मृणाल पाण्डे का लेखः धार्मिक पर्यटन से ध्वस्त हो रहे पहाड़, सिसक रहा पर्यावरण, पर दिल्ली से देहरादून तक बेफिक्री

आज के ज्ञानी-ध्यानी दिल्ली से देहरादून तक धर्मसंसदों में खड़े होकर तिलक, चंदन, भगवा धारण करने के बावजूद त्याग या अपरिग्रह या करुणा की बजाय अखंड सनातनी हिन्दू भारत की स्थापना और विधर्मियों तथा विपक्ष का समूल विनाश करने का संदेश मीडिया में फैला रहे हैं।

फोटोः रेखाचित्र
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मृणाल पाण्डे

पर्यटन शब्द पहाड़ में पिछले दशक में ही चलन में घुसा है। इससे पहले पहाड़ी लोग-बाग तो बाहर जाने को देशाटन कहा करते थे और मैदानी लोग हिमालय की तरफ आने को तीर्थाटन! चार धाम यात्रा का जगन्नाथी रथ तब बुलडोजरों से बने चार-छह लेन के राजमार्गों से हो कर नहीं जाता था। अधिकतर तीर्थयात्री तीर्थाटन को पवित्र शारीरिक श्रम से जोड़ कर देखते थे। थकान के हिसाब से लंबी डगरों पर चट्टियां बनी थीं जहां जरूरत का न्यूनतम सामान पाकर विश्राम किया जा सकता था। फिर पैदल हिमालयीन इलाके की सुंदरता निहारते हुए हम लोग आगे बढ़ते।

अभी पिछले हफ्ते अपने एक बीमार प्रियजन को देखने के लिए बरास्ते हरिद्वार, ॠषिकेश और फिर देहरादून जाना हुआ। इस दौरान यह पाया कि धार्मिक पर्यटन ने इलाके का नक्शा ही बदल डाला है। सरकार की असीम अनुकंपा से सारे इलाके का तीर्थाटन अब पैसे की वैतरणी का इलाके में अवतरण करवाने वाला पर्यटन का पैकेज बना कर बेचा जा रहा है। सैर-सपाटे के लिए दिल्ली के काफी पास पड़ने वाले इस कुदरती तौर से सुंदर इलाके में आकर मौज-मस्ती के साथ गंगा में डुबकी मार कर पाक-साफ हो जाने का ‘एक पंथ दो काज’ का न्योता देने वाले विज्ञापनों से देश भर का मीडिया पाट दिया गया है।

पर्यटक भारी तादाद में आने भी लगे हैं। ईस्टर से लेकर रमजान और हनुमान जयंती तक नाना उत्सवों की मेहरबानी से कामकाजियों के लिए यह एक लंबा सप्ताहांत था। कोविड के दौरान घरों में कैद पर्यटकों का एक इतना भारी हजूम इस इलाके में उमड़ पड़ा था जिसे लोकल लोग भी कहते थे, उनकी कल्पना से परे था। चिर गरीब पहाड़ों को पर्यटन उद्योग के विकास के जरिये धर्म और पर्यटकों का स्वर्ग बना देने पर अपनी पीठ थपथपाते दिल्ली और देहरादून उत्तराखंड के ऐसे टेढ़े-मेढ़े विकास पर चिंतित नहीं, कसीदे पढ़ते रहते हैं।

गौरतलब यह भी है कि टूर ऑपरेटर जो कि अधिकतर मैदानी लोग हैं, एयर कंडिशन्ड वाहनों से चारेक दिनों में आपको चार धाम की यात्रा करवाने का वादा करते हैं। इससे तेज रफ्तार वाहनों की आवाजाही और पानी, लोकल रिहायशी जगहों की गंदगी बेतरह बढ़ चुकी है। छोटे-छोटे बाजार सैलानियों के भीमाकार वाहनों के जाम से ठसाठस रहते हैं और सफाई होना नामुमकिन बन जाता है। कुल मिलाकर सारे बड़े पहाड़ी शहर आधारभूत ढांचा लाए बिना इस पर्यटन विस्फोट के शिकार बन गए हैं जो पहाड़ के नाजुक पर्यावरण या स्थानीय भावनाओं को ठेंगे पर धरने वाले पर्यटकों की बेतरतीब आवाजाही और पार्किंग से हर गर्मी में विशाल स्लम बन जाते हैं।


फिर भी सरकार को गर्व है कि बड़े बिल्डरों और हयात रीजेंसी जैसी पांच तारा होटल चेनों ने यहां योगा-भोगा के वास्ते विदेशियों और अनाप-शनाप कमा चुके हमारे दौलतियों के लिए स्वर्ग समान सुविधाएं उपलब्ध करा दी हैं। धर्म के नाम पर अपनी कमाई का एक अंश देकर पाप धोने और स्वर्गवासी होने का फार्मूला इन नगरियों में सरकारी अमले और उन पर्यटकों को जो डच बियर या स्कॉटलैंड की व्हिस्की पीते हुए बाल्कनी से गंगा की धारा निहारते हैं, कतई हास्यास्पद नहीं, विकास का सार्थक प्रमाण लगता है।

अंतिम बात से याद आया कि हरिद्वार से ॠषिकेश के रास्ते में मुनि की रेती इलाके में एक पुल के आर-पार भीषण जाम लगा था। बताया गया कि यह नियमित रूप से लगता है। वजह? बताया गया, अजी, यहां बस अड्डा तो है ही, साथ ही यहां पर धर्मस्थली देवभूमि उत्तराखंड की सबसे बड़ी शराब की दूकान है। सो पर्यटक और शराब के सारे इलाके के गाहक यहां रात गए तक जुटे रहते हैं। पर क्या देवभूमि को ड्राय एरिया नहीं घोषित किया गया है?

जिस अदा से कभी गोपियों ने कृष्ण से ‘नैन नचाय, कह्यो मुसुकाय, लला फिर आइयो खेलन होरी’ ... कहा होगा वैसे ही बातून उत्तरदाता बोला, ‘अजी यही तो मजे की बात है! यहां पर दो जनपदों की सीमा हुई, टिहरी गढ़वाल और ऋषिकेश। ऋषिकेश में शराब नहीं बिकेगी, पर यहां टिहरी गढ़वाल में शराबबंदी लागू नहीं होने वाली है। उनका अपना कानून है। इसीलिए टिहरी गढ़वाल में ये दूकान बनी है। देसी कहो तो देसी, बिदेसी कहो तो बिदेसी, सारा माल हुआ यहां पर ! कमाई का क्या पूछते हो? हमने सुना इस साल पूरे नौ करोड़ पैंतीस लाख में इसका ठेका उठा है।

स्व. अनुपम मिश्र विनोबा भावे को कोट करते थे जो मस्ती से गाते थे, सारे जहां से अच्छा, ‘क्योंकि’ हिन्दुस्तां हमारा ...। इस ‘क्योंकि’ को विहिप के संदर्भ में देखिए। किस सुथराई से जहांगीरपुरी दंगों की प्राथमिकी में दर्ज दंगा आयोजित करवाने वाले संगठन को शाम तक मेट कर कुछ अज्ञात दंगाइयों के खिलाफ बना दिया गया। ‘क्योंकि’ हिन्दुस्तां हमारा! क्या यह एक संयोग भर है कि एक भगवाधारी बाबा हरिद्वार और ॠषिकेश के बीच नाना उत्पाद बनाने वाला एक विशाल उपक्रम और औषधीय बाग लगवाते हैं। उनके उत्पादों की गुणवत्ता पर नाना सवालिया निशान लगते हैं, मिट जाते हैं। धंधा चुनाव दर चुनाव कुछ और चमक जाता है।


जब तक इस इलाके का रिश्ता ॠषि-मुनियों और धर्मवेत्ताओं और गांधी जी, काका कालेलकर या रवींद्रनाथ टैगोर सरीखे समाज सुधारकों और बौद्धिकों से रहा, तब तक यहां की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक ही नहीं, भौगोलिक सुंदरता भी बनी रही। जिस काल में हमारे बड़े-बड़े सम्राट और महारथी भी तमाम युद्ध जीतने के बाद पांडवों की तरह एक दिन वैभव के सारे बंधन तोड़ कर अंतिम दिन बिताने यहां आते थे। उस काल की कुछ बची-खुची स्मृतियां आज भी चंद बूढ़ा केदार या काली कमलीवाले बाबा के स्थान की तरह लगभग उध्वस्त मंदिरों, चट्टियों, धर्मशालाओं में शेष हैं। काका कालेलकर ने बहुत सुंदर बात कही है कि पहाड़ों का संदेश रहा है ‘स्वावलंबन’ और ‘स्वराज’, बड़े-बड़े विशाल मैदानी महानगरों का संदेश है ‘साम्राज्य’।

वे लोग थे जो सीधे ध्यान चिंतन और अपरिग्रह की लंबी परंपरा से निकले थे। आज के ज्ञानी-ध्यानी दिल्ली से देहरादून तक धर्मसंसदों में खड़े होकर तिलक, चंदन, भगवा धारण करने के बावजूद त्याग या अपरिग्रह या करुणा की बजाय अखंड सनातनी हिन्दू भारत की स्थापना और विधर्मियों तथा विपक्ष का समूल विनाश करने का संदेश मीडिया में फैला रहे हैं। इस जहर के पसरने और निरंतर पहाड़ आकर भी नेट से राजनीति, फिल्म और कारपोरेट जगत की दुनिया के हालचाल पर जिंदा लोगों का अपने आस-पास के जिंदा लोगों और अपने गिर्द के पर्यावरण से मानवीय रिश्ता टूट रहा है। रास्ते भर सड़क किनारे के होटलों में, शहरों की दूकानों, रेस्तराओं में तथाकथित धार्मिक पर्यटक मोबाइल कान में लगाए या उसका पर्दा स्क्रोल करते हुए दिखते हैं।

पहाड़ों से लौटते समय अपने क्षीणकाय रुग्ण परिजन के अलावा बहुत बातें मन में आती रहीं। आज भी कुछ जगहें हैं जहां यह बेकार के बेतार जड़ नहीं पकड़ पाते। उन जगहों पर गंगा की अविरल धारा के चारों ओर बने आस्था पथ पर घूमते हुए आप अपने दिवंगत पुरखों से संवाद करते हैं। पुरखे कहते हैं मौत से डरो मत। मा भै:। सूक्ष्म या स्थूल इन दोनों दुनियाओं का गणित तुमसे परे है। बोरिया-बिस्तर बांधना एक मुहावरा ही नहीं। वही खोजो जिसे हमारे मनीषियों ने कहा था, मम सत्य। मेरा सच। कविवर भवानी प्रसाद मिश्र कह गए, जीवन तुम्हारा धोबी नहीं। हमको खुद अपना धोबी बन कर जिंदगी की सफाई करनी पड़ेगी।

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