मृणाल पाण्डे का लेख: आज धर्म और देशप्रेम के नाम पर टूरिस्ट कॉरीडोर और विश्रामगृह निर्माण, प्रभो, बलवानों को दे दे ज्ञान

आज धर्म और देशप्रेम के नाम पर टूरिस्ट कॉरीडोर और विश्रामगृह निर्माण और होलोग्राम की प्रतिमाओं के पूजन का जमाना है। पढ़ें मृणाल पाण्डे का लेख।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

और अब बताया जा रहा है कि इस साल गणतंत्र दिवस की औपचारिक समाप्ति पर राजपथ पर सेना की टुकड़ियों की विदा का सौम्य शांत उत्सव, ‘बीटिंग दि रिट्रीट’, कार्यक्रम तो होगा, लेकिन उसमें बापू की प्रिय प्रार्थना, ‘अबाइड विद मी’ नहीं बजाई जाएगी। जो लोग इस प्रार्थना की सतरों को उपनिवेश कालीन ईसाईयत का असर और गांधी की सर्वधर्मसमभावी करुणा से जोड़ कर उसे छोड़ने के हिमायती हैं, वे न तो बापू की आस्था का सांगीतिक पक्ष समझते हैं और न ही इस प्रार्थना की गहराई और पृष्ठभूमि को। 1847 में स्कॉटलैंड के एक एंग्लिकन ईसाई पादरी हेनरी फ्रांसिस लाइट की यह रचना बाइबल की मार्मिक पंक्तियों से उपजी है। देह त्यागते हुए ईश्वरीय करुणा की शरण में जाने की यह प्रार्थना अंतिम क्षणों में उनका हाथ थामे उनका एक मित्र बुदबुदा रहा था।

प्रभो, मेरे साथ रहो, जब सारे मददगार असमर्थ पड़ चुके हों, सारे सुख बीत गए हों, अशरण दीन की अंतिम शरण, हे प्रभो, उस घड़ी में बस तुम मेरे साथ बने रहो ...

पचास सालों से उनतीस जनवरी की ठंडी शाम को राजपथ पर सेना के तीनों अंगों की टुकड़ियों को ससम्मान विदा के मार्मिक पलों में, ‘बीटिंग दि रिट्रीट’ उत्सव का साक्षी होना एक सौभाग्य है। सभी सैन्य बैंड एक के बाद एक पूर्व निर्धारित धुनें बजाते हुए राष्ट्रपति महोदय से सौम्यतापूर्वक अलविदा कहते हैं। सबसे अंत में बिगुल के स्वर इस करुणाभरी प्रार्थना से हृदयों पर संगीत का मरहम लगाते हुए वायु मंडल में विलीन हो जाते हैं। उस समय इसके साक्षी भले ही कविता के शब्दों से अपरिचित हों, संगीत के स्वरों का धीमे-धीमे बजती घंटियों के बीच वायु में विलीन होना हमको बापू और ईसा की अगाध करुणा का नि:शब्द दर्शन कराता है। उदारता और करुणा का धर्म नहीं होता। न ही वे शब्दों या किसी देश काल तक सीमित हैं। जब स्व. पलुस्कर सूरदास के पदों के माध्यम से आर्त स्वरों में गाते हैं,

‘हे गोविंद, हे गोपाल, मैं जीवन हारे शरण भयो तिहारे अबकी बेर पार करो...’ तो उनकी प्रार्थना भी ऐसी ही करुणा से ओतप्रोत है। और जब भक्त नरसी मेहता गाते हैं, ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे’,

तो उनके लिए भी पराई पीर समझने वाला ईश्वर ही सामने होता है।


आज धर्म और देशप्रेम के नाम पर टूरिस्ट कॉरीडोर और विश्रामगृह निर्माण और होलोग्राम की प्रतिमाओं के पूजन का जमाना है। इसलिए धर्म की अपनी मनमानी समझ को ही सब पर थोपने को आतुर लोगों में गांधी जी का सहज करुणामय व्यक्तित्व और उससे उपजे विचार समझने की न तो इच्छा है न धीरज। आए दिन तमाम तरह के लगभग अनपढ़ छुटभैये मंच पर जा कर गांधी की मृत्यु और विचारों की बाबत अवाक् करनेवाली संकीर्णता का प्रदर्शन करने को आजाद हैं।

गांधी के अवगुणों में उनको नई मशीनों अथवा कलाओं की बाबत एक संकीर्ण विचारवाला इंसान भी गिनना उनके लिए सहज है। ऐसे ही गंवारों के परिष्कार के लिए गुजराती साप्ताहिक नवजीवन में छपे गांधी जी ने अपने लेख (21 मार्च, 1926) में कहा है : ‘...जिस हद तक हम संगीत शून्य हैं, उस हद तक हम पशुतुल्य हैं। संगीत का मतलब यह होना चाहिए कि हम अपना जीवन संगीतमय बनाएं। आज हमारे जीवन में संगीत नहीं है। ...यही कारण है कि हमारी ऐसी दयनीय दशा है। जहां प्रजा एक सुर न निकाल सकती हो, वहां स्वराज्य कैसे हो सकता है? ...जब सारे देश में करोड़ों लोग एक ही स्वर में बोलने लगेंगे, तब संगीत का हमारा यह प्रयोग सफल हुआ कहा जाएगा। ...मेरे विचार से तो सच्चा संगीत खादी और चरखे में समाया हुआ है।’

गांधी की विचारधारा हमेशा सत्य पर आधारित रही लेकिन सत्य के साथ उनके प्रयोगों का दायरा भारत वापसी के बाद बढ़ता गया। 1930 तक काफी हद तक क्षेत्रीय सीमाओं तक सिमटा रहा राष्ट्रवाद का सपना उनकी कमान तले लगातार फैला और धीमे-धीमे एक अखिल भारतीय सपने में बदलने लगा। इन सालों के दौरान गांधी के मानसिक विश्व और वैचारिक प्रखरता का इतिहास हम ठीक से नहीं जान सकते, उसके नतीजे ही धरातल पर देख सकते हैं। सुशीला नैयर ने तो उनकी दैनंदिनी ही लिखी। गांधी का मानसिक भूगोल और उसकी परिधि शब्दों में नहीं, संगीत में ही समेटी जा सकती है। यह अनायास नहीं, कि 1942 तक आते- आते बापू आध्यात्म से संगीत का जुड़ाव समझ गए थे। और प्रार्थना के सुरों से तमाम जाति संप्रदाय के झमेलों में फंसी देश भर की जनता को एक मंच तक लाने के लिए उनको संगीत इकलौता सार्थक पुल लगा। इसीलिए बड़े जननेताओं के अलावा (1918 में) उस समय के जाने-माने संगीतज्ञ पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर भी इस पावन मुहिम में अपना सहयोग देने को स्वदेशी आंदोलन से जुड़ने को राजी हुए। नत्रेहीन होते हुए भी पलुस्कर बापू की करुणा का मरम कई नत्रेवालों से बेहतर समझ सके थे कि शास्त्रीय संगीत की गहरी समझ न रखने के बावजूद गांधी जी हर जाति-धर्म के भारतीय के मन में पारंपरिक लोक संगीत, खासकर भक्ति संगीत के प्रति छुपा गहरा प्यार समझ कर उसके द्वारा देशभर में जनता से बड़ा और गहरा संवाद कायम करने के लिए सही राजनैतिक मंच बना और उस तक हर तरह के श्रोताओं को ला सकने में समर्थ थे। अब उनकी सारी जनसभाएं प्रार्थना के स्वरों से शुरू होती थीं। और (पुणे में दिए एक व्याख्यान में) बापू ने साफ कहा कि आइए, जिस भावना से आयरलैंड के सारे राष्ट्रवादी जनसभाओं में एक स्वर में राष्ट्रप्रेम के गीत गाते हैं, हम सभी स्वराजी भी उसी तरह एक स्वर में गाएं, भारत हमारा देश है।


किसानों के बीच गहरे आक्रोश का शिकार बने आज के जननेता कर्मव्रती राष्ट्रपिता ‘अबाइड विद मी’ की प्रिय प्रार्थना को वनवास देते समय भूल गए हैं कि किस तरह गांधी जी ने पलुस्कर जी के लोकसंगीत के स्वरों से जुड़े भक्ति संगीत और रामायण गायन ने तब सीधे-सादे खेतिहर किसानों को सीधे बापू की जनसभाओं में ला जोड़ा और राष्ट्रवादी जनांदोलन की ठोस नींव रखी थी। 1921 में अहमदाबाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के सालाना जलसे में जब भीड़ गांधी जी के दर्शनों को टूटी पड़ रही थी, तो पलुस्कर जी ने ही एकतारा बजा कर रघपुति राघव राजाराम गाते हुए उत्तेजना को शांत किया और बापू के लिए मंच तक पहुंचने का रास्ता बनाया था। इस सत्र की शुरुआत उन्होंने ही संगीत से (वंदे मातरम् गाकर) की थी। और इसकी अभूतपूर्व सफलता के बाद 1923 में भी कांग्रेस के किनादा सम्मेलन में भी मंच पर अपने शिष्यों के साथ गांधी जी के प्रिय भजन गाए।

स्वरों का सामंजस्य नहीं, तो संगीत नहीं, और जहां संगीत नहीं, वहां समरसता नहीं। सिर्फ दिलों का सामंजस्य ही असली स्वराज्य ला सकता है, यह अद्भुत विचार है! इसी के तहत मस्ती से रघपुति राघव राजाराम गाती स्वराजियों की मंडली दांडी जैसी जोखिम और चुनौतीभरी यात्रा में उतर कर अंग्रेजों की राजकीय दमनकारिता को निहत्थी चुनौती दे सकती थी! 1925 में चरखा कातते समय बापू के आगे कुछ संगीतकारों ने सितार बजाने का प्रस्ताव रखा। उस दिन बापू का मौन दिवस था। पर अपनी डायरी में उन्होंने लिखा कि उस दिन उनसे सूत बेहतर काता गया। और वे स्वीकार करते हैं कि स्त्रियों की जिस भौतिक मानसिक रचनात्मकता की ताकत उन्होंने अपने बचपन में घर की महिलाओं के बीच देखी थी, वह कहीं उनकी माता के गाए भजनों के स्वरों से भी आत्मसात हुई थी। इस तरह संगीत की एक बड़ी थाती जो डॉन के नीरस लेखक नहीं देख सके, गांधी जी ने एक विलक्षण तरीके से स्वराज आंदोलन से जोड़ी।

हुक्मरानों से कहीं पहले तब के समाज की कई उपेक्षिता, हर तरह की तकलीफ झेल कर अपने हुनर की कमाई से आत्मसंभव बनी पेशेवर गायिकाएं बापू की करुणा का मर्म समझ गईं। ‘अबाइड विद मी’ जैसी गांधी जी की करुणा परिधि छूकर यह गवनहारियां भी स्वराजी मुहिम का एक आत्मीय अंग बनीं। गौरतलब है कि काशी की पारंपरिक गायिकाओं ने सबसे पहले (विद्याधरी बाई के तत्वावधान में) 1921 में तवायफ संघ बनाया और सुराज फंड में नियमित चंदा देते हुए स्वराज आंदोलन से निकले असहयोग आंदोलन से भी अपनी जमात को जोड़ा। 1920 में जब गांधी जी कोलकाता में स्वराज फंड के लिए चंदा जुटा रहे थे, उन्होंने उस समय कोलकाता की जानी-मानी गायिका बड़ी गौहरजान को भी बुलवा भेजा और उनसे एक विशेष महफिल का आयोजन करके स्वराज आंदोलन के लिए चंदा जुटाने में मदद मांगी। गौहर के एक विश्वस्त त्रिलोकीनाथ अग्रवाल ने एक लोकप्रिय पत्रिका (धर्मयुग,12.6.88) में इसका जिक्र करते हुए लिखा कि गौहरजान ने बापू की बात सर माथे पर ली। बाद को अपने परिचितों के बीच इस आशय की बात भी कही कि उन जैसी तवायफ से स्वराज आंदोलन जैसी पवित्र मुहिम के लिए मदद करने को कहना उनके लिए बहुत बड़ा सम्मान था। बहरहाल, गौहर ने बापू से आश्वासन लिया कि वे एक खास मुजरा करेंगी जिसकी पूरी कमाई वे सुराज फंड को दान कर देंगी। हंसमुख और मुंहफट गौहर कुल कमाई का आधा 12 हजार रुपये फंड को दिया भी।

बापू के पौत्र राजमोहन गांधी भी अपनी पुस्तक ‘मोहनदास’ में लिखते हैं कि भयावह दंगों की आग बुझाने को की गई अपनी नोआखाली यात्रा के समय भी नंगे पैर नोआखाली की घास पर यात्रा करते हुए गांधी जी संगीत से घिरे रहते थे। कई गांवों में ग्रामीण उनका स्वागत मादल बजाते हुए गाते हुए करते थे और गाते-गाते उनके साथ अगले गांव तक जाते थे। इसका गहरा शांतिकारी असर पड़ा। अचरज नहीं कि जब आगा खान हाउस में कैदी बापू दिल के दौरे से अंतिम सांसें गिनते अपने छायासंगी महादेवभाई का हाथ थामे उनको जाता हुआ देख रहे थे, उनके मन में ‘अबाइड विद मी’ जैसी उस करुणामय प्रार्थना के स्वर गूंजते हों जिसे बाद को उनकी सब प्रार्थना सभाओं में शुमार किया गया।

काश, इतना इतिहास नए भारतभाग्य विधाता समझ सकते। अभी तो हम बापू की तरह प्रार्थना ही कर सकते हैं: बलवानों को दे दे ज्ञान।

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Published: 30 Jan 2022, 8:13 PM