यूपी में एक लाख से अधिक पेड़ और झाड़ियां काटना तय, पर्यावरण पर बहुत भारी पड़ेगा यह कांवड़िया प्रेम

यूपी सरकार के लिए 15 दिनी कांवड़ यात्रा इतनी महत्वपूर्ण है कि जिस राह कांवड़िए गुजरते हैं, उनके लिए गंगा नहर किनारे की सड़क चौड़ी करने, इसके लिए लाखों हरे-भरे पेड़ काटने की तैयारी है।

फोटो: विपिन
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रश्मि सहगल

“शिव की बारात में डीजे नहीं बजेंगे तो क्या शव यात्रा में बजेंगे?’’ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कांवड़ यात्रा के दौरान कांवरियों को लाउडस्पीकर पर डीजे बजाते हुए बेधड़क चलने को इन्हीं शब्दों में उचित ठहराया था। कांवड़ यात्रा, यानी कभी का एक पारंपरिक तीर्थ पथ जिसका उपयोग गंगा का पवित्र जल अन्य शहरों तक ले जाने के लिए किया जाता था। डीजे के कारण इस पथ पर अब न सिर्फ डेसीबल का स्तर कई गुना बढ़ चुका है, बल्कि हरिद्वार और वाराणसी से आने वाले रास्ते में खुले ट्रकों पर डीजे के साथ महिलाएं भी खूब नृत्य करती दिखाई देती हैं।

सत्ताधारी पार्टी के लिए यह कांवड़ यात्रा इतनी महत्वपूर्ण है कि जिस रास्ते से ये कांवड़िये गुजरते हैं, (योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर) उन पर गुलाब की पंखुड़ियां बरसाने के लिए हेलीकॉप्टर किराए पर लिए जाने लगे। हर कुछ सौ कदम की दूरी पर उन्हें खाना खिलाया जाता है, स्वागत होता है। हाल के कुछ वर्षों में इनकी संख्या खासी बढ़ी है। पिछले साल सरकार ने गणना कराई थी कि पोंटा साहिब के लेकर ऊपरी गंगा नहर के साथ 111 किलोमीटर की दूरी पर मुजफ्फरनगर में पुरकाजी से लेकर मेरठ में सरधना और जानी और गाजियाबाद में मुरादनगर तक विभिन्न मार्गों से गुजरने वाले कांवड़ियों की संख्या एक करोड़ से अधिक थी। 

राजमार्गों पर उमड़ने वाली इस भीड़ की सुविधा के लिए राज्य सरकार ने एक लाख से अधिक पेड़ और झाड़ियां काटना तय किया है। प्रस्ताव है कि कांवड़ियों की सुविधा के लिए नहर किनारे बनी सड़क चौड़ी की जाए। इसके लिए ऊपरी गंगा नहर के किनारे लगे एक लाख से ज्यादा हरे पेड़ों और झाड़ियों की बलि दे दी जाए। सड़क चौड़ीकरण की इस कवायद पर राज्य के खजाने से 1,000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होंगे।

दो साल पहले मेरठ के नागरिकों तक पहली बार इस परियोजना की खबर पहुंची तो व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ। जागरूक नागरिक एसोसिएशन के प्रमुख गिरीश शुक्ला ने ‘चिपको’ की तर्ज पर आंदोलन शुरू कर दिया। लोग सरधना तीन नहर का पुल पर एकत्र हुए और पर्यावरण के लिए उनका महत्व उजागर करने वास्ते पुराने शीशम और नीम के पेड़ों को अपने आलिंगन में ले लिया। शुक्ला कहते हैं, “स्थानीय जनता की नाराजगी देखते हुए, योजना तब एक साल के लिए स्थगित कर दी गई लेकिन अब इस पर फिर से काम शुरू हो गया है।”


मेरठ के बुद्धिजीवी हरि जोशी इस नवीनतम सड़क चौड़ीकरण परियोजना से भयभीत हैं। कहते हैं- “कांवड़ियों को इतना महत्व क्यों दिया जाना चाहिए? धर्म विशुद्ध रूप से निजी मामला है, इसे उसी तरह देखना चाहिए। राजमार्गों और दिल्ली-मेरठ रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम (आरआरटीएस) की राह आसान करने के लिए लाखों प्राचीन पेड़ पहले ही कट चुके हैं। आरआरटीएस में हजारों लोग हर सुबह काम के लिए राजधानी आएंगे और फिर हर शाम लौटेंगे। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में वैज्ञानिक बार-बार अत्यधिक यात्राएं रोकने की चेतावनी दे रहे हैं लेकिन हमारी सरकार ठीक इसके विपरीत काम कर रही है।”

एक अन्य पर्यावरणविद आश्चर्य जताते हैं कि आखिर कांवड़ियों  को इतना महत्व दिया क्यों जा रहा है: “ये तो मुख्य रूप से अराजक लोगों का झुंड हैं।” वह जोर देकर कहते हैं कि “सिंचाई और वन विभाग राज्य सरकार को बताने में विफल रहे हैं कि ऊपरी गंगा नहर उत्तराखंड और यूपी- दोनों के लिए कृषि समृद्धि का कितना जरूरी स्रोत है। अतीत गवाह है कि कांवड़िये किस तरह बेखौफ होकर नहर में कचरा और प्लास्टिक की बोतलें फेंकते हैं जिससे पानी गंदा हो जाता है और पूरी क्षमता से चलने पर लगभग 33 मेगावाट उत्पादन करने में सक्षम छोटे जलविद्युत संयंत्रों की कार्यक्षमता प्रभावित होती है।”

पर्यावरणविद् रेनू पॉल बताती हैं कि कांवड़ यात्रा सिर्फ 15 दिन तक चलती है जबकि ऊपरी गंगा नहर ने पिछले 150 वर्षों में अपना स्वयं का पारिस्थितिकी तंत्र विकसित किया है: “यह हरा-भरा और अब तक एकांत स्थान इतनी बड़ी संख्या में लोगों के आने से खतरे में है। एक बार सड़क का विस्तार हो जाने के बाद यहां नियमित यातायात संचालन होने लगेगा और यह नुकसानदेह होगा।” पॉल कहती हैं, “यह बहुत खूबसूरत जगह है। वहां चित्र पोस्टकार्ड जैसी पनचक्कियां, खूबसूरत द्वार, प्राचीन पेड़ों से घिरे ऊंचे प्लेटफार्मों पर बने पुराने विश्राम गृह हैं। ये सब चला जाएगा। यह अहसास ही कितना भयानक है। कितना बड़ा नुकसान है।”

चौंकाने वाली बात तो यह है कि वन विभाग चुपचाप राज्य सरकार की हर मांग मान कैसे लेता है। इस परियोजना के नोडल अधिकारी पीडब्ल्यूडी के कार्यकारी अभियंता संजय प्रताप सिंह ने बताया कि “वन विभाग की मदद से पेड़ों की कटाई की शुरूआत पहले मेरठ से होगी।” वन विभाग के एक अन्य अधिकारी कार्रवाई को उचित ठहराते हुए कहते हैं कि इसकी भरपाई के लिए ललितपुर जिले में प्रतिपूरक वनीकरण किया जाएगा। वैसे, यह गाजियाबाद से 550 किलोमीटर दूर है।


गाजियाबाद के पर्यावरणविद् और वकील आकाश वशिष्ठ ललितपुर में प्रतिपूरक वनीकरण के तर्क पर सवाल उठाते हैं कि गाजियाबाद और उसके आस-पास के इलाके तो पहले से ही भयानक प्रदूषण और पानी की कमी से पीड़ित हैं। ऐसे में जब  “ऊपरी गंगा नहर के किनारे के पूरी तरह से परिपक्व हो चुके पेड़  काटे जाएंगे तो स्थानीय जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और वन्यजीव भी विस्थापित होंगे।”
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने फैसले का स्वत: संज्ञान लेकर तीन प्रभावित जिलों के जिलाधिकारियों और यूपी वन विभाग से विस्तृत प्रतिक्रिया मांगी। वन विभाग का कहना था कि जबकि 222.98 हेक्टेयर संरक्षित वन भूमि काटी जा रही है, प्रस्तावित प्रतिपूरक पुनर्वनीकरण ललितपुर, मिर्जापुर और सोनभद्र जिलों की गैर-वन भूमि में होना तय हुआ है जो इस क्षेत्र से सैकड़ों मील की दूरी पर हैं।

परियोजना पर तत्काल रोक लगाने के बजाय एनजीटी ने 20 मई को अपनी बैठक के दौरान महज यह जानना चाहा कि यहां किस तरह की सड़क प्रस्तावित है: राष्ट्रीय राजमार्ग, राज्य राजमार्ग या किसी अन्य प्रकार की सड़क। एनजीटी ने इन वर्गीकरणों का आधार तैयार करने को भी कहा।

इस पूरी क्रिया में बरती जा रही दंतहीनता किसी को भी ‘लाल निशान’ दिखने के लिए पर्याप्त है। पर्यावरण मंत्रालय, वन विभाग और एनजीटी जैसी संस्थाएं किस काम की? वे हमारे पर्यावरण और जल संसाधनों की रक्षा के बजाय उन्हें नष्ट करने पर ही आमादा हैं!

वैसे भी, हमारे शहर विशाल शहरी विस्तार का रूप लेते गए हैं जहां बहुमंजिला परिसरों की जगह बनाने के लिए पेड़ों का आवरण हटा दिया गया है और जो वायु का प्राकृतिक प्रवाह अवरुद्ध करते हैं। सीमेंट निर्मित राजमार्ग और डामर पार्किंग स्थल, एयर कंडीशनर और गर्म हवा उगलने वाली कारें- ये सभी ‘हीट आइलैंड प्रभाव’ बढ़ाते हैं जो शहरी तापमान 15 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा सकते हैं।


यही वह मुख्य कारण है कि उत्तर भारत के शहरों में सर्वकालिक उच्च तापमान दर्ज किया जा रहा है। पेड़, यानी हरियाली शहरी गर्मी कम करने के सबसे किफायती तरीकों में से एक हैं। वे छाया देते हैं। उनकी पत्तियों से वाष्पित पानी दिन के सबसे गर्म हिस्सों में भी आसपास के इलाकों को कुछ डिग्री तक ठंडा कर सकता है। उनकी पत्तियां स्थानीय वायु प्रदूषण अवशोषित और फिल्टर करती हैं। ये बात हर स्कूली बच्चा जानता है।

लेकिन फिर भी हमारे पास एक ऐसी सरकार है जो जानबूझकर इस सब की अनदेखी कर रही है। सच से इनकार कर रही है। 2009 और 2023 के बीच भारत ने तीन लाख हेक्टेयर वन भूमि गैर-वन उद्देश्यों के लिए स्थानांतरित की है, यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि प्रतिपूरक वनीकरण काम नहीं करता है। अकेले 2020-21 में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए लगभग 30 लाख पेड़ काटे गए। डेनिश प्रकृति स्थिरता अध्ययन ने हाल ही में पुष्टि की है कि भारत ने छह मिलियन पूर्ण विकसित पेड़ खो दिए हैं।

हमारे सत्तानशीनों की विकास कल्पनाएं पूरा करने के लिए अब उत्तर प्रदेश में बची-खुची चीजें भी निपटाई जा रही हैं। यह ऐसे समय में हो रहा है जब दिल्ली को देहरादून से जोड़ने वाले कई एक्सप्रेस-वे पहले से मौजूद हैं। कांवड़िये तो एक बहाना हैं। अधिकांश पर्यावरणविदों का मानना ​​है कि बुनियादी ढांचा परियोजनाएं एक के बाद एक शुरू की जा रही हैं क्योंकि इससे पैसा खूब आता है। वनों के नष्ट होने का सीधा संबंध हमारे झरनों और नदियों के लुप्त होने से है। ऊपरी गंगा नहर एक समृद्ध कृषि क्षेत्र को पानी प्रदान करती है। अगर आने वाले वर्षों में यह पूरी तरह से सूख गई, तो ऐसी भयानक क्षति होगी जिसकी भरपाई असंभव है।

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