मृणाल पाण्डे का लेख: अफगानिस्तान संकट के बीच चीन और पाकिस्तान की चाल से भारत को बेहद सतर्क रहने की जरूरत
फौरी स्वार्थों के नजरिये से अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे के बाद पाकिस्तान पर आतंकी हमलों और सीमा पार से वहां लाखों शरणार्थियों की संभावित आवक पर खुश होने की जरूरत नहीं।
फौरी स्वार्थों के नजरिये से अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे के बाद पाकिस्तान पर आतंकी हमलों और सीमा पार से वहां लाखों शरणार्थियों की संभावित आवक पर खुश होने की जरूरत नहीं। हिंसक, उजड्ड और जूननी तालिबान जत्थों ने जितनी आसानी से सत्तारूढ़ सरकार को बेदखल करके राष्ट्रपति को परदेस भगा दिया, भविष्य में उसके निहितार्थ हमारे लिए भी गंभीर हैं। यह भी गौरतलब है कि पाकिस्तान और महाशक्ति चीन ने अमेरिकी सेना के जाते ही उस शून्य में घुसे तालिबान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया है। अफगानिस्तान से तीस बरस पहले खदेड़ा गया रूस और दो सदी पहले वहां से हारकर निकला ब्रिटेन भी तालिबान सरकार से रिश्तों को नकारने की बजाय उसे मान्यता देने पर सोच-विचार कर रहे हैं। राजनय में जबरदस्त का ठेंगा हमेशा सर पर होता है।
जहां तक अमेरिका की घर वापसी का सवाल है, राष्ट्रपति बाइडन ने साफ कह दिया है कि उनकी सेना अफगानिस्तान में आदर्श लोकतंत्र की स्थापना के लिए नहीं गई थी। उसका उद्शदे्य 9/11 हमलों के दोषियों की जड़ अल कायदा को नेस्तनाबूद करना था। जब वह हो गया, तो अरबों खर्च कर वहां अपना भारी सैन्य बल तैनात रखने में अमेरिका की रुचि नहीं है। अफगानिस्तान जाने और उसका काम! नैतिक तौर से इसे मौकापरस्ती कहें या कुछ और, दुखद सच यही है कि अमेरिकी सैन्य मदद वियतनाम, जापान, सीरिया और अफगानिस्तान तक अंतत: राष्ट्रीय हित स्वार्थों की धुरी पर ही घूमती है। रिपब्लिकन सत्ता में हों या डेमोक्रेट।
वापिस तालिबान शासित खैबर पार की दुनिया में आएं। अंतरराष्ट्रीय ताकतों की पंजा लड़ाई के इस इलाके में जैसी भी सरकार आए, उसे दुनिया के सारे ताकतवर देश दोस्त बनाए रखना चाहते हैं। पाकिस्तान से उसकी झड़पों को भी चतुर राजनयिक इलाके की इस्लामी कट्टरपंथिता से जोड़कर मध्य एशिया के तेल और संसाधनों के वृहत्तर दायरों में देखते रहते हैं। घटनाक्रम को देखकर राजेंद्र माथुर का कहा याद आता है कि भारत का भौगोलिक मानसून भले बंगाल की खाड़ी से आता हो, इतिहास में इलाके का राजनीतिक मानसून खैबर की ही दिशा से उमड़ता रहा है। लिहाजा सीमा से सटा काबुल इस इलाके का एक फटेहाल, उजड्ड और गरीब बिरादर होते हुए भी भारत के लिए हमेशा भारी सामरिक महत्व रखेगा। 1955 तक, जब जहीर शाह का राजतंत्र था, काबुल की लगातार पाकिस्तान से झड़पें होती थीं, पर तब भी नेहरू की दूरदर्शिता से काबुल और दिल्ली के बीच अच्छी दोस्ती रही। सैन्य क्रांति से सत्तारूढ़ परवर्ती दाऊद खां की सरकार ने भी नेहरू की विदेश नीति से प्रेरणा लेते हुए अपना अस्तित्व बचाने को 1955 में चीन को मान्यता दी और उसी बरस रूस के शीर्ष नेताओं की भी काबुल में मेजबानी की। अल कायदा का अड्डा बनने से पहले चीन के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति आइसन होवर और ओबामा तक सब बड़े विश्व नेता मैत्री यात्राओं पर काबुल जाते रहे। अमेरिका ने काबुल से कंधार तक सड़क बनवाई (वहां का हवाई अड्डा तभी बना), तो रूसी उसको कंधार से हेरात तक ले गए (काबुल का हवाई अड्डा रूस की मदद से बना) और फिर उन्होंने अपनी सीमा तक उत्तरी अफगानिस्तान को जोड़ने वाली सड़कें बनवाईं। आतंकवाद को पनाह देकर ट्विन टावर्स को नेस्तनाबूद कराने वाले, रूबिया सईद का अपहरण करके भारत से चींने बुलवावाले तालिबान अब भले फिर सत्ता में हो, दुनिया के राजनयिक गलियारों में रावण के घर पानी भरने पर आश्चर्जनक एका बन रहा है।
इस सारे उपमहाद्वीप की हिंदू-मुस्लिम गुत्थी बहुत पुरानी और पेचीदा है। इसलिए किसी महाशक्ति का पिछलग्गू बनने की बजाय भारत के लिए इस समय संतुलित गुटनिरपेक्षता अपनाना बेहतर है। इस समय अगर भारत धर्म और भाषा के आधार पर घर भीतर किसी मुस्लिम बहुल इलाके का विखंडन और बिखराव करेगा तो संभव है कि 1947 के बंटवारे की ताकतें आज भी मौका पाकर भूगर्भ में छुपी भूकंप प्रवण कई रगड़पट्टियों में हलचल मचा कर हमारी राजनीति को डगमग करने लगें। यह विचार इसलिए मन में आ रहा है कि पहले कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर वहां के बड़े नेताओं को सायास अशक्त बनाया गया और फिर हाल में 1947 के बंटवारे की विभीषिका के सालाना समारोह मनाया जाने का ऐलान किया गया। यह सब मिल-जुल कर अतीत के कई अवांछित प्रेत हवा में विमोचित करेगा। यदि यह हुआ तो विभिन्न समुदायों के बीच भारतीय इतिहास की कई बिखराव कराने वाली पुरानी प्रक्रियाएं एक तरह की ॠतु वैज्ञानिक अनिवार्यता सहित सक्रिय हो सकती हैं। कश्मीर विभाजन ने, गोकशी के आरोप में की गई गिरफ्तारियों और नागरिक पहचान पत्र जारी होने की संभावना ने घाटी में, कुरुक्षेत्र और पानीपत में (किसान आंदोलन द्वारा) इधर कुछ किस्म के चिंताजनक दबाव क्षेत्र बनाए हैं। किसी चुनावी हित के लिए नाहक इस हलचल को और तेज करने की बजाय स्थिति का समय रहते निराकरण सयानापन होगा। अन्यथा उस दबाव से हवा में खिंचाव बनेगा। तब किसी-न किसी बहाने से खैबर पार से जूननी घुसपैठी जत्थों के वज्रपाती अंधड़ खिंचे हुए चले आ सकते हैं। इमरान खान तालिबान की जीत को इलाके द्वारा बेड़ियां तोड़ने की संज्ञा दे रहे हैं। यह तेवर चिंताजनक है। दरअसल इमरान खान न मजबूत हैं, न ही कट्टरपंथी इस्लाम के प्रतिनिधि। पर वह भुट्टो की ही तरह परिस्थितियों से मजबूर हैं। भारतीय कश्मीर पर पाकिस्तान की टपकती लार भी नई नहीं। भारत ने इधर पाकिस्तान या उसके मित्र चीन से सौमनस्य पूर्ण रिश्ते बनाने की कोई गरम या नरम पहल नहीं की है। और न ही अनुच्छेद 370 हटाने के बाद बिफरी घाटी में उसके नेताओं की मार्फत भरोसा बहाली की कोई गंभीर पहल छेड़ी है। दिल्ली में लंबी नजरबंदी के बाद उनकी परेड हुई, पर दोनों पक्ष अपनी मजबूरी और खिसियाहट मिटाने को हमेशा की तरह दुमुंही राजनीति करते दिखे। यह स्थिति खतरनाक है। ऐसी घड़ियों में भारत पर खैबर पार के पुरखों के सफल ऐतिहासिक हमलों-हवाले से गुप्त आह्वान देकर पाकिस्तान और चीन कब सिरफिरे तालिबान के कंधे से भारत पर निशाना सधवा दें, कहना कठिन है।
जब-जब इस तरह का तनाव बढ़ता है, महाशक्तियां उसे अपनी लागडांट निपटाने का साधन बनाती हैं। फिलहाल दुनिया की दो महाशक्तियों में से अमेरिकी राजनय का अतीत तो पाकिस्तान के साथ है, वर्तमान कुछ तटस्थ और भविष्य भारत के साथ माना जा रहा है। लेकिन शीतयुद्ध से लेकर अबतक अमेरिका या चीन- दोनों ने सिद्धांतों नहीं, स्वार्थों के कारण कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष लिया है, ओसामा के पाकिस्तानी गुप्त ठिकाने को उजाड़ने के बाद भी उसने पाकिस्तान को दी जा रही आर्थिक मदद निरस्त नहीं की। वैसे, अमेरिका-चीन के बीच शीत युद्ध की चाभी न पाकिस्तान के पास है, न भारत के। पर दोनों महादेश असील मुर्गों की तरह उन को लड़ाकर दांव लगाने में अधिक दिलचस्पी रखते हैं। खुद वे कोई ऐसा कदम नहीं उठाते जो सीधा टकराव न्योते। इसलिए भारत को यह उम्मीद त्याग देनी चाहिए कि पंचशील, गांधीवादी अहिंसा, गरीबी हटाओ और अशोक कालीन सर्वधर्म समभाव-जैसे जुमलों द्वारा वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी कमीज पाक से अधिक उजली दिखाकर अपना केस बेहतर बना सकता है। जन संपर्क और आत्मप्रचार से राजनय में अनिवासी भारतीयों की समृद्धि का स्वर्ण मृग दिखाकर कुछ दिन सफलता मिली, पर अब नहीं। कोविड से हिली दुनिया में सब नए सिरे से परिभाषित हो रहा है। राजनय भी। आज डिजिटल मीडिया तथा नेट नाटकीय मुखौटे बड़ी जल्द उतार देते हैं। दीर्घकालिक राजनय में साफगोई और आमने-सामने बैठकर दो या तीन स्तरों पर एक साथ की जाने वाली बैठकें ही कारगर होती हैं। लिहाजा महाशक्तियों की पहल देखते हुए भारत को भी अफगानिस्तान से अपने हित स्वार्थों की बाबत पुराने दोस्ताना रिश्तों की दुहाई देने की बजाय अपनी सुरक्षा के मद्देनजर वही कड़ा मोलतोल करना चाहिए जो सफल व्यवसायी लोग करते हैं। उनसे उनके लिए अप्राप्य कश्मीर के संदर्भ में भारत में सहज विलय आदि पर बहस उतनी ही बेकार होगी जितना यूएन की सामुद्रिक सुरक्षा बैठकों में भारतीय ग्रंथों के हवाले से विश्व एकता की बात करना। यूरोपीय महासंघ राजनय का चतुर खिलाड़ी है। इसीलिए वणिज व्यापार से सैन्य सुरक्षा तक के मसलों पर वह ईमानदारी और समझदारी से अपनी एकता की बजाय विविधता पर जोर देता है। जो अफ्रो-एशियायी देश अपनी एकता-अखंडता पर जोर देते रहते हैं, तो इसलिए कि उनमें कदम-कदम पर फूट, नफरत और दुश्मनी की दरारें हैं। पड़ोस में बिखराव भारत के लिए खतरनाक है। उस इलाके का जो हश्र होगा, भारत को इससे हमलावरों की अलग-अलग दर्जनों टोलियों से निबटना पड़ेगा। बेहतर होगा कि भारत अपने आकार और अमेरिकी करीबी से अहंकारी बनकर इस नाजुक समय में अफगानिस्तान को दोस्ती की जगह नाक रगड़ाई पर विवश न करे, अन्यथा वहां पाकिस्तान की चलाई यह मान्यता बल पाएगी कि भारत के साथ इज्जत की दोस्ती असंभव है।
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Published: 22 Aug 2021, 8:07 PM