मृणाल पांडे का लेख: बहुसंख्यक हित के पैरोकार नहीं जानते धर्म का मर्म
हर धर्म हर संप्रदाय में तंगदिल और क्षुद्र स्वार्थ वाले लोग होते ही हैं। इसलिए जितने पंथ बने, सब अपने मूल गुरु की मौत के बाद उपपंथों में बंटते गये और जब कोई पंथ राज्याश्रय पा गया तो धन और ताकत की अति से उसका पतन होने लगा। हमारा संविधान धर्म की इसी विशद् और टिकाऊ व्याख्या पर रचा गया है।
धर्म आज भारत के राजनीतिक शब्दावली का एक ऐसा हिस्सा बन चुका है जिससे हमको हर कदम पर टकराना पड़ता है। राजधर्म, स्त्री धर्म, नागरिक धर्म और न जाने किन किन रूपों में। लेकिन यह शब्द तकरीबन 4000 बरस पहले जब ॠग्वेद में आया तो इसका मतलब था ऋत्। यानी ईश्वर या प्रकृति के बनाये वे अखंड नियम जिन पर अनादिकाल से सारा संसार उसी तरह आकर टिका हुआ है जैसे रथ के चक्के की धुरी। यह धुरी डगमगाई या असंतुलित हुई तो भारी खतरा है। इसलिए यथासंभव इसकी रक्षा होनी चाहिए। यह नियम मनमानी तरह से देश, समय या स्थान के आधार पर नहीं बदले जा सकते। वे आकाश में सूरज चांद से लेकर पृथ्वी पर तक लागू होते हैं।
धर्म शब्द बना है ‘धृ’ क्रियापद से, जिसका मतलब है धारण करना या संभालना। यानी वे नियम जो सारी कायनात की टेक और अनृत् (यानी ॠत् के उलट तत्व) के हमले के खिलाफ एक ढाल भी हैं। अथर्ववेद का एक सुंदर (पृथ्वी) सूक्त कहता है कि मातृभूमि की रक्षा और बेहतरी दोनों इसी धर्म पर टिकी हैं, (धर्मणा धृता) और यह भी, कि हमारी मातृभूमि में कई तरह के धर्मों को मानने वाले रहते हैं। ज़ाहिर है कि ॠग्वेद के ज़माने से अथर्ववेद तक आते-आते इस शब्द के दायरे में हमारे बहुलता से भरे समाज के तरह तरह के समूहों भी आ जुड़े थे। धर्म का मतलब उनके संदर्भ में भी सब मानते थे। इसलिए धर्म को शिष्टाचार भी कहा गया है। यानी जांगलू सपना त्याग कर हर मनुष्य के प्रति सभ्य आचरण करना।
जब यह मान लिया गया कि बुनियादी सत्य सारी सभ्यताओं की जड़ में, एक समान है, तब नीतिगत आचरण को बनाये रखने के लिये हर सभ्यता में आगे जाकर इन शिष्टाचारों को समझने और लागू करने के लिये पंचायतें या अदालतें रचीं गईं और उनके लिये विधान बने। इस तरह आईन या कानून या विधान धर्म के लिये पुराने शब्द हैं। हमारे यहां अदालत के लिये धर्मासन और न्याय करने वाले अधिकारी के लिये धर्मस्थ शब्द का उपयोग हम पुराने ग्रंथों में देखते हैं। तो बाहर भी धर्मपीठ पर आसीन लोगों के लिये अलग-अलग सभ्यताओं में कुछ खास संकलन (कोड) बनाये गये।
मध्य एशिया में हम्मुराबी का कोड, भारत में मनु का कोड, पश्चिम में यहूदी इसाई लोगों का मोज़ेस कोड और रोमन लोगों का जस्टीनियन कोड इसी तरह बने और धर्म का मतलब सबकी तहत यही है, शिष्टाचार के दैवी नियमों की अनुपालना ताकि समाज में जंगल राज न कायम हो सके। छोटी मछली और बड़ी मछली, कमज़ोर और ताकतवर अमीर के बीच यह नियम ढाल बन कर हमेशा हर जीव की रक्षा करें। इसी नज़रिये से मोज़ेस ने माना कि भाई-भाई की रक्षा करेगा, दूसरे के धन को नहीं छीना जायेगा, पराई स्त्री पर कुदृष्टि नहीं डाली जायेगी आदि। और हमारे अलग-अलग न्यायकारों ने भी कमोबेश धर्म की यही व्याख्या की कि उसकी तहत चाहे युद्ध हो, तब भी सत्य, संयम और अक्रोध सर्वमान्य मूल्य बने रहें। इसलिए इनके प्रतीक और शांति संयम के पैरोकार धृतराष्ट्र को धर्मराज कहा गया। बुद्ध ने भी इसी अर्थ में धर्म को अंतिम कसौटी या शरण माना, धम्मं शरणं गच्छामि कह कर।
अब हर धर्म हर संप्रदाय में तंगदिल और क्षुद्र स्वार्थ वाले लोग होते ही हैं। इसलिए जितने पंथ बने, सब अपने मूल गुरु की मौत के बाद उपपंथों में बंटते गये और जब कोई पंथ राज्याश्रय पा गया तो धन और ताकत की अति से उसका पतन होने लगा। हमारा संविधान धर्म की इसी विशद् और टिकाऊ व्याख्या पर रचा गया है। जो एक दृष्टि कोण वाले ताकतवर राजनेताओं ने भुला डाला है। उन्होंने जनता के बीच लगातार इस आशय की बातें कहना शुरू किया है कि भारत में ‘विधर्मियों’ को चुन-चुन कर भगाया जाएगा, सिर्फ बहुसंख्य हित सर्वोपरि रहेंगे और इस तरह रामराज्य लाया जाएगा आदि। खेद है, वे असली धर्म का मर्म नहीं समझते उलटे धर्म यानी ॠत् में असंतुलन पैदा कर विनाश की तरफ देश को हांक रहे हैं।
वाल्मीकि राम की धनुष बाण चलाने की क्षमता या विमान की सवारी और रावण हनन को नहीं उनके न्याय पर दृढ चरित्र को ही धर्म मानते हैं। इसलिए सीता के प्रति उनकी अपार करुणा पतिधर्म के मामले में राम को कम नंबर देते हैं। कबीर या गांधी के राम धर्म के मूल अर्थ के प्रतीक हैं, एक हिंदू देवता नहीं। राम मंदिर के नाम पर मारकाट करनेवालों, भगवा पहन कर बलात्कार करने, दलितों का उत्पीड़न करने और हिंसक भड़काऊ बयान जारी करने वालों में गांधी के राम के प्रति कोई समझ या सच्ची आस्था नहीं। मनुष्य जाति की रुचियां और आस्था पालन के रास्ते अलग हो सकते हैं, लेकिन अंतत: सब रास्ते ॠत् में ही जा मिलते हैं। तभी कबीर कहते हैं, राम रहीम एक हैं, नाम धराया दोय, और बापू का प्रिय भजन भी कहता है ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान्’। सन्मति ही धर्म है।
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