भी दब्बू-कातर बन कर बिखर गए। रही-सही कसर नई स्कूली शिक्षा नेअनेकों नेटिव लोगों को हुकूमत की नौकरियां, ओहदे और तमगे दिलवा कर पूरी कर दी। पर शिक्षा अजब चीज है। जिस अंग्रेजी शिक्षा ने शुरू में अंग्रेजी हुकूमत का स्वार्थ सिद्ध किया, उसने ही ज्ञान को अखिल भारतीय बनाकर आधी सदी बाद भारत के सबसे बड़ेजन-आंदोलन को भी पैदा कर दिया, यानी अंग्रेजी ने साम्राज्य कायम किया तो उसको नष्ट भी। बार-बार कहा जा रहा है कि कांग्रेस और अंग्रेजी- दोनों खत्म हो रही हैं। अब उसकी नई शिक्षा नीति प्रादेशिक भाषाओं में हिंदू बालकों के हेतु ज्ञान के दरवाजे खोलेगी। पर शिक्षा क्षेत्र का 2014 के बाद हुआ प्रजातांत्रिकरण ज्ञान की अखिल भारतीयता के बारे में आर्यावर्त से इतर इलाके में संशय के कई स्वर उठा रहा है। उसी तरह पाश्चात्य ज्ञान को गरियाने वाले कई बड़े नेताओं की तरफ से कोविड काल में रोगनिरोध के लिए जो घोंघा वसंत किस्म के देसी सुझाव जनता को दिए गए, फिर कई सुझावदाता जिस तरह खुद कोविड के शिकार हो कर उसी डाक्टरी चिकित्सा की शरण में गए, उनको सुन-देख कर लगा कि क्याय ही आधुनिक भारत है?
क्षेत्रीय भाषा में सक्षम लेकिन ग्लोबल अंग्रेजी से लगभग कटे हमारे ऐसे नेता क्याआज शेष दुनिया से, राजनय के नए गठबंधनों से, नई सूचना तकनीकी से उस तरह रिश्ता बना सकेंगे जैसा जरूरी है? ज्ञान में समावेशी बनने के लिए जिस भी कोण से देखिए, कांग्रेस एक असीमित संभावनाओं से भरी विचारधारा नजर आती है, भले ही राजनीतिक तौर से वह कमजोर लगती हो।
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Published: 22 Nov 2020, 8:00 PM