मृणाल पाण्डे का लेख: सूचना हाईवे पर अवरोधक लगाना सूचनाधिकारों का उल्लंघन, कैसे होगी समय, धन और ज्ञान की हानि की भरपाई?
चुनावी लोकतंत्र की तमाम दलगत लड़ाइयों, वाद-विवादों, मारामारी और सूचना की गोपनीयता पर फलते-फूलते वर्गों के सरों के ऊपर इंटरनेट ने एक अदृश्य अंतर्जाल रच दिया।
सूचना क्रांति के जन्म पर सदी की शुरुआत में जितने बताशे बंटे और जो-जो सोहर गाए गए, उनमें सबसे ऊंचा स्वर लोकतांत्रिक देशों का था। चुनावी लोकतंत्र की तमाम दलगत लड़ाइयों, वाद-विवादों, मारामारी और सूचना की गोपनीयता पर फलते-फूलते वर्गों के सरों के ऊपर इंटरनेट ने एक अदृश्य अंतर्जाल रच दिया। इसके बाद बस देखते-देखते तमाम तरह की सूचनाएं और ज्ञान बहुत तेजी से आम जनकी पहुंच के भीतर आ गए। भारत जैसे नवसाक्षरों की भरमार वाले देश में भी इंटरनेट ने पिछले पांच बरसों में ज्ञान, सूचना और समृद्धि- तीनों में अकल्पनीय इजाफा किया है। साथ ही इसने हमको दुनियाभर में सूचनाओं के कई मेगा महापोर्टलों का मुखिया भारतीय मूल के प्रतिभाशाली लोगों को स्थापित भी कर दिया। फिर भी क्या वजह है कि जनवरी, 2012 से मार्च, 2020 तक अचानक सरकार द्वारा देश के कई हिस्सों में इंटरनेट सेवाओं पर 385 बार (अकसर कानून व्यवस्था बहाली के नाम पर) रोक लगाने का सिलसिला शुरू हो गया?
ब्रुकिंग्स इंस्टिट्यूट के अनुसार, 2020 तक भारत दुनिया में सबसे अधिक समय तक और सबसे ज्यादा (121) बार इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाने वाला देश बन चुका है। जनवरी, 2021 की शुरुआत का नजारा देखते हुए फिर से मन में आशंका होती है कि इस बरस भारतीय जीवन का शहर से गांव तक अकाट्य भाग बन गए इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाने की घटनाएं कम होने की बजाय और न बढ़ जाएं। इस तरह के कदमों से सरकार को कुछ समय के लिए गैर मन माफिक सूचनाओं के वितरण को रोकने का ताकत मिल जाती है। लेकिन हर बार फसादियों से कई गुना ज्यादा तादाद में इंटरनेट सेवाओं से भारी फायदा उठा रहे लाखों मासूम छात्र, शोधार्थी, स्वास्थ्य सेवाएं, बैंक, एटीएम, ऑनलाइन विपणन करने वाली कंपनियां नाहक गेहूं के साथ घुन की तरह पिसने लगते हैं।
आर्थिक क्षति का हिसाब देखें तो एक बड़े आर्थिक अखबार का अनुमान है कि इंटरनेट बार-बार बाधित होने से देश को 2.8 बिलियन डॉलर के लगभग का नुकसान हुआ है। पहले कानून- व्यवस्था बनाए रखने के तर्क तले लंबे समय तक इंटरनेट बंद होने की घटनाएं कश्मीर तक सीमित थीं। लेकिन आज वे दिल्ली के सीमावर्ती उस सारे इलाके पर भी गहरा असर डाल रही हैं जहां धरने पर दो महीने से बैठे किसान ही नहीं, करोड़ों सामान्य नागरिक भी रहते और कोविड काल में घर से ही इंटरनेट के सहारे काम कर पाते हैं। वैसे, उच्चतम न्यायालय एक बार फैसला दे भी चुका है कि ऐसी कार्रवाई इकतरफा और किसी विशेष सनक (सिनिसिज्म) की तहत लागू करना असंवैधानिक और नागरिकों के सूचनाधिकारों का उल्लंघन है। पर क्रम रुकता नहीं दिखता। जिस समय विकसित दुनिया 5 जी के फायदे ले रही है, और भारत इंटरनेट सेवाओं का सबसे बड़ा बाजार बनकर उभर रहा है, करोड़ों उपभोक्ताओं के बावजूद भारत के कुछेक क्षेत्रों में ब्रॉडबैंड क्षमता को 2जी पर कायम रखा गया है। इससे उन जगहों के उपभोक्ता कई तरह की जरूरी डिजिटल सेवाओं- राज्य से इतर के शिक्षण क्षेत्रों में दाखिला लेना या अखिल भारतीय या अंतरराष्ट्रीय प्रवेश परीक्षाओं या नौकरियों के लिए जरूरी जानकारी पाना, एनजीओ की तहत विशेष वंचित वर्गों या पीड़ितों तक पहुंचना उनकी मदद करना आदि से वंचित हो जाते हैं। आजकल नेट की क्षमता कम कर देने पर तकनीकी शब्दों को तिनके की ओट बना कर कहा जाता है कि इंटरनेट सेवाएं बंद (क्लोज डाउन) नहीं हुई हैं, सिर्फ उनको इस्तेमाल बाधित (अनयूजेबल) बना दिया गया। पर इससे जो अकूत समय, धन तथा ज्ञान की हानि होती है, उसकी भरपाई कैसे होगी?
भारत ने यूएनके अंतरराष्ट्रीय रूप से मान्य समझौते (इंटरनेशनल कोवेनांट ऑनसिविल एंड पोलितिचाल राइट्स) पर हस्ताक्षर किए हैं। इसकी तहत हस्ताक्षर करने वाले किसी भी देश में किसी भी स्थितिमें उपभोक्ताओं को इंटरनेट तक पहुंचने से बाधित करना उनके अधिकारों (धारा 19, पैरा 3) का उल्लंघन माना गया है। अंतरराष्ट्रीय कानूनविदों और नागरिक संगठनों ने यह भी पाया है कि किसी तरह के आपात्काल में (मसलन, पड़ोसी देश के साथ झड़प या युद्ध की स्थितिया घरेलू स्तर पर दंगे-फसाद की वारदातें) इंटरनेट पर रोक लगाकर आग पर पानी डालना आम होता जा रहा है। पर इसकी वजह से इंटरनेट-बाधित इलाके में सशस्त्र बलों या ताकतवर दंगाई गुटों द्वारा कमजोर वर्ग के मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में बढ़ोतरी हो जाती है क्योंकि इंटरनेट कट गया तो उत्पीड़न की दशा में वे बाहर से मदद के लिए गुहार नहीं लगा पाते। दूसरी बात, जब-जब खबरें बंद की जाएं तो सामान्य मनोवृत्ति कानाफूसी और अफवाहों की तरफ मुड़ जाती है। इससे हिंसा और भी अनियंत्रित हो जाती है। एक सूचना विशेषज्ञ के शब्दों में, अफरातफरी और हिंसा की नाजुक घड़ियों में सरकारों तथा नागरिकों के समवेत शांति सुलह प्रयासों की बजाय बस इंटरनेट को बंद करना ऐसा है जैसे कोई सर्जन आपात्कालीन ब्रेन सर्जरी के लिए लेजर की बजाय कुल्हाड़ा इस्तेमाल करने लगे। इस तरह कुछ समय को श्मशानी शांति भले हो जाए, भावनाएं गीली लकड़ियों की तरह भीतर ही भीतर सुलगती रहती हैं और आगे जाकर कब पुराने जख्म रिसने लगें, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता। कक्षाएं ठप्प, एटीएम और क्रेडिट कार्ड ठप्प, बहुमंजिला इमारतों के कई इंटरनेट से जोड़ेजा चुके उपकरण ठप्प, और अंत में बड़े प्रयासों के बाद जन-जन की पहुंच में लाई गई ई-बैंकिंग सेवाएं तथा विपणन सब पिछड़ जाते हैं, और पुराने ढर्रे का वही कैश लेन-देन का कारोबार चल निकलता है जो काले पैसे और जमाखोरी को उकसाता आया है।
दरअसल सूचना की दुनिया आज ऐतिहासिक तौर से बदल चुकी है और सबसे भारी तब्दीली आई है डिजिटल सोशल मीडिया क्षेत्र में। डिजिटल का राजपथ चलता है इंटरनेट की ही मार्फत। आज सारी दुनिया 5 जी की दहलीज पर फर्राटे भर रही है। लेकिन हमारी क्षमता और जरूरतों के बावजूद घर भीतर हमारा डिजिटल तंत्र बार-बार की रोक-टोक और खुफिया खोजबीन से इतनी बुरी तरह चरमरा गया है कि दिसंबर, 2020 में अपनी डिजिटल विकास की दावेबाजी के बावजूद मोबाइल इंटरनेट सेवाओं के क्षेत्र में हमारी रैंकिंग विश्व में 129वीं पायदान पर बताई गई है। और ब्रॉडबैंड स्पीड के लिहाज से भी हम 65वीं पायदान पर खड़ेहैं।
कोई इस बात को खारिज नहीं कर सकता कि कोविड महामारी से निबटने के दौरान इंटरनेट शिक्षा ही नहीं, विपणन और शेष दुनिया से जरूरी सूचना तथा जानकारियों की लेन- देन का सबसे बड़ा और सफल रास्ता बनकर उभरा है। लेकिन अजीब विडंबना यह कि जो सरकार पिछले सालों में बार-बार भारत में शिक्षा से सार्वजनिक वितरण और चिकित्सा से बाजार कारोबार तक हर क्षेत्र को अग्रगामी ‘डिजिटल इंडिया कैंपेन’ से जोड़ने उसे और भी गति देने की सदिच्छा जताती रही हो, अचानक सूचना और अभिव्यक्ति के मंचों, खासकर लोकप्रिय डिजिटल मीडिया को टेढ़ी भंवें कर जब उसको जरूरत हो, सूचना हाईवे पर कांटेदार अवरोधक लगाने खड़ी नजर आती है।
यह गौरतलब है कि दिनों-दिन युवा आबादी से भरते जा रहे भारत की ‘डिजिटल इंडिया’ पहल खुद सरकार की चंद सफल योजनाओं में से एक है। और कोविड के चरम क्षणों में जब सारी जनता घरों में बंद रहने को मजबूर थी, उस समय इंटरनेट मीडिया तथा उसके डिजिटल मंचों ने जनता तथा सरकार- दोनों को इस महामारी से जूझने तथा जरूरतमंदों तक चिकित्सकीय राहत पहुंचाने में कितनी बड़ी मदद दी, यह रेखांकित करना भी जरूरी नहीं। इसलिए लोकतंत्र में नेट सेवा को शांति के लिए खतरा समझ कर सार्वजनिक अशांति का हवाला देते हुए इंटरनेट को बार-बार बाधित करते रहना (या पूरी तरह से रोक देना) नन्हें विकास के अंकुर फेंकते शिक्षा, विपणन, सूचना और सार्वजनिक वितरण क्षेत्र को फिर पिछड़ने को मजबूर कराते जाने में हमको कोई विजनरी सयानापन नजर नहीं आ रहा। महाभारत में एक लोमड़ी ब्राह्मण को कहती है कि पशु और मानव के बीच सबसे बड़ा अंतर है भाषा का जिससे वह अपनी बात खुली तरह सारी ताकत से कह पाता है। आज इंटरनेट भारतीय लोकतंत्र के भीतर हजारों सालों में तैयार हुई हर जन भाषा में जनता के हर हिस्से को अभिव्यक्ति का हक और सलीका दे रहा है। और इसी अभिव्यक्ति के, वार्ता-विमर्श से मजबूत लोकतंत्र बनते हैं। फेक खबरों से डरने और नेट पर पाबंदी लगाना ऐसा है जैसे बच्चे को नहलाने के बाद गंदे पानी सहित फेंक देना! बेहतर हो, हम जनता को नेट पर सही तरह सूचनाओं और ज्ञान को पकड़ने, दुनिया की पहचान करना सिखाएं, ताकि चुनी सरकारों और शिकायती जनता के बीच बैर पोसने की बजाय खुला संवाद हो और दिलों में मैल इस कदर जमा नहो कि जनजीवन ही थम जाए। अमेरिका के लोकतंत्र में जागरूक जनता के द्वारा डिजिटल मीडिया पर सरकार की तरफ से तमाम तरह की फेक सूचनाई तिकड़में आजमा चुके महाबली ट्रंप को गहरी हार और सार्वजनिक तिरस्कार मिलते हुए देखकर हमको कुछ सबक तो समय रहते सीख ही लेने चाहिए।
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